गुरुवार, 27 मार्च 2014

नाटक जारी रहेगा मेरे दोस्त...!

परदे के पीछे हैं अभी भी कई किरदार
कई कहानियां लिखी जानी बाकी हैं
कई पात्र अभी भी नहीं जिए गए हैं
कई मुखौटे बनने शेष हैं अभी
स्पॉट लाइट में साकार होना है
अभी भी एक निराकार।

एक पटकथा के लिए
अपने भीतर कई-कई समुद्र मथ रहा है लेखक
निर्देशक को सपने में झकझोरता है अभिनेता
दर्शकों की ताली के लिए अभी भी ज़िंदा है
कलाकारों की भूख।

चाह बाकी है चांद छूने की
नीरस समय में नौ रस होने की
मंच पर रंगों की भूमिका निभाने की
भरत मुनि के साथ वेद पांचवां पढ़ने की
नाटक जारी है मेरे दोस्त
नाटक जारी रहेगा मेरे दोस्त...!

सभी रंगकर्मियों और रंगकर्म को चाहने वालों को मेरा सलाम!
-ओम द्विवेदी

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

रात बना ही लेती है एक सूरज

जैसे समंदर
बादल बनाता है चुपके-चुपके
कुम्हार गुनगुनाते हुए
मिट्टी को बना देता है घड़ा
गाय घास को
बहुत ही खामोशी से दूध बना देती है
भोर आते-आते तक
रात बना ही लेती है एक सूरज

जैसे खाद बिना ढिंढोरा पीटे
फसल को करती है हरा
रोटी बिना मुनादी किए
भूख को बदलती है तृप्ति में
जैसे परिंदे बीजों को
सहज ही ले जाते हैं मरुस्थल में
वैद्य बीमारी को बनाता है स्वास्थ्य
लोहार लोहे में बना देता है धार

मैं अपने सबसे बुरे दिनों को
सबसे अच्छा बनाने में लगा हूं।
-ओम द्विवेदी

सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

फिर भी है उनके ज़िन्दा रहने की उम्मीद

जो बोलेगा 
काट ली जाएगी उसकी जीभ
जो देखेगा
उसकी आँखें फोड़ दी जाएंगी
जो सुनेगा सच
पारा पिघलाकर
डाल दिया जायेगा कानों में।
जो सीधी करेगा रीढ़
उसके कंधे पर
लाद दिया जाएगा पहाड़
खड़े होने की कोशिश भी की 
तो तोड़ दिए जायेंगे पांव।
मुठ्ठियाँ तो तानना ही मत हवा में
नहीं तो दोनों भुजाएं
मिल जाएँगी किसी बूचडखाने में
सिर भी अगर रखना है सलामत
तो झुकाए ही रखना।
यह आम को इमली
और इमली को आम कहने का समय है।
यह तलवार लेकर लड़ने का नहीं
तलवार के व्यापार करने का समय है।

पर ज़िंदगी रोज़ मरना भी नहीं
मरने तक ज़िन्दा रहना है।
रणभूमि में मारे गए हैं वे भी
जो जीने की लालच में 
बने रहे दर्शक और युद्ध को
समझते रहे मनोरंजन।
उनके ज़िन्दा रहने की उम्मीद फिर भी बनी रही
जिन्होंने शौकिया ही सही
उठा ली तलवार।
‪#‎ओम‬ द्विवेदी

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

बेआवाज़ की आवाज़ कौन

न हंसते बन रहा है न रोते
हम न जागते दिखाई दे रहे हैं न सोते
देश के करोड़ों लोगों की तरह
मेरे सामने भी सच परदे के पीछे है।
कौन है जो द्रोपदी की तरह
सियासत की चीर खींचे हैं।
'आप' के साथ उग रहा है एक सूरज
या डूब रहा है।
इस जन गण का ख़ून खौल रहा है
या वह अपने आप से ऊब रहा है।
यह जनतंत्र तूफानों और
सुनामियों से बदल रहा है
या हमारे भोलेपन को
बड़ी चालाकी से छल रहा है।
सबसे ऊंची मीनार पर
झूठ सच की शक्ल में खड़ा है
या फिर भरे चौराहे पर
सच झूठ बोलने पर अड़ा है।
जिन्हें सुनना पाप, वे चीख़ रहे हैं
जिन्हें सुनना पुण्य, वे मौन हैं।
समझ में नहीं आ रहा
यहां बेआवाज़ की आवाज़ कौन है?
-ओम द्विवेदी

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

यहां पल-पल का पर्व है प्यार

ताजमहल की तरह हमारे शहर में मोहब्बत के मकबरे भले नहीं हों, लैला-मजनू, सीरी-फरहाद जैसी दीवानगी का पागलपन भले ही किस्से-कहानियां न बना हो, भले ही संत वेलेंटाइन जैसे किसी फकीर ने यहां इश्क के नारे नहीं लगाए हों...लेकिन महानगर की तरह दिखने वाले इस गांव के पोर-पोर में प्यार है, अपनापा है। यह प्रेम का अजब-गजब घाट है। यहां इश्क केवल महबूब और महबूबा के हुस्न की नक्काशी पर खत्म नहीं होता। यहां कबूतर प्रेम की चिठ्ठी केवल प्रेमिका के आंगन में गिराकर नहीं लौट आता। यहां प्रेम का दीया केवल एक देहरी पर जलकर रोशनी से अपना दामन नहीं झाड़ लेता। यह शहर प्रेम की पंगत है, नेह का भंडारा, इश्क की इबादतगाह, मोहब्बत का प्रकाशोत्सव।

यहां जिसे लुटाना आता है वह अपना खजाना बिना नफा-नुकसान के लुटाता है और जिसे लेना आता है वह अपने दामन को चादर की तरह फैला देता है सड़क पर। जिसे बांटना आता है वह घड़े में भरा अमृत बांटता जाता है और घड़ा भरता जाता है दोगुनी रफ्तार से। जिसे छकना आता है वह छकता जाता है लंगर की तरह। मियां गालिब की शायरी की तरह यहां इश्क कोई मुश्किल काम नहीं है, जो आग का दरिया हो और तैरने में जल जाने का खतरा। यहां तो प्यार पल-पल का पर्व है। मन का महोत्सव। रंगपंचमी पर रंगों का मेला है। रंगों के समंदर में डूबते जाओ और एक होते जाओ। यहां इश्क अनंत चतुर्दशी की झांकियां हैं, देखते जाओ और भूले-बिसरों से गले मिलते जाओ। यहां मोहब्बत हरतालिका तीज की रात है, राजवाड़े पर नाचते जाओ-झूमते जाओ। यहां प्रेम सराफे के ओटले पर स्वाद लुटाती रातें हैं, खाते जाओ और ऊंगलियां चाटते जाओ।


यहां इश्क इतना मासूम है कि बेटे को जब हिचकी आती है तो मां आंचल का एक धागा उसके सिर पर रख देती है, हिचकी गायब। इतना भोला है कि सूरज की किरणों को रूमाल में बांधकर ले जाना चाहता है रात तक। यहां प्यार इतना जवान है कि पूरी धरती को हथेली पर रखकर दौड़ लगाना चाहता है। इतना प्रौढ़ कि न तो तूफानों का खत पढ़कर डरता और बिजलियों की चमक से खौफजदा होता। यहां प्यार गर्मी में अमराई की छांव है तो ठंड में अलाव। महाकाल और ओंकार से आशीर्वाद मांगती आस्था है तो ईदगाह से गूंजती बरकत और खुशहाली की अजान। यहां प्यार मजहबों की दीवारें तोड़कर कभी खजराने में नाहरशाह वली की दरगाह पर गले मिलता है तो कभी दीवाली और ईद पर एक-दूसरे के घर भेजता है मिठास। यह शहर प्यार में किसी को एक गुल नही, पूरा गुलशन पेश करता है। उसके लिए एक लफ्ज नहीं, एक गीत नहीं, बल्कि पूरा शब्दकोश और महाकाव्य रचता है। यहां प्यार किसी एक देह के लिए जंजीर नहीं है, बल्कि समष्टि की मुक्ति का मार्ग है। एक धर्म है, एक अनुष्ठान, जो मुक्त करता है अपने ही बनाए तमाम कारागारों से। यह शहर मांडू से रानी रूपमती और बाज बहादुर के प्रेम के अफसाने भले सुनता हो, अवंतिका से भेजे गए बादलों पर लिखे कालिदास के प्रेम पत्र भले पढ़ता हो, लेकिन देवी अहिल्या के न्याय और भक्ति के सूत्र कभी नहीं भूलता। यहां की हर सांस प्यार का अनूठा राग है, खुशबूदार है।

-ओम द्विवेदी
 प्रेम दिवस पर नईदुनिया में 

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

आया है चुपचाप वसंत


फूलों ने न तो उसके आने की कोई मुनादी की, हवाओं ने पांव में घुंघरू नहीं बांधे, पेड़ों ने अपना श्रृंगार नहीं किया, सरसों के खेतों ने पीली चूनर ओढ़ ली है, गांवों से ऐसी कोई खबर भी नहीं आई, चोरल के जंगलों में पलाश दहके हैं, ऐसी कोई पाती लेकर कबूतर अभी आंगन में नहीं उतरा। दोस्त की सांसों से चंदन की महक भी गायब है। तितली रूठी-रूठी घूम रही है गमलों के आसपास, फूलों से रंग छीनकर नहीं मल रही है अपने पंखों पर। लापता होते भौरे कहीं इक्का-दुक्का गाते तो हैं, लेकिन भटके हुए हैं सुर और ताल। कोयल ने भी ठुमरी-दादरे का रियाज नहीं किया। जैसे कोई चक्रवर्ती सम्राट फकीर के वेश में किसी गांव में घुसे, ऋतुराज कुछ उसी तरह दाखिल हुआ है शहर में। वसंत आया है, जैसे बदन पर भभूत मलकर कोई संत आया हो।

महाराज को पता हो जैसे कि वे आ रहे हैं अपने उस घर, जहां सदा ही रहता है वसंत। जहां शरद में हवा न डंक मारने लायक सर्द होती और न ग्रीष्म में चांटे मारने लायक तवे की तरह गर्म। इसलिए वे नहीं खड़े हुए आईने के सामने, लाव-लश्कर को नहीं दिया साथ चलने का फरमान। सेनाओं को कह दिया आराम करने के लिए। सुरक्षाकर्मियों को भी सादी वर्दी में रहने का आदेश दिया। कामदेव और समस्त अप्सराओं से कह दिया कि स्वर्ग के बजाय तुम भ्रमण करो बीआरटीएस की आलीशान सड़कों पर, शॉपिंग करो किसी भी मॉल में रुककर। सराफे-छप्पन पर पोहे-जलेबी खाओ, समोसे-कचोरी सूतो। रथ पर नहीं, वातानुकूलित आई-बस में भ्रमण कर यहां के मदनों और रंभाओं को निहारो। मालवा की जिन रातों पर रीझते हैं देवता, तुम भी उसके लिए कुछ गीत लिखो, कुछ छंद रचो।

सच तो यह है कि वह इस बार आया है पराजित-सा, बिलकुल उदास, अपनी ही आत्मा का बोझ ढ़ोता हुआ। उसे पता था कि वह आएगा तो यहां उजड़ा मिलेगा उसका आशियाना। नौलखा के नौ लाख पेड़ों में एक ठूंठ भी नहीं मिलेगी उसे, जहां वह बना सके अपना ठिकाना। पलासिया में टेसू के चिह्न भी नहीं खोजे मिलेंगे, जंगल के सीने में कील बनकर घुस गया होगा शहर। वैध्ाव्य झेलती खान नाम की नदी ने कृष्णपुरा छत्री पर कर ली होगी खुदकुशी। परिंदों को मिल चुका होगा देश निकाला। वह अगर पंचम सुर में गाएगा तो मोटर-कारों और हॉर्न की चीखें दबा देंगी उसका गला। उसे पता था कि अगर वह ऋतुओं के राजा की तरह आएगा तो मार दिया जाएगा बहुरूपिया समझकर। वह जानता था कि यहां लोगों ने अपने-अपने घरों में बना लिए हैं अपने वसंत, इसलिए वह खाएगा ठोकर। जानता था कि अगर वह ढिढोरा पीटकर आएगा तो उसे शेर की तरह रख दिया जाएगा चिड़ियाघर में। कुछ कैमरे में कैद करेंगे तो कुछ पत्थर मारकर परखेंगे उसका स्वभाव। भक्त मंदिरों में बैठाकर पट बंद कर लेंगे और चढ़ाएंगे छप्पन भोग। इसीलिए बिना किसी को फोन किए, बिना अखबारों में इश्तहार छपवाए, बाजारों में बिना पोस्टर चस्पा करवाए, बिना ऊंचे-ऊंचे तोरणद्वार के, वसंत चुपचाप आ गया है सपनों के वन में, वासंती नयन में, वासंती शहर में।
-ओम द्विवेदी