शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

दीप आज भी लड़ता है संग्राम

जिस देहरी पर दीप रखने के लिए
तरसते रहते थे महीनों
वह छूटी जा रही है धीरे-धीरे

जिस दीये की बाती बनाने के लिए
लड़ते थे सारे भाई-बहन
उसने भी बदल ली है अपनी शक्ल

जिन नए कपड़ों के लिए
नाराज हो जाते थे पिता से
उन्हें बेटे को दिलाने में अब फूल जाता है दम

जिन सपनों को देखकर
आखें रोज़ मनाती थीं दिवाली
आज वे हो रहे हैं अमावस से भी काले

पहले हम दिवाली मनाते थे
अब दिवाली हमें मनाती है
पहले हम ज़िंदगी जीते थे
अब ज़िंदगी हमें जीती है।

लेकिन दीप कल भी लड़ता था अंधेरे से संग्राम
आज भी लड़ता है
कल भी लड़ेगा।

दीपावली की शुभकामनाएँ...

-ओम द्विवेदी

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

कुछ रोशन दोहे

झालर, झूमर, दीप सब, सजकर हैं तैयार।
अँधकार के तख्त को, पलटेंगे इस बार॥

अँधियारे की बाढ़ में, चली दीप की नाव।
घर-घर पहुँची रोशनी, रोशन सारा गाँव॥

बंद आँख में रात है, खुली आँख में भोर।
पलकें बनकर पालकी, लेकर चलीं अँजोर॥

उल्लू के संग में बनी, लक्ष्मी की सरकार।
हंस लगाकर टकटकी, देखे बारम्बार॥

लक्ष्मी, दीप, प्रसाद सब, बेच रहा बाजार।
जिसकी मोटी जेब है, उसका है त्योहार॥

देहरी दुल्हन बन गई, दीवारों पर रंग।
सात रंग की रोशनी, बनकर उड़े पतंग॥

मावस ने है रच दिया, यह कैसा षडयंत्र।
कहे रोशनी ठीक है, अँधियारे का तंत्र॥

नई-नई शुभकामना, नए-नए संदेश।
दीवाली लेकर चली, बाँटे सारे देश॥

सूरज जब दीपक बने, हो जाती है रात।
दीपक जब सूरज बने, दिखने लगे प्रभात॥

सूरज ने जबसे किया, जुगुनू के संग घात।
लाद रोशनी पीठ पर, घूमे सारी रात॥

पसरी है संसार पर, जब-जब काली रात।
एक दीप ने ही उसे, बतला दी औकात॥

सोता है संसार जब, बेफिक्री की नींद।
रात पालती कोख में, सूरज की उम्मीद॥

नहीं चलेगा यहाँ पर, अँधियारे का दाँव।
पोर-पोर में रोशनी, यह सूरज का गाँव॥

उँजियारे का है बहुत, मिला-जुला इतिहास।
कुछ आँखों के पास है, कुछ सूरज के पास॥

मावस के हाथों हुई, जब भी रात गुलाम।
दीपक ने तब-तब लड़ा, एक बड़ा संग्राम॥

दीप बाँटता रोशनी, गुरु बाँटे सद्ज्ञान।
जब मावस की रात हो, दोनों एक समान॥

सिंहासन के पास है, सिंहासन का घात।
दीप तले हरदम रहे, एक छोटी-सी रात॥

फाइल-दर-दर फाइल बुझा, लोकतंत्र का दीप।
करे रोशनी आजकल, मंत्री जी की टीप॥

दीवाली ने बाँट दी, थोड़ी-थोड़ी आग।
मावस को गाना पड़ा, खुलकर दीपक राग॥

भूख अमावस की निशा, रोटी रोशन दीप।
आदम की दुनिया करे, दोनों एक समीप॥

अँधकार के राज में, दीपक की हुंकार।
तुझसे लड़ने के लिए, आऊँगा हर बार॥

दिल्ली जैसी हो गई, मावस की हर चाल।
दीपक से सौदा करे, कर दे मालामाल॥

जितना लंबा है यहाँ, मावस का इतिहास।
उतना ही प्राचीन है, दीपक का उल्लास॥

संध्या से ही बंद है, सूरज से संवाद।
अँधियारे का भोर से, दीप करे अनुवाद॥

रातें कलयुग की कथा, दीप कृष्ण का रास।
प्रेम गली में बाँटता, वह दिन-रात उजास॥

आज देखते बन रहा, दीपक का उन्माद।
ज्यों मावस की रात में, हो पूनम का चाँद॥

देहरी से आँगन तलक, दीपक का संसार।
छिपकर चाँद निहारता, धरती का श्रृंगार॥

काली होती जा रही, महँगाई की रात।
भूखे को कैसे मिले, रोटी का परभात॥

-ओम द्विवेदी


नईदुनिया दीपावली विशेषांक-२०१० में प्रकाशित
चित्र - गूगल से साभार