मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

तू अपनी बात के पीछे, ये सर जाने से डरता है

ये जो काम करना है, वो कर जाने से डरता है।
तू अपनी बात के पीछे, ये सर जाने से डरता है।

सड़क के बीच ट्रैफिक में फंसा कमज़ोर एक बूढ़ा
इधर आने से डरता है, उधर जाने से डरता है।

तू कांटा है तो तेरा फ़र्ज़ है गुलशन की रखवाली
अगर तू फूल है तो क्यों बिखर जाने से डरता है।

बदन के घाव दिखलाकर जो अपने पेट भरता है
सुना है वो भिखारी ज़ख़्म भर जाने से डरता है।

मै शिक्षक हूँ मुझे मालूम है तुम भी समझ लेना
जो बच्चा घर से भागा है, वो घर जाने से डरता है।

तवायफ़ के बुढ़ापे सी है तेरी ज़िन्दगी बैजू
मरने के लिए तैयार बैठा है, मर जाने से डरता है।


  •  बैजू कानूनगो 


(बैजू मेरे प्रिय कवि हैं। उनका कोई कविता संग्रह अभी तक नहीं आया है। शायद किसी प्रकाशक का दिल-गुर्दा इतना मज़बूत नहीं कि उन्हें छापे। वे लोगों के दिलों में राज करते हैं। ग्वालियर से अगर तानसेन ने हिंदुस्तान को संगीत दिया है तो बैजू ने कविताई दी है।)

शनिवार, 5 मई 2012

हंसी की शोक कथा


हंसने के लिए तैयार बैठा हूं, लेकिन हंसी है कि ही नहीं रही। दस-बीस चुटकुले पढ़ लिए, पेट में गुदगुदी कर ली, नेताओं के चेहरे देख लिए, खट्टी चटनी के साथ मिठाई खा ली, बिना बात पत्नी की तारीफ कर दी, मूर्ख अफसर को महापंडित कह दिया...फिर भी नहीं रही। आतंकियों की तरह नामुराद शरीर के जाने किस कोने में छिपी बैठी है। कहीं नक्सलियों ने इसे अगवा तो नहीं कर लिया, हम ताके बैठे रहें और उधर से चिठ्ठी जाए कि पहले हमारी हंसी रिहा करो, तब हम तुम्हारी करेंगे।

अपनी हंसी की तरह ही राजनीतिक दलों के लोग इस समय राष्ट्रपति का उम्मीदवार खोज रहे हैं। कोई अपने घर में ढूंढ रहा है तो कोई दूसरे के घर में। चप्पे-चप्पे में छापेमारी हो रही है, लेकिन उम्मीदवार लापता। आम सहमति का लतीफा सुनकर भी बाहर नहीं रहा। १२१ करोड़ की आबादी में वह जाने कहां छिपा है। मैं डरा बैठा हूं कि लोग कहीं मुझे पकड़ लें। पति होने के नाते राष्ट्रपति के उम्मीदवार की पात्रता तो मेरे पास भी है। अगर बना दिया तो फिर हंसी का क्या होगा? कैसे आएगी? वैसे इस उम्मीदवारी से अपने बचने की उम्मीद इसलिए है कि कमर धनुष नहीं बनी है और पांव कब्र में नहीं लटके हैं। सुबह-शाम विदेश टहलने के लिए वीजा-पासपोर्ट भी नहीं बना है। उम्मीदवार खोजने वाले भारतीय संस्कृति के होम गार्ड जवान भी हैं, वे जानते हैं कि अपन जैसे नौजवान टाइप के लोग अगर धोखे से उस आसन तक पहुंच गए तो सुख-सुविधा देखकर पगला जाएंगे और अमेरिका के क्लिंटन बाबू की तरह चुपके-चुपके आईपीएल खेलने लगेंगे। कुछ अपने पुरखों ने भी बचा लिया। उच्च कुल गोत्र देकर, ऊंची सियासत के लिए अछूत कर दिया।
जैसे चुनाव के समय नेताजी राजधानी से बाहर निकलने का मन करते हैं, अपनी हंसी भी कभी-कभार बाहर आने के लिए कुलबुलाती है। पुलिस के डंडों और सीबीआई की यातना के डर से जैसे विपक्ष वाले इंकलाबी मुठ्ठियां आहिस्ता से कुरते की जेब में डाल लेते हैं, हंसी भी अंतःपुर में प्रवेश कर जाती है। वह युवतियों की तरह डरती रहती है कि बाहर निकले और मनचले उसे छेड़ने लगें। उठाकर ले जाएं और सामूहिक दुष्कृत्य कर डालें। हंसी को याद है कि एक बार कौरवों को देखकर वह द्रोपदी के अंदर से फूट पड़ी थी। इसके बाद से पूरे हस्तिनापुर से उसका नामो-निशान मिट गया था। राम को राज सौंपने की बात पर दशरथ हंसे ही थे कि फिर बचे नहीं। राम जंगल और वे स्वर्गलोक। हंसी सोचती होगी कि यह आम आदमी जिंदा रहे इसलिए वह इस हाड़-मांस के पिंजरे में अपने को कैद किए हुए है। वह बालिका भ्रूण की तरह गर्भ में ही मर जाना चाहती है।

सच बताऊं हंसी ने सत्याग्रह कर दिया है। बाहर महंगाई खंजर लिए घूम रही है। सब्जी, रोटी, चावल, दाल सभी इस तरह मुंह फाड़े खड़े हैं कि आदमी को ही कौर बनाकर खा जाएं। खरीदने की जरूरत ही नहीं, भाव सुनकर ही लोगों की ह्दयगति रुकती है। ऊंट के मुंह में जीरा फिर भी बड़ा लगता है। महंगाई के मुंह में तनख्वाह की स्थिति तो उससे भी गई गुजरी है। भ्रष्टाचार इतना अधिक है कि छापा मारने वाले छापा नहीं मार पा रहे हैं, जुल्म इतना अधिक कि पुलिस कम पड़ रही है, न्याय देते-देते अदालतें थकी जा रही हैं और फाइलें घटने का नाम नहीं ले रहीं। हंसी बाहर आकर करेगी भी क्या? आएगी भी तो कितने दिन बाहर रह पाएगी? इसलिए उसने फैसला किया है कि जब तक बाहर का माहौल उसके लायक नहीं हो जाता वह अंदर ही रहेगी और जन-जन के लिए अनशन करेगी।

अपनी हंसी दुलहन की तरह सोलह श्रृंगार कर रही है, जब निकलेगी तो लोग ठगे रह जाएंगे। वह जनता के गुस्से की तरह अंदर बैठी खून का घूंट पी रही है, जिस दिन बाहर आएगी सरकारें खून के आंसू रोएंगी। वह बीज की तरह धरती के भीतर पक रही है, जिस दिन दिन निकलेगी धरती का सीना फोड़कर निकलेगी। वह मुखौटे की तरह होठों पर चस्पा नहीं होगी, बल्कि इस तरह करेगी अट्टहास कि आंसुओं का कलेजा दहल जाएगा।
  • ओम द्विवेदी

रविवार, 29 अप्रैल 2012

चाय की हाय नहीं लेना


राष्ट्रीय पेय के लिए दूध और चाय आमने-सामने, जैसे भारत और इंडिया की लड़ाई। सास-बहू का झगड़ा। एक की तरफ बोले तो दूसरे का मुंह फूला। दोनों ताल ठोंककर मैदान में आ गए हैं, इसलिए अब ऐसा नहीं हो सकता कि मां का आशीर्वाद भी मिलता रहे और बीवी का प्यार भी। धोती और तिलक छापकर भारतीय भी बने रहें और टाई-चश्मा टांगकर इंडियन भी। वोट देने का वक्त है तो वोटर तो बनना पड़ेगा। लोकतंत्र ने हमें पीट-पीटकर मुर्गा बनाया है बांग तो देनी पड़ेगी। साठ साल से जब घोड़ों और गधों को अपने मत का दान कर रहे हैं तो दूध और चाय ने अपना क्या बिगाड़ा है? लेकिन चुनाव आयोग से लेकर अण्णा हजारे तक अपना गला दबाए हुऐ हैं कि वोट सोच-समझकर दें, इसलिए सोच रहा हूं।

दूध के प्रति तो बचपन से अपना अनुराग रहा, लेकिन जबसे वह पानीदार हुआ है, मोह जाता रहा है। गंगा नहाए उतना तक तो ठीक, नाले-नाले मुंह मारता है। पानी से उसकी इतनी पक्की दोस्ती हो गई है जैसे पाकिस्तान और तालिबान की, हिंदुस्तान के नेताओं और भ्रष्टाचार की, अफसर और रिश्वत की। अपने राष्ट्रपिता की नजर से देखें तो यह निहायत हिंसा है। गाय अपने खून से बछड़े के लिए दूध बनाती है, बछड़ा आंखें फाड़े देखता रहता है और हम पूरा दूध निचोड़ लाते हैं। जब गाय अपने बछड़े के लिए बच्चे की मम्मी से दूध नहीं मांगती तो मम्मी अपने बच्चे के लिए बछड़े का हक क्यों मारती है? जिस दूध को लोग दूध का धुला मानते हैं उसकी हकीकत यह है कि उसमें सबसे पहले बछड़े का लार मिलता है। अगर उसी समय गाय या भैंस ने मूत्र विसर्जन कर दिया तो वहीं का वहीं 'पंचगव्य' बन जाता है।
एक दिन ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे होने लगी। लोग लाद-फांदकर डॉक्टर के पास ले गए। उसने पहली फुरसत में पूछ लिया- 'दूध-घी तो नहीं पीते-खाते?' मैं जनमों का चटोरा कैसे कह देता कि नहीं खाता। उसने कह दिया-'भुगतो, अंदर से बाहर तक चर्बी जम गई है, अब इसे यमराज ही उतारेगा।' चाय पीने वाले दोस्तों के बीच मैं जब भी एक गिलास दूध की फरमाइश करता हूं, तो वे नागपंचमी को यादकर मुझे कोबरा समझ बैठते हैं। इसे पीकर न जान बच रही है न सम्मान। ऐसे में दूध के पक्ष में बोलना अपनी कब्र खोदना है।
यूं तो दूध की नकारात्मक वोटिंग का लाभ चाय को मिलना चाहिए और पूर्ण बहुमत से उसकी सरकार बननी चाहिए, फिर भी चाय की कुछ विशेषताएं गिना दूं ताकि सनद रहें और वक्त पर काम आएं। चाय को अगर दूध से दूर रखा जाए तो यह ठेठ भारतीयों की तरह काली है। अंगे्रजों ने इसे इसीलिए पीना शुरू किया था ताकि सुबह-शाम उनको इस बात का एहसास होता रहे कि वे भारतीयों का खून पी रहे हैं। इस लिहाज से यह पूरी तरह से शोषित और सर्वहारा है। इसे सहानुभूति मिलनी चाहिए। दोस्त हो या दुश्मन, आपके पड़ोस में रहता हो या आपके देश के, चाय पीने सकता है। दोस्त है तो दोस्ती और पक्की होगी, दुश्मन है तो दोस्त बनेगा। यह दूध की तरह आपकी ताकत और चर्बी नहीं बढ़ाएगी, जमाने ने जो तनाव दिए हैं उसे दूर भगाएगी। यह दूध के साथ मिलेगी तो दूध का मजा देगी और नीबू के साथ मिलेगी तो नीबू का। यह कांग्रेस पार्टी की तरह सपा और बसपा दोनों से एकसाथ हाथ मिला सकती है, भाजपा की तरह ईमानदारी और बेईमानी दोनों को साथ-साथ साधने मे उस्ताद है। इसे अंग्रेजों की कृपा और भारतीयों का प्यार एकसाथ मिला हुआ है। अतः वोट की भी हकदार है।
राष्ट्रपिता बनकर महात्मा गांधी इस देश से विलुप्त हो गए, राष्ट्रीय पशु बाघ गायब होने की कगार पर है, राष्ट्रीय पक्षी मोर जंगल में नाचने के लिए भी नहीं बचे, राष्ट्रीय फूल कमल केवल पार्टी के झंडे पर खिल रहा है, राष्ट्रीय खेल हॉकी क्रिकेट के आगे गिड़गिड़ा रहा है, राष्ट्रगीत विवादों में उलाला-उलाला हो रहा है। अच्छा है चाय राष्ट्रीय पेय बन जाए, इसी बहाने दूध की लाज बचेगी।
-ओम द्विवेदी