बुधवार, 1 सितंबर 2010

फिर राजाओं के ख़ून से ललकार रहा है कंस


जैसे कारागृह में बंद थे वसुदेव और देवकी, वैसे ही हर रोशनी बंद है अँधेरे में। जैसे उनके हाथ-पाँव जकड़े से बेड़ियों से, सच बंधक बना हुआ है उसी तरह। जैसे कंस अपनी जान बचाने के लिए आमादा था पूरे राज्य का बचपन मार देने पर, उसी तरह हर सत्ता अपनी रक्षा के लिए काट देना चाहती है निरीज जनता का गला। जैसे पूतना कृष्ण को दूध के साथ पिला देना चाहती थी ज़हर, उसी तरह बाज़ार हमें गोदी में बैठाकर करा रहा है स्तनपान। जैसे कालिया नाग ने ज़हरीला कर दिया था यमुना का पानी, वैसे ही हमारे पापों से पट गई हैं नदियाँ। जैसे कौरव पांडवों को नहीं देना चाहते थे अँगुल भर जमीन, भू-माफिया उसी तरह कुंडली मारकर बैठे हैं ग़रीबों की भूमि पर। शकुनी की चाल के समक्ष जैसे पराजित हो गए थे धर्मराज युधिष्ठिर, अपराधियों और गुंडों के समक्ष हार रहा है समय।

निरंतर खींची जा रही है द्रोपदी की चीर, अट्टहास कर रहा है राजदरबार, बेबस भीष्म पीटे जा रहे हैं अपनी छाती, दुर्योधन के रक्त के लिए अभी भी खुले हैं पांचाली के केश, सुदामा अभी भी भूखा है कृष्ण के दरवाज़े पर, कुंती अभी भी अपने बेटों के लिए दर-दर कर रही है न्याय की फरियाद, कर्ण अपनी पहचान के लिए देख रहा है सूरज की ओर, गुरु द्रोण माँगे जा रहे हैं एकलव्य से अँगूठा, अभिमन्यु मारा जा रहा है चक्रव्यूह में, सत्ता की चौसर पर रोज़ लग रहे हैं दाँव और कुरुक्षेत्र में मारी गई १८ अक्षौहिणी सेना की तरह गुमनाम मर रहे हैं सपने और ग़रीब। आज महाभारत से भी कठिन समय है भारत में और तुम्हारा इंतज़ार है पार्थसारथी।

तुम्हारा पांचजन्य खो गया है पूजाघर से, तुम्हारा सुदर्शन चक्र छीन ले गए हैं डकैत, तुम्हारी बांसुरी नीलाम हो गई, तुम्हारा पीतांबर बेच खाया हमने, तुम्हारी गोपियों की आबरू हमारी आँखों के सामने लुटी, जिन गायों को चराकर तुम कान्हा बने उन्हें हमने दूध निचोड़कर सड़कों पर मरने के लिए छोड़ दिया, जो चरवाहे तुम्हारे साथ जंगल में खेला करते थे वे कचरा पेटियों में कचरा बिन रहे हैं, जो तुम्हारे साथ माखन खाया करते थे वे जूठन खा रहे हैं। कान ऐंठकर जिस राजधानी को तुमने उसकी औकात बताई, वह आज हमारे कान खींच रही है। गोपियों और सखाओं का मौन क्रंदन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है परमपुरुष।

जब तुमने पांडवों को युद्घ लड़ने के लिए प्रेरित किया था, जब उन्हें महारूप दिखाकर उनका रथ युद्घस्थल की ओर खींचा था, तब दुश्मन सामने खड़ा था। उससे लड़ने पर राज्य या स्वर्ग मिल सकता था। आज हम चारों ओर दुश्मनों से घिरे हैं, फिर भी उन्हें पहचानते नहीं। जिन्हें भी मारने के बारे में सोचते हैं, वे हमारे हित चिंतक दिखाई दिखाई देते हैं। जिसके विरुद्घ भी बंद होने लगती हैं मुठ्ठियाँ, वह प्रचारित करने लगता है स्वयं को हमारा देवता। कभी-कभी तो तुम्हारी शक्ल धारण कर लेते हैं दुश्मन। कभी तुम्हें पूजने वाले तो कभी बेचने वाले दुश्मन दिखते हैं। कभी वोट लेने वाले तो कभी देने वाले दिखते हैं दुश्मन। कभी थाने बैरी लगते हैं तो कभी मुजरिम। हमसे बड़ा हमारा असमंजस है आज।

फिर आ गई है भाद्रपद की काली रात, फिर राजाओं के ख़ून में घुसकर कंस ललकार रहा है जनता जनार्दन को, फिर बिना आँख वालों के कब्ज़े में है सिहासन, फिर आदमी का ख़ून जम रहा है नाना प्रकार के भयों से। तुम आओ, चाहे किसी देवकी की कोख से या हमारी आत्माओं को बनाओ वह कोख जिससे पैदा हो सके कृष्णत्व। इस बार तुम्हें दुश्मन भी बताना पड़ेगा और लड़ने का तरीका भी, शास्त्र भी सुनाना पड़ेगा और उठाना पड़ेगा शस्त्र भी। तुम कब आओगे कन्हैया।
  • ओम द्विवेदी

संलग्न चित्र
कंस की भूमिका में ओम द्विवेदी। दयाप्रकाश सिन्हा लिखित 'कथा एक कंस की' नाटक का मंचन वर्ष २००० में राष्ट्रीय नाट्‌य विद्यालय,नईदिल्ली के स्नातक दिलीप पावले के निर्देशन में किया गया।

2 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

विचारणीय लेख के लिए बधाई

संजय भास्‍कर ने कहा…

आपको और आपके परिवार को कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ