बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

छुट्टियों के पीछे- पीछे दफ्तर

कई महीनों बाद लंबी छुट्टी पर गया था। दफ्तर छोड़कर। दीवाली के बहाने छुट्टी मिली थी। यह तो हमारे दफ्तर की कृपा थी कि उसने इतने आसान बहाने पर अवकाश स्वीकृत कर दिया, वरना रिश्तेदारों की शादी करवानी पड़ती, बीवी को बीमार करना पड़ता, दादी जो बीस साल पहले देवलोक को पधार चुकी हैं, उन्हें फिर से स्वर्गवासी करना होता, डॉक्टर से खुद के बीमार होने की पर्ची बनवानी पड़ती, वगैरह...वगैरह। सच पूछिये तो मैं अपने दफ्तर का इसीलिए प्रशंसक हूँ क्योंकि यहाँ छुट्टियों के लिए अपनी रचनात्मकता का ज्यादा इस्तेमाल नहीं करना पड़ता। तनख्वाह कम हो सकती है, इंक्रीमेंट का टोटा हो सकता है, बोनस के लाले पड़ सकते हैं, लेकिन छुट्टियाँ दिल खोलकर मिलती हैं। दूसरों के यहाँ तो अफसर छुट्टियों पर भी कुंडली मारे बैठे रहते हैं।

दफ्तर छुट्टियाँ देने में भले ही उदार हो लेकिन ज्यादा ग्रहण करने में अपन ही फटी में आ जाते हैं। लगता है लंबी छुट्टी न स्वीकृत हो जाए। छुट्टियों पर जाने से पहले यह सोचकर गया था कि अपने साथ राई-तोला भी दफ्तर लेकर नहीं जाऊँगा। घर में पूरा घर का होकर रहूँगा, लेकिन कसम रोजी की दस दिन की छुट्टी में दिन में दस बार दफ्तर लिपट-लिपट कर रोया। आँसू बहा-बहाकर बोला, हमें छोड़कर कहाँ पड़े हो। राम ने जितने बरस बनवास में काटे तकरीबन उतने ही अपन को अखबार में काटते हुए। रात-रातभर आँखें फाड़कर खबरें खोदने की इस कदर आदत हो गई है कि शाम को घर पर रहना किसी अनहोनी की तरह लग रहा था। हर शाम को लगता था कि नौकरी ने मुझे तलाक दे दिया है। घर में कोई मिलने आता तो लगता खबर देने आया है। बात-बात में नजरें खबर तलाशने लगतीं। मैं अगर दूर बैठकर खुद को देखता तो पागल जैसा ही पाता। फिर भी सारे परिजन खुश थे कि मैं कई महीनों बाद छुट्टी पर हूँ और घर पर हूँ।

छुट्टियों की तीसरी-चौथी रात सभ्य और सुसंस्कृत इंसानों की तरह रात दस बजे सो गया। रात बारह बजे अचानक सपना आया कि डेडलाइन पर पन्ने नहीं छूटे हैं और आज अखबार लेट हो जाएगा। फिर संपादक का चेहरा दिखा, सुबह की मीटिंग दिखी, सर्कुलेशन वालों की धमकियाँ दिखीं और अंत में अपना इस्तीफा अपने आप मंजिल की ओर जाता दिखा। अचकचाकर उठ गया और पूरी रात इस्तीफा पकड़ता रहा कि वह पुष्पक विमान पर सवार न हो जाए। फिर तो नीद ही काँच के टुकड़े की मानिंद पलकों में चुभती रही।

वर्षों की साध थी कि सवेरे का सूरज देखूँ। छुट्टियों पर यह इच्छा भी पूरी करनी थी। जिस शहर में सूरज सवेरे कोंच-कोंचकर जगा देता था, वहाँ सूरज बड़े कॉम्पलेक्स के पीछे आ गया था, अतः बिना बाहर निकले उसे देखना मुनासिब नहीं था। सुबह उठा। बाहर निकला तो वह धुँधला-धुधला था और आधा शहर फेंफड़ों में हवा भरने के लिए सड़कों पर घूम रहा था। सूरज वैसा ही था, जैसा कभी-कभार अखबार के पन्नों पर छापा जा चुका था। उसे अगली छुट्टी तक लिए देख लेना था, अतः जीभर कर देखा। लगा अच्छा है कि यह सूरज मेरी तरह अखबार में नौकरी नहीं करता, वरना धरती के आधे लोग तो उसके इंतजार में ही मर जाते। धरती सोती रह जाती। मैं अगर प्रधानमंत्री होता तो चैनलों में दिनभर यह खबर चलती कि मैने सूरज देख लिया। खैर!

दस दिन की छुट्टी बिताने के बाद चलने का समय आया तो घर रोकने लगा। पलभर के लिए लगा कि एक-दो दिन और रुक जाया जाय। बहाना बना दिया जाए कि रेल का रिजर्वेशन नहीं मिला। कल का या परसों का मिला है, लेकिन रुकने का साहस नहीं हुआ। लगा ज्यादा छुट्टी मनाकर लौटूँगा तो दफ्तर भले पहचान ले, लेकिन कहीं आठ कॉलम बावन सेंटीमीटर का अखबारपह ही चानने से न इंकार कर दे। कुल मिलाकर छुट्टी देकर भी दफ्तर पीछे-पीछे लगा रहा।

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

नज़र शरीफ़ों की चुपके से तालिबान बनी

दोस्तों! कई दिनों से व्यंग्य पोस्ट कर रहा हूँ। आज आपको ग़ज़लों से रूबरू कराते हैं। सामयिक ग़ज़लें। इन्हें आप व्यंग्यनुमा ग़ज़ल या ग़ज़लनुमा व्यंग्य कह सकते हैं। प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'समावर्तन' ने सितंबर अंक में इन ग़ज़लों को प्रकाशित किया है।

मेरी बस्ती की मुलक में नई पहचान बनी।
एक गली हिन्दू तो एक मुसलमान बनी।

दंगों ने बदल दी शहर की आबोहवा,
किताब बच्चों की गीता कहीं कुरआन बनी।

सहम-सहम के परिंदे उड़ान भरते हैं,
नज़र शरीफ़ों की चुपके से तालिबान बनी।

मजहब का सियासत से गठजोड़ ग़ज़ब है,
जनमों की आस्था कुरसी की पायदान बनी।

पहचानना मुश्किल है क़ातिल की शक्ल को,
बम छिपाने की महारत बहुत आसान बनी।

शहर से रूठ गया प्यार का मौसम यारो,
आजकल जिंदगी नफ़रत का संविधान बनी।

सोते में चीख़ता है सुल्तान आजकल

टूट पड़ा आँगन में आसमान आजकल।
साँसों में उठ रहा है तूफान आजकल।

कबूतर ने जने हैं कई नन्हें कबूतर,
डर-डर के बाज भरता है उड़ान आजकल।

फ़क़ीर के कदमों में है रफ़्तार कुछ अधिक,
सोते में चीख़ता है सुल्तान आजकल।

पड़ोसी का घर खंगालते खंजर लिए हुए,
तकिए के नीचे छिप गया शैतान आजकल।

मुर्दा से दिखे चेहरे जो भी दिखे यहाँ,
हँसने लगा है बस्ती में शमशान आजकल।

पहुँचा है माँ की कोख तक बाज़ार का दख़ल,
सामान की मानिन्द हैं नादान आजकल।

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

आज मैं गाँधी बन गया

कल सुबह जब कैलेण्डर पलट रहा था, तभी इस बात का ज्ञान हो गया था कि आज २ अक्टूबर है और यह देश मोहनदास करमचंद गाँधी उर्फ महात्मा उर्फ राष्ट्रपिता का जन्मदिन मनाएगा। अतः हर साल की तरह एक बार फिर मेरे पास मौका था गाँधी बनने का। मैंने इस सुअवसर को झपटकर पकड़ा। बक्से में रखे खादी के कुरते को सुबह-सुबह ही धारण कर लिया। मल्टीनेशनल कंपनियों के सारे जींस, जूते, टी-शर्ट वगैरह संदूक में उसी तरह रख दिया जैसे सालभर खादी रखी रहती है। ३६४ दिन अगर बक्से को खादी का सुख मिलता है तो एक दिन जींस, टी-शर्ट और जूते वगैरह का सुख भी मिलना चाहिए।

अब इस बात में शंका-कुशंका तो रही नहीं कि गाँधीजी का जन्मदिन है तो पूरे दिन कार्यक्रम होंगे और सब जगह खादी धारण किए हुए अतिथिओं की जरूरत होगी। कार्यक्रमों की संख्या इतनी अधिक है कि खादीवाले हर इंसान को एक दिन का रोजगार अवश्य मिलेगा। मैंने अपने बदन टंगे कुरते को भरोसा दिलाया कि आज के दिन उदास होने की जरूरत नहीं है। शाम तक निश्चित ही तुम्हें एक भव्य कार्यक्रम मिलेगा और सारे लोग तुम्हारी ओर घूर-घूरकर देखेंगे। बक्से में रखे-रखे तुम्हारे भीतर जो बास समा गई है उस पर आज गुलाब के फूल भी शरमाएँगे।

खादी धारण करने के साथ ही मैंने हमेशा की तरह ढेर सारे संकल्प भी लिए-राष्ट्रपिता भले बन जाऊँ, राष्ट्रपति कभी नहीं बनूँगा। कोई कितना भी पकड़-पकड़ कर बनाए प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री जैसे राजनीतिक पदों पर बैठकर मैं अपना जीवन कलंकित नहीं करूँगा। अंग्रेजों के बनाए सारे पदों, यथा-एसपी, कलेक्टर, तहसलीदार, बाबू वगैरह बनकर अंगरेजों का पाप नही ढोऊँगा। प्यास से तड़फ-तड़फकर प्राण भले ही चले जाएँ, लेकिन मद्यपान नहीं करूँगा। भूखे मर जाऊँ लेकिन मांस नहीं खाऊँगा। आज के दिन किसी भी स्थिति में कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं करूँगा। दिनभर में दो-चार किलोमीटर पैदल जरूर चलूँगा। सालभर भले ही मैंने दूसरों के गाल पर चाटा जड़ा है, लेकिन आज अगर कोई एक गाल पर चाटा मारेगा तो मैं दूसरा गाल भी उसके आगे कर दूँगा। अगर कहीं सत्य बोलने का मौका मिला तो पूरी ईमानदारी से बोलूँगा। चोरी-भ्रष्टाचार से भरे पेट में आज पाप का एक दाना भी नहीं डालूँगा। पूरी तरह अस्तेय और अपरिग्रह। जायज और नाजायज दोनों किस्म की पत्नियों से कह दिया है कि आज ब्रह्मचर्य प्रयोग करूँगा। कल तक भले गरीब का खून चूसा हो, लेकिन आज उसे हरिजन कहूँगा और आज के दिन उसे समाज में सम्मान दिलवाऊँगा। घिन लगे तब भी कोढ़ियों की सेवा करूँगा। बस्तियों में झाड़ू लगाऊँगा। पत्नी से कह दिया कि चाहे जो हो जाए, आज टॉयलेट तुम्ही साफ करना, वरना मैं तुम्हें घर से बाहर निकाल दूँगा। वगैरह-वगैरह...

जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया, संकल्पों के बोझ से हमारी कमर टूटने लगी। दोपहर को लगा कि खादी और संकल्प धारण किए हुए पूरे छः घंटे हो गए, लेकिन किसी नामुराद आयोजक की अब तक मुझ पर नहीं पड़ी। एक बारगी लगा कि सब उतार कर आले पर रख दूँ, लेकिन दूसरे पल फिर लगा कि अभी पूरा दिन है, देर रात तक आयोजन चलेंगे। किसी न किसी की नजर तो पड़ेगी। गत वर्ष तक जिन्होंने बुलाया था क्या वे सारे आयोजक हमें भूल गए होंगे। सालभर में क्या गाँधी के इतने सेवक तैयार हो गए कि मेरे जैसा पुराना गाँधीवादी भुला दिया गया।

दोपहर पल्ला झाड़कर चली गई और कोई नहीं आया। मैंने फिर भी सुबह लिया हुआ संकल्प कायम रखा और बकरी का एक गिलास दूध पीकर थोड़ा और इंतजार किया, फिर थोड़ी सलाद और चटनी लेकर दोपहर का खाना निपटाया। खाना पिछले साल की तरह ही बेस्वाद लगा। लगा अगर यह संकल्प पूरे तीन सौ पैंसठ दिन टिक गया तो जीवन नरक हो जाएगा। पीजा-बर्गर, मुर्ग-मसल्लम से लेकर खीर-पुडी तक हमारा नाम ले-लेकर मातम मनाएँगे। खैर...

भोजन प्रसाद के बाद बाहर निकला ही था कि दौड़ते हुए एक सज्जन आए और उन्होंने कहा कि मोहल्ले में गाँधी जयंती का आयोजन है, हम लोगों ने पार्षद को मुख्यअतिथि बनाया था, वह कहीं और चला गया। अब आप ही पधारिए, कार्यक्रम जल्दी करना है। हमें लगा कि हमने सुबह से जो इतने संकल्प ढोए हैं, क्या मोहल्ले के मुख्यआतिथ्य में ही उनका स्वर्गवास हो जाएगा। मैं अभी इतना भी तो नहीं गिरा हूँ कि मुख्यअतिथि बनने के लिए पार्षद का विकल्प बनूँ। मैंने सज्जन को यह कहते हुए झटपट मना किया कि अभी मुझे तीन बजे की प्रार्थना पर जाना है। शाम को बड़े मैदान पर गरीबों को कपड़े बाँटने के लिए मुख्यमंत्री को आना था, मुझे पता था कि इस अवसर पर एक गाँधीवादी का सम्मान किया जाना है और उन्हें फिलहाल कोई मिल नहीं रहा है। जो बड़ी सेटिंगवाले गाँधीवादी थे उन्हें दिल्ली में, जो उनसे थोड़ा कम थे, उन्हें भोपाल में सुबह ही सम्मानित किया जा चुका है। लोकल कोई इतना बड़ा गाँधीवादी नहीं, जो गाँधीगिरी के अलावा कुछ और न करता हो। मुख्यमंत्री के लोकल चमचों से इधर-उधर से कुछ जुगाड़ अपना भी था।

उधर भोपाल से मुख्यमंत्री का हेलीकॉप्टर उड़ा होगा कि इधर हमारे पास कार्यक्रम में शामिल होने का न्यौता आया। मुझे अपने कुरते पर गर्व हुआ। मुख्यमंत्री से श्रेष्ठ गाँधीवादी का सम्मान लेकर मैं कुछ हल्का हुआ। घर आया, सम्मान को बैठक कक्ष में टांगा और दिनभर से जिस बोझ से कमर टूट रही थी, उसे उतारकर संदूक में रख दिया।

बुधवार, 30 सितंबर 2009

दूसरे रावण की तलाश में राम

मैं दशहरे की धूमधाम देखकर लौट रहा था कि देर रात राम से मुलाकात हो गई। जटाएँ बिखरी हुई, पसीने से तरबतर, गैरिक वस्त्र धूल-धूसरित, चेहरे पर परेशानियों की अनगिनत रेखाएँ, आँखों में आँसू थामे हुए, तकरीबन पराजित से। पहले रामलीला में और फिर टीवी में उनकी शक्ल देखते हुए उनसे पुराना परिचय-सा लगा। बिना कुछ सोचे-विचारे मैंने उनसे उनका हाल पूछा-

-कुछ परेशान से दिख रहे हैं राम। हमें लगता है आपने आज ढेरों रावण मारे हैं। रावण मार-मारकर थक गए हैं?

-नहीं वत्स! तुमने गलत समझ लिया। मैं शाम से ही रावण को खोज रहा हूँ। हाथ में धनुष बाण लिए रावण की तलाश में भटक रहा हूँ, लेकिन रावण का कोई अता-पता नहीं। मैं चिंतित हूँ कि अगर आज की रात रावण नहीं मार पाया तो रावण कैसे मरेगा और लोग मुझे राम कैसे मानेंगे?

-शाम से ही धू-धू कर इतने रावण जल रहे हैं और आप कहते हैं कि आपको रावण मिला ही नहीं। आज तो पूरे शहर में केवल रावण ही रावण दिख रहा था। आप कैसे राम हैं?

-मेरी यही तो मुश्किल है। मैं कैसे बताऊँ कि मै कैसा राम हूँ। आज जगह-जगह नकली रावण खड़े थे और उन्हें नकली राम मार रहे थे। मैं रावण की तलाश में जहाँ भी गया लोगों ने मुझे राम मानने से इंकार कर दिया।

-कोई बात नहीं प्रभु, चलिए मैं एक रावण बनाता हूँ और आप उसका वध करिएगा। मैं उसमें दो-चार बम रख दूँगा। एटम बम जैसी आवाज होगी। मोहल्ले के बच्चे ताली बजाएँगे। आपको भी मजा आएगा और बच्चों को भी।

-मैं मजे लेने के लिए इस धरती पर नहीं घूम रहा हूँ वत्स! मैं तो आज सचमुच ही रावण मारने निकला था, लेकिन वह जाने कहाँ छिपा बैठा है।

-आप तो अंतर्यामी हैं। जरूर जानते होंगे कि वह कहाँ छिपा है। आँखें बंद करके देखिए न!

-जिस रावण को मैंने पहली बार मारा था, वह धरती का सबसे मायावी राक्षस माना जाता था। इसके बाद भी मैने उसका वध किया। अब जिस रावण का मैं पीछा कर रहा हूँ, वह उससे भी मायावी, उससे भी चतुर, उससे भी ज्ञानी और उससे भी अधिक अपराजेय है।

-कैसे?

-आज शाम को जब मैंने पहली बार रावण को तलाशा तो वह अट्टहास करता मिला। मेरा उपहास करता हुआ। दूर से ही चिल्लाते हुए उसने कहा कि तुम क्या अब तो सारे देवी-देवता मिलकर भी मुझे नहीं मार सकते। उसके दस सिर गर्व से तने हुए थे। हँसता भी दस मुखों से था। मैं अपनी सारी शस्त्र विद्याओं के बलबूते मारने के लिए जैसे ही उसके पास गया, उसने अपने नौ सिर झट से छिपा लिए और भद्र दिखने लगा। मैने उसकी माया मारने के लिए जैसे ही तीर धनुष पर चढ़ाया, सारी जनता मेरी ओर दौड़ पड़ी। कहने लगी यह मेरा अन्नदाता है। मेरा पालनहार। इस पर वार करने वाले तुम कौन हो। मेरी जयकार करने वाले सारे लोग उस तरफ दिखे और मैं वहाँ से अपनी जान बचाकर भागा। मैं अपने भक्तों को मार नहीं सकता और भक्त मुझे मारें यह देवताओं को अच्छा नहीं लगेगा।

-फिर क्या हुआ?

-मैने उसी रावण को फिर दूसरी शक्ल में देखा। उसे लगा कि आज नहीं तो कल लोग मुझे पहचान जाएँगे। इसलिए उसने अपने दस सिरों का विसर्जन कर लिया। उसने मेरी ही शक्ल धारण कर ली। जगह-जगह रावण की जगह राम दिखाई दे रहे हैं। जैसे बालि-सुग्रीव युद्घ में बालि को पहचानने में मुश्किल हो रही थी, उसी तरह राम की शक्ल में रावण को पहचानना मुश्किल है। मैं जानता हूँ रावण अभी नहीं मरा है, फिर भी असहाय हूँ। मैंने एक चीज और देखी है..

-वह क्या प्रभु!

-अब लोग रावण के अभ्यस्त हो गए हैं। अब उन्हें रावण राक्षस नहीं लगता। जब साधुओं और सज्जनों को त्रस्त करता है तो लो कहते हैं, यह उसका काम है। जब सीता पर कुदृष्टि डालता है, तब भी लोग यही कहते हैं। सोने की लंका देखकर भी लोग सहज ही कह देते हैं कि वह राजा है, सोने की लंका उसकी नहीं होगी तो गंगू तेली की होगी? पहले तो रावण सज्जनों के खून और उनकी हड्डियाँ लेता था, तो कुछ तकलीफ भी होती थी। अब तो कभी-कभार केवल वोट लेता है, इसलिए लोगों को तनिक भी तकलीफ नहीं होती?

-तो क्या अब वह इसी तरह जीवित रहेगा? उसके अंत का कोई उपाय नहीं?

-चिंता मत करो वत्स! अब मैं उसे 'वोट' बनकर मारूँगा। मैं जल्द ही 'मतावतार' लूँगा।

रविवार, 27 सितंबर 2009

माँ-भक्त संवाद-चार

-भक्तों! धुएँ से मेरा दम घुट रहा है, शोर से मेरे कान फटे जा रहे हैं, तुम्हारे इन अश्लील नृत्यों मेरी आँखें शर्म से झुकी जा रही हैं। अब मुझे मुक्त करो। मुक्ति दो मुझे।

-कैसी बात कर रही हो माँ! हम भक्तों को मुक्त करना तो तुम्हारा काम है। तुम स्वयं कैसे मुक्त होने की बात करने लगी। इस तरह चल दोगी तो हमे कौन मुक्त करेगा। और यह धुआँ नहीं है माँ! हवन है, तुम्हारा भोजन। और जिसे तुम शोर कह रही है, यह तुम्हारी भक्ति में गाया जा रहा गीत है। इसे अश्लील नृत्य मत कहो, यह तो गरबे की महान परंपरा है। पूरा देश कर रहा है। टीवी में भी तो हो रहा है।

-अगर हवन भोजन है और यह शोर भक्ति, तो खीर-मलाई छोड़कर दो-चार दिन तुम भी यही भोजन करके देखो।

-माँ! आप इतनी अनजान मत बनो। हम लोग बीड़ी-सिगरेट से लेकर गाँजे के दम तक कितना धुआँ पीते हैं, यह तो तुम पूरे नौ दिन देखती ही हो। सड़क पर चलते हुए चौबीस घंटे मोटरों-कारों का धुआँ भी हम ही पीते हैं। धुआँ पी-पीकर ही हम सीने में दम भरे हुए हैं। और तुम कितना शोर सुनती हो माँ! अधिक से अधिक नौ दिन ही न! हम लोग तो सोते-जागते गाड़ियों की घर्र-घर्र, हार्न की चिल्ल-पों सुनते हैं। यह सुनकर हमारे कान इतने पक्के हो गए हैं कि तुम जिसे शोर कहती हो, वह हमे संगीत लगता है।

-फिर भी अब नौ दिन का कर्मकांड पूरा हो गया है।

-तुम कहो या न कहो, चाहो या न चाहो, अब तो हम तुम्हें प्रवाहित करेंगे ही। नौ दिन के बाद तुम्हारा विसर्जन आवश्यक है।

-देखो न! तुम मुझे माँ भी कहते हो और मेरा जन्म और मेरी मृत्यु भी तय करते है। मेरी स्थापना भी तुम्हीं तय करते हो और मेरा विसर्जन भी। ऐसा लगता है जैसे मैं तुम्हारी माँ नहीं, तुम मेरे जनक हो। इस मंडप में मैं वैसे ही बैठी हूँ, जैसे तुम्हारी माँ घर भर की प्रताड़ना सहकर देहरी पर बैठी रहती है।

-मेरी बात पर मत जाओ,मेरी भावनाओं को दखो माँ!

-तुम्हारी भावनाएँ ही तो देख रही हूँ पुत्र।

-अगले बरस तो फिर आओगी न!

-यह भी मैं कहाँ तय करती हूँ। यह तो तुम्हारे मोहल्ले का चंदा तय करेगा। जैसा तुमने कहा था मालामाल जी तय करेंगे। विराजोगे तो स्थापित हो जाऊँगी। विस्थापित करोगे, विस्थापित हो जाऊँगी।

-ऐसी बात करके जाते-जाते हम लोगों को रुलाओ नहीं माँ!

-चलो अच्छा बता दिया तुमने कि तुम्हें रोना भी आता है। मैं तो समझ रही थी कि तुम्हें केवल रुलाना आता है।

-अच्छा बताओ माँ तुम्हें किस नदी में प्रवाहित करें।

-तुम तो मुझे ऐसे विसर्जित कर रहे हो, जैसे राजा फाँसी देते समय अंतिम इच्छा पूछ रहा हो। ज्यादा कष्ट मत करो। जो नदी-नाला सबसे पास हो, उसी में फेंक दो। फेंकने के बाद पीछे मुड़कर मत देखना क्योंकि किसी नाले में इतना पानी नहीं है कि मैं पूरी की पूरी डूब जाऊँ। पीछे मुड़कर देखोगी तो तुम्हें ऐसा लगेगा, जैसे मैं तुम्हारा पीछा कर रही हूँ।

(विसर्जन यात्रा पर जयकारों का नाद तेज हो गया था। माँ की सिसकी जयकारों में उसी तरह खो गई थी, जैसे दिल्ली में कलावती।)

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

माँ-भक्त संवाद-तीन

चाँद पर पानी

-देखा, तुम लोग यहाँ पूजा-पाठ और नाच-गाने में लगे रहे, वहाँ चंद्रयान ने चाँद पर पानी खोज लिया। तुम्हारे भारत देश के वैज्ञानिकों ने कमाल कर दिया।
-माँ! आप भी कैसी बातें करती हैं। क्या हम लोग आपकी महिमा से परिचित नहीं हैं। भले वह चंद्रयान है, लेकिन उसने चाँद पर पानी नवरात्रि में ही खोजा। तुम जो चाहे करवा दो। हम लोगों को कुछ शक्ति दो। हम लोग धरती पर पीने का पानी खोजते-खोजते ही चंद्रयान बने हुए हैं। जिंदगी का यान पुर्जे-पुर्जे बिखर रहा है और साफ पानी दूर भाग रहा है।
-तुम लोग साफ पानी के लिए भटकते ही क्यों हो? बचपन से ही तो गंदा पानी पी रहे हो। कुएँ का पानी पिया, जिसमें बगीचेभर की पत्तियाँ गिरी पड़ी थीं। तालाब में नहाया और उसका पानी भी पिया। गाँवभर के ढोर उसमें नहाते थे। गोबर करते थे। जिस नदी का पानी पिया, उसमें शहर का गटर गिरता था। फिर नलों में जो पानी आया, वह सीवरेज लाइन से जुड़ा हुआ था। तुम्हारी आँतें गंदे पानी से ही काम करेंगी। साफ पानी पिओगे, कितने दिन जिओगे।
-माँ! हम लोग तो अभी भी उसी पानी से जिंदगानी चला रहे हैं। वह तो तुम्हारे भोग के लिए साफ पानी तलाशते रहते हैं। हम नहीं चाहते कि तुम्हारा भोग गटर के पानी से लगे। बोतल बंद पानी भी चढ़ाकर हम पाप नहीं मोल लेना चाहते। अगर तुम्हें गटर अथवा बोतलबंद पानी पसंद हो तो हमें समर्पित करने में कोई दिक्कत नहीं। पानी की जगह 'कोक' से काम चल जाए तो और अच्छा, क्योंकि धीरे-धीरे पानी की बोतल 'कोक' से महँगी होती जा रही है। जून की तपन में तो दूध और शराब भी पानी से सस्ते मिल जाते हैं। हमारी धरती का पानी उतरता जा रहा है, कुछ तो पानीदार करो माँ!
-देखो भक्तों! मैं तुम्हें शक्ति दे सकती हूँ, भक्ति दे सकती हूँ, ज्ञान दे सकती हूँ, दया दे सकती हूँ, चाहो तो धन भी दे सकती हूँ। पानी देना मेरे वश में नहीं है। सृष्टि में जो व्यवस्था बनी है उसमें पानी पेड़ ही देंगे। तुम लोग धरती पर पेड़ लगाओ, पानी अपने आप आएगा। अधिक रहेगा तो साफ भी रहेगा।
-माँ! हम भारतवर्ष के लोग अरब से खरब हो रहे हैं। अगर धरती पर पेड़ लगाएँ तो आदमी को कहाँ बसाएँ। पेड़ काट-काटकर तो रहने के लिए जगह बना रहे हैं। अपनी संतानों को तो धरती पर आने से हम हम रोक नहीं सकते। पेड़ काट सकते हैं, अतः काट रहे हैं। औलादें नहीं आएँगी तो तर्पण कौन करेगा, गया कौन ले जाएगा? तर्पण नहीं हुआ और गया नहीं गया तो मोक्ष कैसे मिलेगा? मरने के बाद पेड़ों पर घट ही तो बाँधते हैं। उसे तो बिजली के खंभे पर भी बाँध देंगे। एक बात और माँ! हम लोग हैं, इसीलिए आप भी हैं, वरना न आप न आपका ज्ञान।
(बेटों के इस कथन के बाद माँ के पास बोलने को कुछ नहीं था। वे लगभग निरुत्तर हो गईं।)

बुधवार, 23 सितंबर 2009

माँ-भक्त संवाद-दो

-भक्तों ! तुम्हारी दृष्टि में नवरात्रि के नौ दिनों में भक्ति क्या है?
-चंदा इकठ्ठा करना, आपकी मूर्ति विराजना, गाना-बजाना करना, गरबे-डिस्कों अदि के शानदार आयोजन करना, खीर-पूड़ी की अच्छी परसादी बाँटना, समापन पर अच्छा बड़ा भंडारा करना, मूर्ति विसर्जित करने के लिए गाजे-बाजे के साथ जाना, आपकी प्रतिमा को नदी में प्रवाहित कर देना और फिर बचे हुए चंदे से थोड़ा-बहुत पीने-खाने का आयोजन कर लेना। इस नवधा भक्ति के बाद थकान उतारना भी तो जरूरी है माँ।

-भक्तों! मेरी आरती बिना डीजे के नहीं हो सकती क्या?
-पड़ोसी पांडाल में देखा है कितना आधुनिक डीजे बजता है। वहाँ तो मुम्बई से भजन गाने वाली और गरबा करने वाली हिरोइने भी आई हैं। सुना है कुछ बार बालाएँ भी हैं। गुजरात और बंगाल से भी हिरोइनें आती हैं। लोकल सारी सुंदर युवतियाँ भी उसी पांडाल पर जाकर नृत्य करती हैं। वो तो अपने पांडाल में घुसने की भी फीस लेता है। इसके बाद भी वहाँ भीड़ उमड़ती है। पीने-खाने का कार्यक्रम भी रोज होता है। उसके मुकाबले तो अपना डीजे कमजोर ही है माँ।

-और कल झगड़ा किस बात को लेकर हुआ था?
-क्या कहूँ माँ, कल कुछ बेधर्मी इधर आ गए थे। अब जिनके सुल्तानों ने हमारे मंदिर तोड़े, हमारे धर्म को प्रदूषित किया, हमें सालों तक गुलाम बनाया, उनको हम कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं। हम तो चाहते हैं कि उनको इस देश से ही बाहर निकाल दें, लेकिन सरकारें उनके तलवे चाट रही हैं। हम लोग इतना बड़ा आयोजन भी तो इसीलिए करते हैं कि हमारी ताकत देखकर उनकी फट जाए। कभी-कभार शस्त्रपूजा भी तो इसीलिए करते हैं। इसके बाद भी उनकी हिम्मत देखिए कि हमारी गली में घुस आते हैं। कल लगी-छनी का मामला था हो गई जूतम-पैजार।

-तुम लोग इतना हल्ला करते हो, बच्चे पढ़ नहीं पाते। बीमार लोग परेशान होते हैं।
-पढ़ने-लिखने से क्या होगा माँ। सिर्फ समय की बरबादी। हम लोग पढ़- लिखकर देखो वर्षों से तुम्हारी सेवा कर रहे हैं और जो लोग बिना पढ़े-लिखे हैं वो सरकार की सेवा कर रहे हैं। हम लोग चार-चार पैसे के चंदे में अपनी उम्र खपा रहे हैं। उनके घर करोड़ों का चंदा पहुँच रहा है। अब ज्यादा न कहलाओ माँ! तुम भी तो उन्हीं का भंडार भरती हो। हम लोगों की जिंदगी घिस गई सुबह-शाम की रोटी में मुश्किल हो रही है। रही बात बीमारों की तो महँगाई और जहालत में मरने से अच्छा है कि दिल-गुर्दा फेल होने से ही मर जाएँ।

-अच्छा यह बताओ कि इन नौ दिनों में अगर तुम लोग मेरी स्थापना कर यह आयोजन नहीं कर रहे होते तो क्या करते?
-माँ! तुम आजकल कितने प्रश्न करने लगी हो, लगता है अब तुम भी अंतर्यामी नहीं रहीं। पेट पालने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही है। कानून करने देता है तो कानून के भीतर करते हैं, नहीं करने देता तो कानून के बाहर करते हैं। वैसे अच्छा यह है कि अपने देश में कानून नाम की कोई बाधा नहीं है। अपने-अपने कायदे हैं-अपने कानून हैं। इसलिए जरूरत पड़ने पर सब कानून के दायरे में आ जाता है। सरकारें और कानून काम नहीं देते इसलिए हम कानून को ही काम देते हैं।
(जवाब सुनकर माँ एक बार फिर उदास हो गईं)

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

माँ- भक्त संवाद- एक

-भक्तों तुम लोग क्यों नाच-गा रहे हो?-माँ आज हम लोगों का दिल प्रसन्न है, हम नहीं नाच रहे हैं, मन ही मयूर है।
-मन मयूर होने की कोई खास वजह भक्तों?-नवरात्रि है तो आपके चरणों में लोट रहे हैं।
-इसके पहले गणेशोत्सव में भी आप लोगों के नृत्य से सड़कें भरी थीं, लोगों का सड़कों पर चलना मुश्किल था।
-तब गणेशजी के चरणों में लोट रहे थे।
-इसके पहले मालामालजी के चुनाव में भी तो खूब झूम-झूमकर नाचे थे।
-तब उनके चरणों में लोट रहे थे। उनकी वजह से ही तो सारा लाव-लश्कर है माँ। आपकी मूर्ति और इस आयोजन के लिए भी तो वही पैसे खर्च करते हैं। धन को हाथ का मैल मानकर चार-छः लाख रुपए झाड़ देते हैं।
-जब अमेरिका से विश्वसम्राट आए थे तब?
-माँ! उनके चरणों में तो सारी दुनिया लोट रही है, फिर अपनी क्या औकात? नाचें-गाएँ नहीं, उनके चरणों में लोटें नहीं तो अपने सम्राट की छवि काली कोठरी में चली जाएगी। अमेरिका से माल आना बंद हो जाएगा और वे हमें महँगाई का एक और शाप दे देंगे। हम लोग घर बैठे मर जाएँगे।
-अच्छा भक्तों! यह बताओ, तुम लोग किसके चरणों में नहीं लोटते?
-माँ! आप तो सब जानती हैं, फिर भी बता दूँ। जो भी अपने को धन-दौलत दे सके, नौकरी-चाकरी दे सके, ट्रांसफर-प्रमोशन करवा सके, छोटे-मोटे चुनाव का टिकट दिलवा सके। उसके चरण में हमारा आचरण समर्पित है। दुनिया में कोई चरण हमारे लिए अछूत नहीं है। अपने चरण में लोट नहीं सकते इसलिए वह बचा हुआ है।


(बेटों के जवाब पर माँ को शर्म जैसा कुछ महसूस हुआ और आगे की सारी जिज्ञासाओं को उन्होंने उसी तरह पचा लिया, जैसे कभी शिव ने जहर पचाया होगा। उन्होंने यह मान लिया कि उन्हें बेटों के बारे में सब पता है।)

शनिवार, 19 सितंबर 2009

दादा का जीवन सादा हुआ

अपने दादा भी वहीं से आए हैं, जहाँ से बड़े-बड़े नेता आते हैं। दादा ने पढ़ाई-लिखाई भी वहीं से की है जहाँ से अपने महान देश के महान प्रधानमंत्रियों ने की है। उनका खानदान भद्र है, उच्च है, महान नेताओं का है। वे उस राजनीतिक दल से आते हैं, जहाँ लोकतंत्र का मतलब हुकुम है और आजादी के बाद से जिसका ज्यादा समय सरकार चलाने में ही बीता है। वे कैमरे को बहुत ही मादक-मोहक मुस्कान समर्पित करते हैं। उनकी रगों में दौड़ने वाला खून गंगा-यमुना और पूरब-पश्चिम का पवित्र संगम है। गाँव में हिंदी और शहर में अंग्रजी बोलते हैं। गरीबों को गले लगाने की कला सीख रहे हैं। दादा यूँ तो कभी बूढ़े नहीं होंगे लेकिन इन दिनों जवानी का उद्घार कर रहे हैं। जवानों में जोश भर रहे हैं। आम (आदमी) के घर आम और खास के घर के खास बनकर जा रहे हैं। दादा को अपना भविष्य प्रधानमंत्री की कुरसी पर नजर आता है इसलिए वे हर हाल में भारत का भविष्य सुधारने में लगे हैं। दादा को बच्चा कहने वाले गच्चा खा चुके हैं। दादा मंत्री नहीं हैं फिर भी मंत्रियों से बड़े हैं। सारा आर्यावर्त जानता है कि दादा प्रधानमंत्री बनकर ही अच्छे लगेंगे, इसके बाद भी वे अभी प्रधानमंत्री बनने में रुचि नहीं दिखा रहे हैं।

दादा जब सात समंदर पार अध्ययन के लिए गए थे, तब यह मानकर नहीं गए थे कि उन्हें राजनीति के दलदल में कमल बनकर खिलना पड़ेगा। वे इस दलदल को स्पर्श करने के लिए जरा भी उत्सुक नहीं थे, लेकिन इस देश की गरीब जनता की मान-मनुहार के आगे झुक गए और सेवा करने निकल पड़े। वे जनता की सेवा भी इस तरह करते हैं जैसे जनसेवा में ही एमबीए हों। दादा गरीबों के इतने हितैषी हैं कि संसद से लेकर सड़क तक केवल गरीबों के बारे में ही बोलते और चिंतन करते रहते हैं। गरीबी पर बात करके वे इस देश की अर्थव्यस्था को औंधेमुँह नहीं गिराना चाहते। वे कोई आर्थिक क्रांति, सामाजिक क्रांति, राजनीतिक क्रांति करने के इच्छुक नहीं हैं, उनका राजनीति में आना ही एक महान क्रांति हैं। आज की तारीख में किसी माई के लाल में दम नहीं है कि उनके जैसा सेवक बन सके।

दादा का संपूर्ण कुल ज्ञानी था। वे भी दूर-देश से पढ़कर आए हैं अतः पर्याप्त ज्ञानी हैं। भारत देश को अमेरिका का वैभव देना चाहते हैं। इसलिए वहाँ की आर्थिक नीतियों को लागू करने के पक्षधर हैं। जिस भी शर्त पर कर्ज मिले लेकर देश की लंगोट को टाई में बदल देना चाहते हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ लाना चाहते हैं, जिससे गरीबों को रोजगार मिल सके। अभी दादा पूरे पावर में नहीं हैं वरना अमेरिका इधर होता, भारत उधर। उनके ज्ञान से ज्ञानीजन इतना आतंकित हैं कि वे न तो कोई ज्ञान बाँट पा रहे हैं और न ही नए ज्ञान का सृजन कर पा रहे हैं। ज्ञान का ही कमाल है कि सारे बूढ़े ज्ञानी उनकी जय-जयकार कर रहे हैं। वे अपनी मुक्ति दादा में तलाश रहे हैं।

पूरा देश दादा को समझने में लगा है और दादा इस देश को। दादा को यह देश अबूझ पहेली लगता है और देशवासियों को दादा। देशवासी अभी दादा का लाव-लश्कर, उनका ऐश्वर्य, उनके खजाने को ही समझ रहा था कि दादा सादगी पसंद हो गए और उन्होंने सादगी को समझना शुरू कर दिया। सादगी की शुरुआत उन्होंने इस तरह से की कि दिल्ली से हवाई जहाज पर बैठतेऔर सीधे गरीब की कुटिया में उतरते। गरीब कभी हवाई जहाज देखता और कभी दादा को। दादा को देखकर गरीब गरीबी भूलने की कोशिश करता। दादा धीरे-धीरे गरीबों में इतना रम गए कि उन्होंने हवाई जहाज भी छोड़ने का फैसला कर लिया। दादा ने तय किया कि वे अब रेल में चलेंगे। देशवासियों से मिलने रेल से ही जाएँगे। दादा यह जान गए है कि यह देश हवाई जहाज पर नहीं रेल पर चलता है। रेल आम आदमी को इस तरह से प्रिय है कि लोगों को जब मरना भी होता है तो उससे कूदकर मरते हैं, उससे कटकर मरते हैं। हवाई जहाज ने भले ही लोगों को मार दिया हो, आज तक कोई उससे कूदकर नहीं मरा। अतः उन्होंने रेल का एक वातानुकूलित कक्ष किराए पर लिया है। कुछ लोग उनकी इस वातानुकूलित यात्रा से नाराज हैं। उन अज्ञानियों को क्या बताएँ कि दादा जिस तरह देश को समझ रहे हैं उसी तरह रेल को भी समझ रहे हैं। जिस दिन उनको पता चला जाएगा कि रेल में आम आदमी स्लीपर क्लास और सामान्य डिब्बे में चलता है, उस दिन वे भी उसी श्रेणी में चलने लगेंगे। आखिर महात्मा गाँधी को भी तो ब्रिटेन और दक्षिण अफ्रीका में खूब धक्के खाने के बाद सामान्य श्रेणी में चलने और आम आदमी बनने का आत्मज्ञान प्राप्त हुआ था।

दादा रेल पसंद हो गए हैं यह जानकर सारे देश के लोग भले ही परम प्रसन्न हों कि एक दिन वे भी अपने युवराज को अपने साथ सफर करता पाएँगे, लेकिन यह नादान भीतर से बुझ सा गया है। दादा अगर पैसे बचाएँगे तो गले तक भरा उनका खजाना खर्च कैसे होगा। न तो दादा भंडारा करने वाले हैं और न ही हम जैसे मुद्रा राक्षसों को बाँटने वाले। दादा का बचा हुआ पैसा इस देश के कैसे काम आएगा। विमान कंपनियां भी घाटे में चली जाएँगी। अपने को एक चिंता यह भी सता रही है कि खुदा-न-खास्ता दादा सामान्य श्रेणी में सफर करने लगे तो अपनी सवारी कैसे निकलेगी। क्या अपने को बैलगाड़ी के पहिए दुरुस्त करवाने पड़ेंगे। जितना सोचते हैं चिंता उतनी होती है, राहत मिलती है तो केवल इसी बात से कि दादा हैं। सब ठीक कर देंगे। अपना बचपना नहीं छूटता, इसलिए एक सवाल रह-रहकर हूक मारता है कि दादा ने अगर वायुमार्ग का पूरी तरह से त्याग कर दिया तो अपने ननिहाल कैसे जाएँगे। हम भारतवासी कभी नहीं चाहेंगे कि दादा का ननिहाल उनसे छूटे इसलिए आज नहीं तो कल उन्हें मना लेंगे और वे विमान पर सवार होंगे।

दादा के परदादा किसी दूसरे देश में अपना कोट धुलवाते थे, यह दादा के सादगी सिद्घांत के विपरीत है। अतः दादा अंतः वस्त्र से लेकर कुरता-पायजामा और कोट-पैंट तक सब कुछ अपने देश में ही धुलवाते हैं। देश के स्वास्थ्य के लिए दादा को छप्पन भोग खाना पड़ता है, कमाल देखिए कि दादा ने वहाँ भी सादगी दिखाई है और चम्मच आदि का इस्तेमाल बंद कर दिया है। अब वे आम आदमी की तरह हाथ में कौर लेकर भोजन ग्रहण करते हैं। देश दादा की तरफ आँखें फाड़कर इस उम्मीद से देख रहा है कि वे अनाथ जनता की तरह किसी कन्या का हाथ भी थामें, वरना आने वाली पीढ़ियाँ प्रधानमंत्रियों के लिए तरसेंगी। उच्च विचार वाले सीधे-सादे नेताओं के दर्शन दुर्लभ हो जाएँगे। सादगी डायनासोर की तरह विलुप्त हो जाएगी।

न दादा का कोई जोड़ है, न कोई तोड़। जब तक दादा हैं, यह देश है। देश के उज्जवल भविष्य के लिए दादा के उत्तम स्वास्थ्य की प्रार्थना करते हैं। नमक-रोटी (अब दाल-रोटी नहीं क्योंकि वह भी छप्पन भोग की श्रेणी में आ गया है) खाकर जीवित रहें और लंगोट से तन ढ़का रहे इसलिए हम दादा की सादगी पर कुर्बान हैं।

रविवार, 13 सितंबर 2009

पितृपक्ष में हिंदी का एक दिन

पितृपक्ष के पंद्रह दिनों में एक दिन अपनी हिंदी का भी होता है। पुरखों के साथ अपन अपनी 'राष्ट्रभाषा' का भी स्मरण (तर्पण) करते हैं। पुरखों ने अपने वंशजों पर अनगिनत उपकारों में से एक उपकार यह भी किया है कि अपने साथ राष्ट्रभाषा का स्मरण भी नत्थी कर दिया है। उन्हें मालूम था कि हमारे पुत्र-पौत्र आने वाले दिनों में इतने व्यस्त हो जाएंगे कि भाषा-वाषा को याद नहीं रख पाएंगे। अगर जमीन-जायदाद की लालच में किसी तरह पुरखे याद रह गए तो इसी के साथ बोली-भाषा का आयोजन भी निपट जाएगा। उनका शुभ विचार आज हमारा उद्घार कर रहा है और हम श्राद्घ पक्ष के बीच में एक दिन 'हिंदी दिवस' मना रहे हैं। पुरखे आश्वस्त रहें, जब तक हम उन्हें पानी देंगे तब तक हिंदी को भी टीकते-पूजते रहेंगे।

सच मानिए अश्विन माह की अंधियारी में हमें पुरखों और 'राष्ट्रभाषा' की रह-रह कर याद आती है। पुरखे हमारा अर्ध्य और श्राद्घ लेने के लिए घरों के आसपास मंडराते हैं और बेचारी 'राष्ट्रभाषा' सरकारी दफ्तरों के आसपास मुक्ति की कामना लिए लार टपकाती है। जिसने जीभ को हिलने-डुलने लायक बनाया, रोजी-रोटी दी, कचहरी से लेकर संसद तक चलाया, वही अपनी आबरू के लिए राजपथ पर रिरियाती है। अपने बोलने का और लिखने का अभ्यास देखकर जब वह कराहती है तो बहुतेरे दफ्तर उसके आंसू पोंछते हैं। कहीं निबंध लिखे जाते हैं, कहीं कविता, कहीं भाषणबाजी तो कहीं बतोलेबाजी के आयोजन। यह देख हिंदी अपनी मुक्ति के लिए आश्वस्त है।

जब तक पुरखों की संपत्ति पूरी तरह से अपनी नहीं होती, तब पितरों का तर्पण भी बहुत तन्मयता से होता है। पूरे पंद्रह दिन पानी से लेकर खीर तक सपर्पित होती है। एक-एक कर्म कर्मकांड की किताब से निकलता है। जैसे-जैसे संपत्ति पर अधिकार पुख्ता होता जाता है, पुरखे सिर का बोझ होने लगते हैं। फिर सारा घर मिलकर तय करता है कि पितर घर में परेशान हो रहे हैं इन्हें 'गया' पहुंचाओ। अब इनकी मुक्ति वहीं होनी है। अपनी हिंदी का हाल भी वैसा ही है। हिंदी पढ़कर जब तक अंग्रेजी ठाठ नहीं मिलता तब तक वह मातृभाषा है और जब गजरथ सज गया तब चिंदी-चिंदी उसका तर्पण होता है। जायका जिस तरह से बदल रहा है तो एक दिन पिज्जा-बरगर से पुरखों के पिंडे बनेंगे और अंगरेजी हिंदी को अमर होने का वरदान देगी।

अपनी मां-बहनों और भोली-भाली जनता की तरह अपनी 'राष्ट्रभाषा' बहुत जल्दी प्रसन्न होती है। वह तो इसी बात से प्रसन्न है कि एक दिन ही सही उसकी व्यस्त औलादें उसे याद तो कर लेती हैं। उसकी महानता का गुणगान करती हैं। उस पर कुर्बान होने की कसम खाती हैं। वह इसी बात पर गदगद है कि उसने अंगरेजी की तरह दुनिया में किसी को गुलाम नहीं बनाया। अंगरेजी ने भले ही सारी दुनिया को गुलाम बना लिया हो, लेकिन उसका दिवस मनाने वाला कोई नहीं। कम से कम हमारी औलादें कृतघ्न नहीं हैं। सारी संपत्ति देकर पितर अंजुरीभर पानी से प्रसन्न हैं और हिंदी 'दिवस' की पप्पी से खुश।

हम अपनी हिंदी से केवल प्यार नहीं करते, उसके प्रति श्रद्घा ही नहीं रखते, श्राद्घ (हिंदी) दिवस पर उसे याद ही नहीं करते, बल्कि उसका लोहा भी मानते हैं। अंगरेजी की नाजायज संतानें उसकी आत्मा का भी वध करना चाहती हैं, लेकिन वह तोप-तलवारों को बेअसर करती जा रही है। बोलचाल में अंग्रेजी आई तो उसने छकाया। हिंदी अखबारों के पन्नों पर घुसने लगी तो उसने छकाया, अर्जियों-फाइलों में घुसी तो भी उसने अपने को बचाया। उसकी काया का अंतिम संस्कार भले हो गया हो, लेकिन आत्मा का बाल भी बांका नहीं हुआ है। तभी तो हम सितंबर में चौदवी का हिंदी चांद देखते हैं। इस समय हिंगलिश का झोंटा पकड़कर नोंच रही है। ईश्वर उसे ताकत दे।

देखिए भाई! अपन ठहरे प्रबल आशावादी। कोई कितना भी कहे कि हिंदी के कबूतर को अंगरेजी के गिद्घ नोच डालेंगे, लेकिन अपने से ऐसा नहीं माना जाता। जब तक लोकतंत्र को हिंदी के वोट की बोटी चाहिए यही गिद्घ कबूतर की रक्षा करेंगे। जब तक हिंदी का इतना बड़ा बजार बना रहेगा, गिद्घ लार गुटककर भी कबूतर को जीने देगा। हम पूरे पंद्रह दिन पितरों का तर्पण करेंगे और हिंदी का स्मरण करेंगे।

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

सुरक्षा की कमर

सरकारें सुरक्षा की कमर कसने में लगी हुई हैं। दिन-रात एक किए हुए हैं। सरकारें कमर कसती जाती हैं और सुरक्षा का अधोवस्त्र नीचे खिसकता जाता है। जबसे यह देश बना है, तबसे ऐसा ही होता आ रहा है। वे भीतर कमर कसती हैं और बाहर आकर चिल्लाती हैं कि जो हमारी ओर बुरी नजर से देखेगा उसे वक्त आने पर करारा जवाब देंगे। सुरक्षा की कोमल काया पर बुरी नजरों के काले साँप लोट रहे हैं और जवाब संदूक से बंदूक तक नहीं पहुँच पा रहा है।

दरअसल हमारे सुरक्षा की कमर बिहारी के नायिका की तरह इतनी दुबली, पतली और लचीली है कि उसे छूना तो दूर देखा भी नहीं जा सकता। वर्षों से सरकार की एजेंसियाँ उसकी खोज में तल्लीन हैं, लेकिन वह उसी तरह लापता है जैसे गाँधीवादियों के यहाँ गाँधीवाद और समाजवादियों के यहाँ समाजवाद। उस कमर को ढूढ़ने में जब सीबीआई और रॉ के हाथ-पाँव फूल रहे हैं तो भला आम आदमी के हाथ उस तक कैसे पहुँच सकते हैं। समझ में नहीं आता कि जब सुरक्षा की कमर मिल ही नहीं रही तो सरकारें कस किसे रही हैं। कुछ देर के लिए अगर सरकार की बात पर भरोसा कर भी लें और मान लें कि कमर में कसाव आ रहा है तो फिर बार-बार पतलून अधोगामी क्यों होती है? क्या सरकारों ने उसकी कमर इतनी चिकनी कर दी है कि उस पर कोई कमरबंद टिकता ही नहीं?

सुरक्षा की कमर तलाशना और उसे कसना तलवार की धार पर चलने जैसा है। सुरक्षा की अलग-अलग कमर के लिए अलग-अलग नाड़े हैं। अगर कसाव आया तो उसी से आएगा। सरहदों की सुरक्षा की कमर सेना के नाड़े से कसती है तो शहर के सुरक्षा की पुलिस के नाड़े से। नक्शे और खसरे की कमर पटवारी का नाड़ा कसता है तो शिक्षा की कमर शिक्षक के हवाले है। वैद्य जान की कमर के कमरबंद हैं तो इंजीनियर बाँध की कमर के। कसते समय यदि नाड़े बदल गए तो सुरक्षा की कमर मुश्किल में समझिये।

सेना का नाड़ा सियासत की कमर में बँधा तो पाकिस्तान और सियासत का नाड़ा सेना की कमर में बँधा तो हिंदुस्तान नामक देश का जन्म होता है। नेताओं के नाड़े से पुलिस की कमर कसी तो शहर में नाना प्रकार के दंगे होते हैं। इंजीनियर के नाड़े से डॉक्टर की कमर कस गई तो कैंची मरीज के पेट में छूट जाती है। मुश्किल यह है कि सारे नाड़ों को गलत कमर से मोहब्बत हो गई और कमर ढीली होने का पाप बेचारी सरकार के सिर जा रहा है।

कमर के जानकार कहते हैं कि सुरक्षा की कमर इसलिए नहीं मिल रही है क्योंकि उसे सरकार ने व्यवस्था की तरह कस-कसकर तोड़ दिया है। राज्य से लेकर देश की सरकारें तक उसे इतना कसती हैं कि या तो नाड़ा टूट जाता है या कमर। नाड़े तो बदलते रहते हैं इसलिए उनके टूटने का न दर्द होता और न पता चलता, लेकिन कमर टूटती है तो बच्चा-बच्चा चीखने लगता है और गली-गली में शोर हो जाता है। टूटी कमर लेकर वह सरकार के कदमों में झुकने को लाचार है। जानकारों से उलट सरकार का कहना है कि सुरक्षा की कमर पड़ोसी मुल्कों और वहाँ से भेजे आतंकवादियों ने तोड़ी है। हम तो इस कोशिश में लगे हैं कि अमेरिका से कोई अस्थिरोग विशेषज्ञ बुलवा लें और फिर से उसे कमरबंद के योग्य बना लें।

कुल मिलाकर वोटर नामक जनता को अगर इस देश में जीना है तो उसे अपनी कमर खुद कसनी होगी, अन्यथा सरकारें उसकी कमर भी कस-कसकर तोड़ देंगी।

रविवार, 6 सितंबर 2009

पचा रही है देश को, शाकाहारी आँत

समकालीन दोहे

धरती ने हमको दिया, आम और अमरूद।
हमने धरती को दिया, तोप और बारूद॥

बंदूकों से खेलकर, गली हुई शमशान।
जली ठूँठ पर बैठकर, कौआ पढ़े अज़ान॥

राजा अपनों से करे, कैसा बुरा सुलूक़।
पहले बाँटे सरहदें, फिर बाँटे बंदूक॥

उसके पन्नों में नहीं प्यादों का उल्लेख।
इतिहासों की दुम हिले, राजाओं को देख॥

नाखूनों की तरह हैं, तीखे उसके दाँत।
पचा रही है देश को, शाकाहारी आँत॥

झूठ ठठाकर हँस रहा, सच सबसे कमज़ोर।
आँखों को खाने लगे, सपने आदमख़ोर॥

गया जहाँ भी न्याय को, बैठा था जल्लाद।
फाँसी पर लटकी मिली, मुफ़लिस की फरियाद॥

ज़हरीले होने लगे, हरे-हरे से ख़्वाब।
प्यासे पीने लग गए, चुल्लू से तेज़ाब॥

सिंहासन खा जाएगा, जो जाएगा पास।
शेर कभी करता नहीं, जंगल में उपवास॥

नहीं भूख को चाहिए, केवल रोटी-नून।
बाँट दिया बाज़ार ने, सपनों को नाखून॥

सिंहासन ने यदि किया, आँसू का उपहास।
तय है मिलना एक दिन, राजा को वनवास॥

जनता परम प्रसन्न हो, कहे जिसे जनतंत्र।
दिल्ली से भोपाल तक, कुरसी का षडयंत्र॥

अँधी संसद बाँटती, नये तरह का न्याय।
नेता की दौलत बढ़े, मतदाता की हाय॥

जनता बूढ़ी हो रही, डाल-डालकर वोट।
वे संसद में पहुँचकर, करते लूट-खसोट॥

मंत्री का तोरण सजे, भूखा रहे ग़रीब।
रोटी की खातिर चढ़े, जनता रोज़ सलीब॥

सागर भूखा नमक को, नदी ढो रही प्यास।
पर्वत का मस्तक झुका, धरती बहुत उदास॥

बाजों के आकाश में, कैसे उड़ें कपोत।
मिलना है हर हाल में, उनको ऊपर मौत॥

कैसे भड़के देश में, इंकलाब की आग।
आस्तीन में पल रहे, काले-काले नाग॥

सिंहासन कितने हिले, गिरे कई प्रसाद।
दायर जब करना पड़ा, आहों को प्रतिवाद॥

(पाखी के जुलाई अंक में प्रकाशित )

शनिवार, 5 सितंबर 2009

स्वर्ग का टेंडर

बहुत ही गुप्त बात आज मैं आपको बताने जा रहा हूं। यह बात इतनी गुप्त है कि किसी को भी बताने लायक नहीं। पति पत्नियों से न कहें, पत्नियां पतियों से न कहें, पिता-पुत्र, यार-मित्र, सगे-संबंधियों के बीच तो किसी भी सूरत में इस राज का पर्दाफाश न हो। सरकारी नौकरियों की तरह जगह बहुत सीमित है। यदि किसी को भी कानोकान खबर हुई तो आपका पत्ता कट सकता है। आप धरती के इस कुम्भीपाक में पड़े रह जाएंगे, आपको स्वर्ग की कुरसी नसीब नहीं होगी। जिस तरह प्यारे प्रधानमंत्री ने आर्यावर्त का सारा बाजार अमेरिका को गिफ्ट कर दिया, जनता ने नेताजी को संविधान दिया, सरकार ने पुलिस को कानून एलॉट कर दिया, उसी तरह भगवान विष्णु ने अपने को स्वर्ग का एलॉटमेंट किया है।

मैं आपको एक बात फिर बता रहा हूं कि यह बात निहायत गुप्त है, अगर आपने इसे जरा भी लीक किया तो पंडित और मौलवी नाराज हो जाएंगे। आपके स्वर्ग की बुकिंग खटाई में पड़ जाएगी, हमारा एलॉटमेंट रद्द होगा सो अलग। आप यकीन नहीं कर पा रहे होंगे कि हम जैसे निहायत अदने आदमी को स्वर्ग की बुकिंग का काम कैसे मिल गया। आप मेरे ऊपर विश्वास कर सकें इसलिए इस कहानी को बताना जरूरी है। हुआ यह कि स्वर्ग के पुराने ठेके की अवधि समाप्त हो रही थी। नए ठेके की निविदाएं आमंत्रित करने पर विचार चल रहा था। मैने अपने अखबारनवीस होने का तत्काल लाभ लिया। स्वर्ग का जो बाबू अपने लिए सूत्र का काम करता था, उसी ने होने वाले टेंडर के बारे में जानकारी दी। शहर के टेंडर घोटालों से अपना पुराना नाता था। अखबारों में घोटाले छापते और पढ़ते पूरी प्रक्रिया की विशेषज्ञता हासिल हो गई थी। स्वर्ग के लिए होने वाले टेंडर की खबर अपन ने दबा दी। निर्धारित समय पर निविदाएं आमंत्रित की गईं। सभी देवी-देवताओं के गुर्गे-मुर्गों ने छद्म नाम से निविदाएं डाल दीं। किसी ने पांच करोड़ मुद्रा भरी, किसी ने तीन, किसी ने दो और किसी ने एक करोड़। सबसे कम मुद्रा वाली निविदा लक्ष्मीपति विष्णु के करीबी और कुबेर के सहयोगी की थी। इनके लिए स्वर्ग की बुकिंग करना कमाई का नहीं प्रतिष्ठा का विषय था। पूरे स्वर्गलोक में यह तय माना जा रहा था कि हमेशा की तरह इस वर्ष भी बाजी भगवान विष्णु के चाहने वालों के ही हाथ लगेगी।

जब निविदाएं खोली गईं तो सभी देवताओं के पांवों के नीचे से स्वर्ग खिसक गया। देवताओं में कुछ ईमानदारी बची थी, अतः उन्हें मेरी निविदा मंजूर करनी पड़ी। मेरी निविदा में शून्य रुपए में पूरी सेवा करने का कथन लिखा हुआ था। एक बार ब्रह्मा, विष्णु और महेश का मन डोला भी कि इस निविदा को गायब करवा दिया जाए, जिससे स्वर्ग में किसी धरती के आदमी का दखल न हो, लेकिन अखबार का भय उन्हें ऐसा करने से रोक ले गया। मैने अपने आवेदन में यह टीप भी लगा रखी थी- ''मुझे मालूम है कि मुझसे कम राशि भरने की हिम्मत किसी देवी-देवता में नहीं है, अतः यह टेंडर निरस्त किया गया तो अखबारों में छापा जाएगा कि पूजा-पाठ बंद करो। जिनकी आराधना में आप लोग अपना तन, मन, धन अर्पित किए हुए हो वह भी अपने चमचों और बहू-बेटियों के लिए ईमान-धरम बेच चुका है।''

देवताओं को यह बात गड़ गई। उन्हें पता था कि धरती पर पूजने वाले जब तक हैं, तभी तक उनका देवत्व है इसलिए उन्होंने कोई खतरा नहीं उठाया। एक साल के लिए स्वर्ग का ठेका निम्नकोटि के इस प्राणी को मिल गया। स्वर्ग की बुकिंग तो अपने को मिल गई है, लेकिन फोकट में स्वर्ग का मेंटेनेन्स कैसे होगा? हजारों लीटर सोमरस, हजारों अप्सराएं, उनका मेकअप, नाच-गाने का खर्चा, यह सब कहां से आएगा? आप सबको स्वर्ग तक पहुंचाने का अरबों का खर्च कहां से निकलेगा। अतः स्वर्ग की बुकिंग का काउंटर धरती पर खोला गया है।

स्वर्ग के लिए इस बात से बहुत मतलब नहीं कि किसने कितना भजन कीर्तन किया है, किसने कितनी योग साधना की है, चारोधाम की यात्रा की है, सत्य-अहिंसा के रास्ते पर चला है, माता-पिता की सेवा की है, गुरुओं का सम्मान किया है। मतलब इस बात से है कि किसने कितना पैसा कमाया है और स्वर्ग का खर्च चलाने के लिए कौन कितना डोनेशन दे सकता है। उसी को वातानुकुलित स्वर्ग मिलेगा। स्वर्ग की बुकिंग का विज्ञापन इसलिए नहीं किया गया जिससे भीड़ अधिक न हो। वैसे मैं बहुत ही राज की बात आपको बता रहा हूं कि स्वर्ग जाने के लिए अभी तक जिन लोगों ने सम्पर्क किया है, उनमें पापियों, भ्रष्टाचारियों और अधर्मियों की संख्या सबसे अधिक है।

अपने ठेके में नई सुविधा यह है कि दान जमा होने के बाद दानदाता को पुष्पक विमान में बैठाकर सशरीर स्वर्ग ले जाया जाएगा। अर्थात नरक भी नहीं छूटेगा और स्वर्ग का मजा भी मिलेगा। भीड़ अधिक है। भाई, अंत में एक निवेदन पुनः कि यह राज मैं केवल आपको बता रहा हूं, किसी से भूल के भी मत कहिएगा, वरना आप जानिए और आपका काम।

बुधवार, 2 सितंबर 2009

बसंत और गणतंत्र

बसंत और गणतंत्र का मिलन केवल संयोग नहीं है। बसंत अपने आप में गणतंत्र है और गणतंत्र पूरा बसंत। बसंत गणतंत्र इसलिए क्योंकि हवा किसी हुकूमत के कहने पर मादक नहीं होती, कोपलें तेज धार वाली तलवारें देखकर नहीं फूटतीं, कलियां मिसाइल और तोप के डर से नहीं खिलतीं तथा यौवन सरकारी नीतियों के रथ पर सवार होकर नहीं आता। वह ''जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए'' की तर्ज पर स्वयं का, स्वयं के द्वारा और स्वयं के लिए घटित होता है। गणतंत्र बसंत इसलिए क्योंकि जनतंत्र की डाल पर नेताओं के प्रस्फुटित होने के लिए सदा ही उपयुक्त वातावरण रहता है। रिश्वत और भ्रष्टाचार की कलियां गुलशन-गुलशन खिली हुई हैं। घोड़ा और घास को बराबर की आजादी है। घोड़ा चरने पर आमादा है और घास बढ़ने पर। गुरु परसाई क्षमा करें, अब गणतंत्र ठिठुरा हुआ नहीं है, वह बासंती हो गया है।
बसंत सबको निर्भय बनाता है। सुई की तरह चुभने वाली शीतऋतु की ठंड का भय समाप्त हो जाता है और ग्रीष्म के लू की दादागिरी भी नहीं चलती। गणतंत्र में सभी निर्भय हैं। न चोर पुलिस से डरते न ही अपराधी कानून से। कवि की भाषा पर कुछ-कुछ डकैती डालें तो गणतंत्र के बसंत ने पुलिस को संत और चोर को उसका कंत बना दिया है। बासंती गणतंत्र की चमक कूलन, केलि, कछारन, कुंजन में फैल गई है। कवि ने बसंत का वर्णन करते हुए जिस सर्दी, खाँसी, बुखार आदि बीमारियों का जिक्र अपनी कविता में नहीं किया है, उसी तरह गणतंत्र में बेरोजगारी, महँगाई और भुखमरी आदि नाना प्रकार की व्याधियों को छिपाना श्रेयस्कर समझा गया है।
बसंत कल्पनाओं को जन्म देता है और गणतंत्र कल्पनाओं में जीने का आदी बनाता है। एक कविता कामिनी को जन्म देने का दावा करता है दूसरा पेट भरने का वादा करता है। पृथ्वी की संरचना के अनुसार छह ऋतुओं साथ बसंत का संग केवल भारत भूमि को ही प्राप्त है, इसलिए हमने ऐसा गणतंत्र बनाया कि ३६५ बसंत झरता रहे।
बसंत क्या है? ठंडी और गर्मी का संक्रमण काल। वह पहचाना जाता है काली कोयल से-बौराई अमराई से, आँखों की हाला से-इठलाती बाला से। गणतंत्र क्या है? नेताओं की कौआगिरी और जनता का भोलापन। उसकी पहचान चुनाव और अफसरशाही है। जिस तरह थोड़ी गर्मी और थोड़ी सर्दी से मिलकर बसंत बनता है, उसी तरह थोड़ा राजतंत्र और थोड़ी नादिरशाही से मिलकर गणतंत्र बनता है। बसंत में बसंतोत्सव है और गणतंत्र में गणतंत्रोत्सव। बसंत के अधिपति कामदेव हैं और गणतंत्र के नामदेव (जो केवल नाम के देवता हैं)। बसंत आबादी को बढ़ाने का उपयुक्त मौसम है और गणतंत्र आबादी से चलने वाला खूबसूरत तंत्र। जो झूठ बोलने में दक्ष हैं वे बसंत में भी मजे में हैं और गणतंत्र में भी।
बसंत में भूख और नीद बहुत अच्छी लगती है। खाओ और सोओ। गणतंत्र में भी सोने वाले लोग तरक्की पाते हैं। हमारे कई प्रधानमंत्रियों को जब तक सत्ता का बसंत मिला रहा तब तक वे खाते और सोते रहे। इतिहास में भी सोने वालों की कमी नहीं। मुगल और अंग्रेज हमारे कुरसीपतियों के ऊँघने के कारण ही इस देश के मालिक बने। अब बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ आ रही हैं। वे अपने साथ बसंत का फुलटाइम पैकेज लेकर आ रही हैं। वे चाहती हैं कि हमारा काम खाना और सोना हो और उनका काम खिलाना और हम पर राज करना। यह पैकेज 'गण' और 'तंत्र' दोनों को पसंद आ रहा है।
बसंत में मन झूम-झूम नाचता है और गणतंत्र में कुरसी झूम-झूत नाचती है। कवि की कविता में बसंत का सौंदर्य निराला है और नेता के भाषण में गणतंत्र की शोभा अद्‌भुत है। बसंत स्वप्न है और गणतंत्र सपनों का संसार। खुली आंखों से देखने पर न बसंत दिखाई देता है और न गणतंत्र। बसंत के भीतर जिस तरह संत केवल नाममात्र का है, उसी तरह गणतंत्र के भीतर 'गण' का वास भी नाममात्र ही है। बसंत संत को पीस रहा है और गणतंत्र में तंत्र 'गण' को पीस रहा है।

(नईदुनिया इंदौर में प्रकाशित )

बुधवार, 26 अगस्त 2009

वो आए थे

वो दिखाने के लिए ही आए थे...आपने भी देखा होगा। क्या रूप-रंग था...क्या लाव-लश्कर... क्या संगी-साथी थे... क्या अदा थी... चेहरे पर विराजी मुस्कराहट का तो कहना ही क्या?

उनके व्याकरण में लोकतंत्र है और आचरण में राजतंत्र। उनका शासन भले दुःशासन का हो मगर सिहांसन बहुत महान है। साहित्यकार, पत्रकार, कलाकार, संगीतज्ञ, वैज्ञानिक, इतिहासकार और महान से महान सैनिक उनके सिंहासन में कठपुतलियां बनकर जड़ित हैं। उनका बोलना समाचार है और उनका निर्णय जनता का भाग्य। वे कुंदन की तरह दमकते रहते हैं। उनकी प्रजा भले ही जवानी में बूढ़ी दिखाई दे, लेकिन वे बुढ़ापे में भी खासे जवान दिखाई देते हैं। वे जहां से भी निकलते हैं अपने आप तोरणद्वार बन जाते हैं, पुष्पों के हार उनके गले में समर्पित हो जाते हैं, लोग चरणों में लोट जाते हैं। ...वही आए थे।
वे शांतिप्रिय हैं। इतने अधिक शांतिप्रिय कि जो शांति के पक्ष में नहीं हैं उनका जीना मुश्किल कर देते हैं। शांति की मुखालफत करने वालों की बहू-बेटियों का अपहरण हो सकता है, मारने की सुपारी मिल सकती है और अंततः फांॅसी की सजा भी। वे शांति की परिभाषाएं बनाते हैं और उसके खिलाफ एक शब्द भी सुनना नहीं चाहते। शांति स्थापना के लिए ही वे अपने साम्राज्य का विस्तार हर हालत में दिग-दिगांतर तक करना चाहते हैं।

उनके लिए प्रजा और जनता एक ही है। वोट लेने तक प्रजा को जनता मानते हैं और वोट लेने के बाद जनता को प्रजा मानने लगते हैं। वे प्रजा के पालनहार हैं। इसीलिए नए-नए कारखाने खोलते हैं और उसका उत्पाद प्रजा को बेचते हैं। प्रजा को रोटी, कपड़ा और मकान देने के लिए इतने मधुर-मधुर नारे गढ़ते हैं कि प्रजा रोटी खाने की बजाए रोटी गाने लगती है। उन्हें यह अच्छी तरह ज्ञात है कि वे जहां से गुजरते हैं, वहां प्रजा की भीड़ इकठ्ठा हो जाती है। इसलिए वे पहले से लोगों का आना-जाना रुकवा देते हैं। स्कूल, कॉलेज, दुकानें बंद करवा देते हैं। उस दिन उनकी सवारी के अलावा किसी और की सवारी उस राह से नहीं गुजरती। उस दिन शहर में चोरी डकैती नहीं होती, डॉक्टर कहते हैं कि कोई बीमार नहीं होता। पुलिस किसी और को नहीं पकड़ती केवल शांति के दुश्मनों को जेल में ठूसती है। जिस दिन वे आते हैं शहर में श्मशान जैसी शांति रहती है। ...वही आए थे।

वे न्यायकर्ता हैं। जिसे न्याय नहीं चाहिए उसे भी देते हैं। न्याय देने का उनका तरीका भी निराला है। चोर से चोरी करवाते हैं और पुलिस से पकड़वाते हैं। चोर को भी रोजगार और पुलिस को भी। वे बंदर की तरह बिल्लियों को न्याय देते हैं। एक रोटी के लिए जब बिल्लियां आपस में लड़ती हैं तो वे न्याय की तुला लेकर बैठ जाते हैं और बराबर करने के चक्कर में पूरी रोटी गपक जाते हैं। बिल्लियों का झगड़ा वे इसी तरह शांत कराते हैं।

वे सदा से उद्घारक हैं। सभी का उद्घार करते हैं। देश का उद्घार करने के लिए संसद में जाते हैं, मूर्तियों का उद्घार करने के लिए अनावरण समारोहों में और ईश्वरों का उद्घार करने के लिए मंदिरों-मस्जिदों में। वे उद्घार यात्राएं करते हैं और उद्घार आंदोलन चलाते हैं। बड़े-बड़े महापुरुष उनकी प्रतीक्षा में वर्षों से मूर्ति बने खड़े हैं।

वे मानवता के सबसे बड़े पुजारी हैं। 'जिओ और जीने दो' का सनातन धर्म इनके रक्त में घुला हुआ है। जब सरकार में रहते हैं तो खूब खाते हैं और जब सरकार में नहीं होते तो खाने देते हैं। सरकार में रहते हुए जब सभाओं में जाते हैं तो जनता को 'डकार' सुनाते हैं और जब विपक्ष में रहते हैं तो 'क्रांति' का मंत्र फूंकते हैं। जनता डकार और क्रांति दोनों को एक ही समझती है। वह वर्षों से उन्हें इसी तरह सुनती आ रही है।

उन्हें दूसरे धर्म के वोट और चंदे पसंद हैं, लेकिन लोग नहीं। चंदे और वोट गुप्तदान हैं और गुप्तदान लेने में वे नीति-अनीति का भेद नहीं करते। वे रिश्वत को भी दान मानते हैं और दान को गुप्त रखने में यकीन करते हैं। उनका मानना है कि उन्होंने ही देश को आजाद करवाया है और यदि वे नहीं होते तो देश अब तक गुलाम हो गया होता। वे जब तक जीते हैं तब तक देश की छाती पर तने रहते हैं और जब मर जाते हैं तो देश का झंडा अपनी छाती पर तान लेते हैं। जीते-मरते सेना से सलामी लेते हैं। वे हर हालत में महान हैं। ...वही आए थे।
(साहित्य अमृत द्वारा पुरस्कृत व्यंग्य)

दंगा उत्सव

दंगे हमारे शहर, प्रदेश और देश का गौरव हैं। महीने-चार महीने में दमदार दंगे न हों तो पता ही नहीं चलता कि हमारी कौमें जिंदा हैं और उनका अपना धर्म भी है। जैसे सिर में दर्द होने पर सिर का बोध होता है, पिछवाड़े बालतोड़ होने पर पिछवाड़े का अहसास होता है, पेट में मरोड़ होने लगे तो ज्ञात होता है कि शरीर में पेट भी है और महबूबा दिल तोड़ दे तो पूरा मोहल्ला जान जाता है कि आपके पास एक अदद दिल भी है। दंगे इसी तरह कौमों को उनके होने का अहसास कराते हैं। पंडों और मौलवियों को सुखेन वैद्य की तरह आदर तभी तक मिलता है जब तक समाज के पेट में दंगों का दर्द होता रहे। दंगें न हों तो दुनिया में हमारे देश की पहचान समाप्त हो जाए। बीमा का एजेन्ट जिस तरह माथे पर लगे चोट के निशान को स्थाई पहचान के रूप में चिन्हित करता है, उसी तरह हमारे मुल्क की स्थाई पहचान भी दंगों के रूप में होती है।
दंगे शांति और स्वाभिमान की रक्षा के लिए होते हैं। प्यार बचाने और बढ़ाने के लिए होते हैं। धर्म की रक्षा के लिए तो होते ही हैं। एक धर्म को मानने वाला अगर दूसरे धर्म में खोट देख ले तो धर्म तत्काल खतरे में आ जाता है। जब धर्म खतरे में हो तब धार्मिक लोग भला कैसे बैठ सकते हैं? अपनी-अपनी तलवारें निकालकर कूद पड़ते हैं धर्मक्षेत्र में। एक मजहब की लड़की को अगर दूसरे मजहब के लड़के से इश्क हो जाए तो मानिए कि प्यार खतरे में है। ऐसी स्थिति में प्यार की रक्षा के लिए दंगों को अवतार लेना पड़ता है। इन्हें आप क्षणभर के लिए नकली दंगा कह सकते हैं, लेकिन जब सरकार खतरे में आती है तब पूरी तरह चौबीस कैरेट शुद्घ दंगे होते हैं। जिस तरह माखन चुराने वाले कान्हा ने द्रौपदी की लाज बचाई थी, दंगे सरकार की लाज बचाते हैं, उसकी इज्जत ढक लेते हैं। सरकार गिरते-गिरते रह जाती है और अगले चुनाव की भैंस को हांॅकने के लिए मजबूत लाठी मिल जाती है।

दंगे का अर्थ है कि देखने-सुनने वाला दंग रह जाए। दंगा उत्सव सिद्घांत के अनुसार पहले किसी उत्सव को दंगे में परिवर्तित किया जाता है, पिᆬर कालांतर में दंगे को ही उत्सव बना दिया जाता है। बिना दंगे के उत्सव श्रीहीन और शोभहीन रहते हैं।

दंगे होने के बाद ही यह लगता है कि शहर में पुलिस भी है। थानों में सोती पुलिस वर्दी और बंदूक धारण कर तभी सड़क पर खड़ी होती है, जब उसे दंगे की सुगबुगाहट मिलती है और शहर का नाम बदलकर धारा १४४ वगैरह कर दिया जाता है। उसी समय उसे अपनी शक्ति का अहसास होता है। जामवंत जी ने हनुमानजी को उनकी शक्ति याद दिलाई थी और वे समुद्र में कूद गए थे। दंगे पुलिस को उसकी शक्ति याद दिलाते हैं और वे पीटने-कूदने पर उतारू हो जाते हैं। दंगे कभी-कभी स्वयं हनुमान की भूमिका भी अदा करते हैं। पूछ में आग लगाकर लंका फूंक देते हैं।

सरकारों ने जबसे दंगे का महत्व समझा है, तबसे दंगा विशेषज्ञों को सरकारी संरक्षण मिलने लगा है। जो लोग बिना किसी वजह के दंगा करवा दें, उन्हें एक्सपर्ट के रूप में सरकार मदद मुहैया कराती है। कुछ विदेशी विशेषज्ञ भी गुपचुप तरीके से देश में दंगों का प्रशिक्षण दे रहे हैं। सरकार यह जानती है कि कलात्मक दंगों में निपुण लोग चुनाव के समय बूथ कैप्चरिंग वगैरह कर सकते हैं और खाली समय में अलग-अलग धर्मों के स्वाभिमान की रक्षा कर सकते हैं।

दंगे कभी-कभी क्रांति का भ्रम भी बनाते हैं। वे जब हो रहे होते हैं तो लगता है क्रांति हो रही है। वस्तुतः यह क्रांति को मारने का सुनियोजित प्रयास होता है। लोग रोटी के लिए न लड़ें इसलिए धर्म के लिए लड़ा दिया जाता है। वे यह जानते हैं कि क्रांति सत्ता को पलटने के लिए होती है और दंगे सत्ता की रक्षा के लिए। उनकी सत्ता न पलटे इसलिए वे दंगे को क्रांति का सम्मान देते हैं। उन्हें यह भी जानना होगा कि जब दंगाइयों का पेट एक-दूसरे को मारकर भर जाता है तो वे अगला हमला कुरसी पर ही बोलते हैं।

(साहित्य अमृत के व्यंग्य विशेषांक अगस्त २००९ में प्रकाशित)

तम्बाकू का दर्शनशास्त्र

उस दिन तंबाकू निषेध दिवस था। एक दार्शनिक किस्म के तंबाकू सेवक से मुलाकात हो गई। फिर क्या था? लगा तंबाकू का दर्शन समझा जाए। इधर से सवालों की शुरुआत हुई कि उधर से झमाझम जवाबी बारिश होने लगी।

'आप दिनभर तंबाकू या गुटका क्यों चबाते रहते हैं?'
'अमीर गरीब को चबा रहा है...नेता वोटर को चबा रहा है...अमेरिका सारी दुनिया को चबा रहा है...दिल्ली की कुरसी भोपाल की कुरसी को, भोपाल की इंदौर की कुरसी को और इंदौर की सागरपैसा को चबा रही है...डॉक्टर मरीज को चबा रहा है...अदालतें न्याय चबा रही हैं...हिंगलिश हिंदी चबा रही है। मैं तो केवल खैनी चबा रहा हूँ।'

'आप तो जानते हैं कि तंबाकू खाने से कैंसर होता है?'
'गरीबी किसी कैंसर से कम है क्या? कैंसर से तो केवल कैंसर का मरीज मरता है, गरीबी तो पूरे खानदान को मारती है। बाप का इलाज नहीं होता, बेटा स्कूल नहीं जाता, बहन की शादी नहीं होती। जब गरीबी का ब्लड कैंसर अपुन का कुछ नहीं बिगाड़ पाया तो तंबाकू क्या उखाड़ लेगी?'

'आप सार्वजनिक स्थलों पर भी धूम्रपान करते हैं, यह अपराध है। इस पर आपको सजा हो सकती है, जुर्माना लग सकता है।'
'सरकार सार्वजनिक स्थलों पर गुटखे का कारखाना चला रही है तो अपराध नहीं है, दुकानदार उसे सार्वजनिक स्थलों पर बेच रहे हैं यह भी अपराध नहीं है, मेरा एक कश अपराध हो गया। सरकार मौत बेचे तो दाता और हम खरीदें तो अपराधी। रही बात जुर्माने की तो मुझे नशेड़ी बनाने के लिए मैं सरकार पर जुर्माना लगा रहा हूँ। या तो वह मुझे जुर्माने की राशि अदा करे या गुटखे को पाचक चूर्ण का दर्जा प्रदान करे।'

'आप विद्वान हैं इसका कुप्रभाव जानते हैं, इसके बाद भी इसका सेवन करते हैं।'
'कौन नहीं जानता कि भ्रष्टाचार बुरा है। फिर भी बंद हुआ क्या? देने वाले और लेने वाले में कौन नहीं जानता कि रिश्वतखोरी बुरी चीज है फिर भी बंद हुई क्या? झूठ बोलना पाप है यह कौन नहीं जानता फिर भी दुनिया में झुट्ठों की तादात कम हुई क्या? जानकारी से कुछ नहीं होता। जानकारी किसी बीमारी का कोई इलाज नहीं है।'

'फिर लगता है कि आपके भीतर संकल्पशक्ति की कमी है।'
'संकल्प कोई शक्ति नहीं है। वह भी एक व्यसन है। इस देश का काम तंबाकू के व्यसन के बिना तो चल जाएगा, लेकिन संकल्पों के व्यसन के बिना नहीं चलेगा। भीष्म पितामह के जमाने से हम संकल्प व्यसनी हैं। हमने साझा रूप से ब्रह्मचर्य का संकल्प लिया और दिन दूनी-रात चौगुनी रफ्तार से आबादी बढ़ाई, गरीबी हटाने का संकल्प लिया और बेगारों की भरमार हो गई, समाजवाद का संकल्प लिया और पूंजीवाद आ धमका। संकल्प का नशा भी तंबाकू की तरह दिमाग में सुरसुरी पैदा करने के लिए किया जाता है। खैनी, बीड़ी, गुटखे का नशा क्षणिक होता है इसलिए उसका सेवन जल्दी-जल्दी करना पड़ता है, लेकिन संकल्प का सेवन एक बार कर लिया जाए तो साल-छः महीने तक काम करता है। कभी-कभी तो पूरे पाँच साल रहता है। संकल्प के नशे को सामाजिक मान्यता प्राप्त है इसलिए उसके नशेड़ी पूजे जाते हैं। मैं तो कहता हूँ कि तंबाकू निषेध दिवस की जगह संकल्प निषेध दिवस मनाना चाहिए।'

'कुल मिलाकर आप तंबाकू नहीं छोड़ेंगे।'
'मैं आपकी तरह देशद्रोही नहीं हूँ। मैं एक चुटकी तंबाकू खाकर इस देश के तंबाकू उद्योग को आर्थिक सहयोग दे रहा हूँ। रात को एक पैग दारू पीकर इस देश का आबकारी विभाग चला रहा हूँ। मैं मौत की कीमत पर भी देश की तरक्की चाहता हूँ। यह देश कभी सोने की चिड़िया था। आज हम दोबारा इसे सोने की चिड़िया नहीं बना सकते, सोने का पानी तो चढ़ा ही सकते हैं।'

'अच्छा आप बता दें आपको तंबाकू के नशे में कोई बुराई नहीं दिखती?'
'तंबाकू का नशा दुनिया का सबसे छोटा नशा है। आठ आने और एक रुपए का नशा। तंबाकू प्रेम सबसे छोटे आदमी से प्रेम करने जैसा है। यह सामाजिक अपराध नहीं। दौलत के नशे, कुरसी के नशे, ताकते के नशे और मजहब के नशे के आगे इसकी भला क्या औकात? आप करोड़ों छोड़कर अठन्नी लूट रहे हैं।'

'देखिए! आगे मैं आपके किसी सवाल का जवाब नहीं दे सकता, क्योंकि मुझे बहुत जोर की तलब लगी है और खैनी खाने के बाद मुँह खोलना संभव नहीं। अस्सी चुटकी और नब्बे ताल का बुरादा आप भी मुँह में डालिए और प्रश्नों की बजाय खैनी की जुगाली कीजिए।'

(साहित्यिक पत्रिका 'वीणा' के अपैल अंक में प्रकाशित)