सोमवार, 28 नवंबर 2011

चीखने वाले चांटे


कहने को वही हाथ है जो वोट डालता है, वही गाल है जो सत्ता में रह-रहकर गदराता है, पर जब दोनों का मिलन होता है तो कैसी हाय-बाप मचती है। वही हाथ जब फूलों की माला पहनाते हैं तो तो कोई उनकी तरफ देखता और ही कोई चर्चा करता, लेकिन जब चांटा बनकर गाल पर गिरते हैं तो नानी याद जाती है। संसद से सड़क तक भूकंप। कुरसी पर विराजे देवताओं की पतलून गीली होने लगती है। चांटा किसी को भी पड़े सबको गाल अपना ही नजर आता है। सबको लगता है कि हाथों का क्या आज उस गाल पर हैं, कल इस गाल पर होंगे। ये कितने भी जादूगर क्यों हो जाएं गाल निकालकर तिजोरी में तो नहीं रख सकते। इसीलिए सब मिलकर कह रहे हैं कि यह लोकतंत्र के लिए अशुभ है, इससे लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। लोकतंत्र की रचना करने वालों ने कभी नहीं सोचा होगा कि गालों के कारण भी यह कभी खतरे में पड़ सकता है। लोकतंत्र की रक्षा के लिए उन्हें अपने गालों की रक्षा करनी पड़ेगी। काले धन की तरह अपने गाल वे भले ही स्विस बैंक में रख सकें, लेकिन बुरा लगे तो एक-दो सुझाव इस नाचीज के पास भी हैं, जैसे-गाल के ऊपर नकली गाल लगा सकते हैं, घूंघट-बुरके वगैरह का सहारा ले सकते हैं, कर्ण की तरह कुछ कवच वगैरह बनवा सकते हैं।

जब तक वे कुरसी पर रहते हैं तो उनकी सुरक्षा अभेद् होती है। वे जिस जगह जाते हैं पहले ही लोगों की जामा तलाशी हो जाती है। जेब-वेब सब खंगाल ली जाती है। बंदूक-तलवार तो छोड़िए कोई सुई तक लेकर अंदर नहीं जा सकता। जबसे जूतों ने अपना मानसिक संतुलन खोया है और उनके ऊपर सवार होने को दौड़ने लगे है, तबसे उन पर भी तीखी नजर है। उन्हें भी दरबार से निष्कासित करने का फरमान सुनाया गया है। पांव भी नाराज नहीं हुए, क्योंकि उन्हें भी सत्ता की कालीनों का सुख मिला। इधर चांटों ने बड़ी समस्या खड़ी कर दी। उनके पहरेदार कितनी भी सुरक्षा कर लें किसी को यह तो नहीं कह सकते कि आप अपने हाथ लेकर अंदर नहीं जा सकते। हाथों को उनके दरबार से पर्स और मोबाइल की तरह बाहर रखवाया भी नहीं जा सकता जो भी उनके पास जाएगा अपने हाथ लेकर जाएगा। वैसे लोकतंत्र की रक्षा के लिए वे बिगड़ैल हाथों को कटवा सकते हैं या जंजीरों से जकड़ सकते हैं। कटवाने में दिक्कत यह है कि वे फिर वोट कैसे डालेंगे और बंधवाने में समस्या यह कि वे उनकी जय-जयकार में उठेंगे कैसे? उन्हें मालाओं से लादेगा कौन और रात-दिन उनके पांव कौन दबाएगा? रोटी और रोजगार के लिए उनके सामने जुड़े रहकर गिड़गिड़ाएगा कौन?

चांटे का सिद्घांत भी बड़ा विचित्र है। जब यह नीचे से ऊपर की ओर चलता है अर्थात जब गांव से राजधानी की ओर बढ़ता है तो खूब चीखता-चिल्लाता है। ढोल पीटता है। लेकिन जब ऊपर से नीचे की ओर चलता है तो कोई आवाज नहीं आती। ऊपर से चाहे जूते चलें-चाहे चाटे नीचे उफ तक नहीं होती। होती भी है तो सुनाई नहीं पड़ती। कुरसी को लगता है कि उसके लात की मार भी प्यारी है और चाटे की ध्वनि भी। नीचे वाले समझ भी नहीं पाते कि उन्हें चांटा पड़ा है और नया चांटा उनके गाल पर रसीद हो जाता है। भ्रष्टाचार का चांटा लगा नहीं कि उसके ऊपर तड़ाक से महंगाई का चांटा। बेरोगारी के चांटे के ऊपर वादों का चांटा। कुरसी के नीचे बैठे लोग अब चांटा खाने के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि अगर उन्हें किसी दिन चांटा लगे तो अशुभ की आशंका होने लगती है, लगने लगता है कि कहीं उनका लोकतंत्र खतरे में तो नहीं है। इसलिए वे अपने हाथ से अपने गाल पीटने लगते हैं। जब गाल नए थे तो कोई हाथ उठाता भी था तो दर्द होता था, अब मारता है तो भी अच्छा लगता है।

बहरहाल, जिन गालों पर चांटों का शोर ज्यादा होता है, उन्हें सतर्क होने की जरूरत है, क्यों कि इस देश में हर घड़ी एक जोड़ी नए हाथ पैदा हो रहे हैं। अगर उन्हें काम नहीं मिलेगा तो वे गाल तलाशेंगे।

-ओम द्विवेदी