बुधवार, 29 सितंबर 2010

दिल सबसे बड़ी इबादतगाह

रगों में दौड़ने के पहले लहू यह नहीं पूछता कि तू हिंदू है या मुसलमान, साँसें फेफड़ों से उसका मज़हब नहीं पूछतीं, सपने हिंदू-मुसलमान की आँख देखकर नहीं अँकुरते, आँसू पलकों से उसकी ज़ात पूछकर नहीं लुढ़कते, कोख में पल रहे शिशु की नाल किसी मंदिर-मस्जिद से नहीं जुड़ती। होठों पर हँसी न पंडित से पूछकर आती न मौलवी से, परिंदे मंदिर-मस्जिद की मुडेरों पर बैठने से पहले न राम से इजाज़त लेते न अल्लाह से, सात सुरों के भीतर ही ध्वनित हैं मंत्र और अज़ान। धर्मस्थलों की देहरी देखकर फूलों की ख़ुश्बू नहीं बदलती, सूरज अलग-अलग रोशनी नहीं बाँटता, चाँद दोनों के दरवाज़े अलग-अलग नूर लेकर नहीं आता, हिंदुओं के आदेश से न गंगा पावन होती और न ही मुसलमानों के हुक्म से पाक होता आबे ज़मज़म। इतनी बड़ी दुनिया बनाने वाला अपने लिए कभी भी मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर बनाने के लिए नहीं कहता। समंदर कभी चुल्लू में नहीं समाता, आसमान मुठ्ठी में क़ैद नहीं होता, धरती किसी से छत नहीं माँगती।

खुदा ने धरती बनाई तो हमने उसमें सरहदें खीच दीं, उसने अनंत बनाया तो हमने उसे पूरब-पश्चिम बना दिया, ऊपर वाले ने एक वक़्त बनाया तो हमने उसके चौबीस टुकड़े कर दिए। उसने क़ायनात बनाते हुए आदमी-आदमी में फ़र्क़ नहीं किया, लेकिन हमने ख़ुदा और ख़ुदा में फ़र्क़ कर दिया। उसने आदमी और आदमी के लहू के रंगों में फ़र्क़ नहीं किया, लेकिन आदमी ने उसे अलग-अलग रंगों के चोले पहना दिए। जिन पत्थरों को उसने खाइयों को पाटने के लिए बनाया था, उनसे हमने अपने-अपने ख़ुदाओं की मीनारें खड़ी कर लीं, फिर उनकी सुरक्षा के लिए उन्हें हाथों में उठा लिए। जिसकी अदालत में चीटी से लेकर हाथी तक का और भिखारी से लेकर बादशाह तक का फैसला होता है, हम उसका फैसला करने के लिए अदालतें लगाने लगे। जिसने पेड़ों को हरापन दिया, फूलों को महक दी, नदियों को प्रवाह दिया, हवा को प्राण दिया, आकाश को ऊँचाई और समंदर को गहराई दी...हम उसे इंसाफ़ देने लगे।

अपना क़द बड़ा करने के लिए जो ख़ुदा को छोटा करे, वह कभी उसका बंदा नहीं हो सकता। ईश्वर के नाम पर जो उसकी सबसे अमूल्य कृति मनुष्य को नुकसान पहुँचाए वह कभी उसका भक्त नहीं हो सकता। तुलसी, कबीर, नानक, जायसी, रहीम, बुल्लेशाह, सूफिया आदि ने न तो किसी मंदिर के लिए यात्राएँ की और न किसी मस्जिद के लिए ख़ंज़र उठाए। उन्होंने सारी धरती को ही गोपाल की भूमि कही और सभी आत्माओं को परमात्मा का हिस्सा। राम ने पत्थर को ज़िंदा (अहिल्या) करना सिखाया, ज़िंदा आदमी को पत्थर में तब्दील करना नहीं। किसी भी आत्मा को तकलीफ़ देना परमात्मा के साथ सबसे बड़ा धोखा है। अगर इंसानियत के माथे पर ज़रा भी ख़ून दिखता है तो सारे मौलवियों का शांतिपाठ व्यर्थ है और हमारी प्रार्थनाएँ मुजरिम।

आज अयोध्या विवाद का फैसला होना है, संयोग से आज का दिन गुरु (गुरुवार) का है। उस गुरु का जो हमे अँधेरे से उजाले की ओर ले जात है, मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाता है। आज उस गुरुत्व की भी परीक्षा है। हमारे संस्कारों, इरादों और सभ्यताओं का इम्तहान है। हम इसमें सफल हुए तो इंसान कहलाएँगे और असफल हुए तो हैवान। यहाँ छोटी अदालत की अपील तो बड़ी अदालत में हो जाएगी, लेकिन ऊपर वाले की आख़िरी अदालत में कोई अपील नहीं होती। अपने किए की सज़ा हर हाल में भुगतनी होती है। याद रखें दिल से बड़ी कोई इबादतगाह नहीं होती और मोहब्बत से बड़ा कोई मज़हब नहीं होता।
  • ओम द्विवेदी
(दिल की इस आवाज़ को मैने अख़बार के लिए शब्दों में ढाला था, लेकिन ३० सितंबर के दिन २६ पन्नों के हमारे अख़बार में इतनी जगह नहीं थी कि इसे छापा जा सके। अतः अभिव्यक्ति की आज़ादी का महामंच 'ब्लॉग जिंदाबाद!')

बुधवार, 1 सितंबर 2010

फिर राजाओं के ख़ून से ललकार रहा है कंस


जैसे कारागृह में बंद थे वसुदेव और देवकी, वैसे ही हर रोशनी बंद है अँधेरे में। जैसे उनके हाथ-पाँव जकड़े से बेड़ियों से, सच बंधक बना हुआ है उसी तरह। जैसे कंस अपनी जान बचाने के लिए आमादा था पूरे राज्य का बचपन मार देने पर, उसी तरह हर सत्ता अपनी रक्षा के लिए काट देना चाहती है निरीज जनता का गला। जैसे पूतना कृष्ण को दूध के साथ पिला देना चाहती थी ज़हर, उसी तरह बाज़ार हमें गोदी में बैठाकर करा रहा है स्तनपान। जैसे कालिया नाग ने ज़हरीला कर दिया था यमुना का पानी, वैसे ही हमारे पापों से पट गई हैं नदियाँ। जैसे कौरव पांडवों को नहीं देना चाहते थे अँगुल भर जमीन, भू-माफिया उसी तरह कुंडली मारकर बैठे हैं ग़रीबों की भूमि पर। शकुनी की चाल के समक्ष जैसे पराजित हो गए थे धर्मराज युधिष्ठिर, अपराधियों और गुंडों के समक्ष हार रहा है समय।

निरंतर खींची जा रही है द्रोपदी की चीर, अट्टहास कर रहा है राजदरबार, बेबस भीष्म पीटे जा रहे हैं अपनी छाती, दुर्योधन के रक्त के लिए अभी भी खुले हैं पांचाली के केश, सुदामा अभी भी भूखा है कृष्ण के दरवाज़े पर, कुंती अभी भी अपने बेटों के लिए दर-दर कर रही है न्याय की फरियाद, कर्ण अपनी पहचान के लिए देख रहा है सूरज की ओर, गुरु द्रोण माँगे जा रहे हैं एकलव्य से अँगूठा, अभिमन्यु मारा जा रहा है चक्रव्यूह में, सत्ता की चौसर पर रोज़ लग रहे हैं दाँव और कुरुक्षेत्र में मारी गई १८ अक्षौहिणी सेना की तरह गुमनाम मर रहे हैं सपने और ग़रीब। आज महाभारत से भी कठिन समय है भारत में और तुम्हारा इंतज़ार है पार्थसारथी।

तुम्हारा पांचजन्य खो गया है पूजाघर से, तुम्हारा सुदर्शन चक्र छीन ले गए हैं डकैत, तुम्हारी बांसुरी नीलाम हो गई, तुम्हारा पीतांबर बेच खाया हमने, तुम्हारी गोपियों की आबरू हमारी आँखों के सामने लुटी, जिन गायों को चराकर तुम कान्हा बने उन्हें हमने दूध निचोड़कर सड़कों पर मरने के लिए छोड़ दिया, जो चरवाहे तुम्हारे साथ जंगल में खेला करते थे वे कचरा पेटियों में कचरा बिन रहे हैं, जो तुम्हारे साथ माखन खाया करते थे वे जूठन खा रहे हैं। कान ऐंठकर जिस राजधानी को तुमने उसकी औकात बताई, वह आज हमारे कान खींच रही है। गोपियों और सखाओं का मौन क्रंदन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है परमपुरुष।

जब तुमने पांडवों को युद्घ लड़ने के लिए प्रेरित किया था, जब उन्हें महारूप दिखाकर उनका रथ युद्घस्थल की ओर खींचा था, तब दुश्मन सामने खड़ा था। उससे लड़ने पर राज्य या स्वर्ग मिल सकता था। आज हम चारों ओर दुश्मनों से घिरे हैं, फिर भी उन्हें पहचानते नहीं। जिन्हें भी मारने के बारे में सोचते हैं, वे हमारे हित चिंतक दिखाई दिखाई देते हैं। जिसके विरुद्घ भी बंद होने लगती हैं मुठ्ठियाँ, वह प्रचारित करने लगता है स्वयं को हमारा देवता। कभी-कभी तो तुम्हारी शक्ल धारण कर लेते हैं दुश्मन। कभी तुम्हें पूजने वाले तो कभी बेचने वाले दुश्मन दिखते हैं। कभी वोट लेने वाले तो कभी देने वाले दिखते हैं दुश्मन। कभी थाने बैरी लगते हैं तो कभी मुजरिम। हमसे बड़ा हमारा असमंजस है आज।

फिर आ गई है भाद्रपद की काली रात, फिर राजाओं के ख़ून में घुसकर कंस ललकार रहा है जनता जनार्दन को, फिर बिना आँख वालों के कब्ज़े में है सिहासन, फिर आदमी का ख़ून जम रहा है नाना प्रकार के भयों से। तुम आओ, चाहे किसी देवकी की कोख से या हमारी आत्माओं को बनाओ वह कोख जिससे पैदा हो सके कृष्णत्व। इस बार तुम्हें दुश्मन भी बताना पड़ेगा और लड़ने का तरीका भी, शास्त्र भी सुनाना पड़ेगा और उठाना पड़ेगा शस्त्र भी। तुम कब आओगे कन्हैया।
  • ओम द्विवेदी

संलग्न चित्र
कंस की भूमिका में ओम द्विवेदी। दयाप्रकाश सिन्हा लिखित 'कथा एक कंस की' नाटक का मंचन वर्ष २००० में राष्ट्रीय नाट्‌य विद्यालय,नईदिल्ली के स्नातक दिलीप पावले के निर्देशन में किया गया।