गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

आया है चुपचाप वसंत


फूलों ने न तो उसके आने की कोई मुनादी की, हवाओं ने पांव में घुंघरू नहीं बांधे, पेड़ों ने अपना श्रृंगार नहीं किया, सरसों के खेतों ने पीली चूनर ओढ़ ली है, गांवों से ऐसी कोई खबर भी नहीं आई, चोरल के जंगलों में पलाश दहके हैं, ऐसी कोई पाती लेकर कबूतर अभी आंगन में नहीं उतरा। दोस्त की सांसों से चंदन की महक भी गायब है। तितली रूठी-रूठी घूम रही है गमलों के आसपास, फूलों से रंग छीनकर नहीं मल रही है अपने पंखों पर। लापता होते भौरे कहीं इक्का-दुक्का गाते तो हैं, लेकिन भटके हुए हैं सुर और ताल। कोयल ने भी ठुमरी-दादरे का रियाज नहीं किया। जैसे कोई चक्रवर्ती सम्राट फकीर के वेश में किसी गांव में घुसे, ऋतुराज कुछ उसी तरह दाखिल हुआ है शहर में। वसंत आया है, जैसे बदन पर भभूत मलकर कोई संत आया हो।

महाराज को पता हो जैसे कि वे आ रहे हैं अपने उस घर, जहां सदा ही रहता है वसंत। जहां शरद में हवा न डंक मारने लायक सर्द होती और न ग्रीष्म में चांटे मारने लायक तवे की तरह गर्म। इसलिए वे नहीं खड़े हुए आईने के सामने, लाव-लश्कर को नहीं दिया साथ चलने का फरमान। सेनाओं को कह दिया आराम करने के लिए। सुरक्षाकर्मियों को भी सादी वर्दी में रहने का आदेश दिया। कामदेव और समस्त अप्सराओं से कह दिया कि स्वर्ग के बजाय तुम भ्रमण करो बीआरटीएस की आलीशान सड़कों पर, शॉपिंग करो किसी भी मॉल में रुककर। सराफे-छप्पन पर पोहे-जलेबी खाओ, समोसे-कचोरी सूतो। रथ पर नहीं, वातानुकूलित आई-बस में भ्रमण कर यहां के मदनों और रंभाओं को निहारो। मालवा की जिन रातों पर रीझते हैं देवता, तुम भी उसके लिए कुछ गीत लिखो, कुछ छंद रचो।

सच तो यह है कि वह इस बार आया है पराजित-सा, बिलकुल उदास, अपनी ही आत्मा का बोझ ढ़ोता हुआ। उसे पता था कि वह आएगा तो यहां उजड़ा मिलेगा उसका आशियाना। नौलखा के नौ लाख पेड़ों में एक ठूंठ भी नहीं मिलेगी उसे, जहां वह बना सके अपना ठिकाना। पलासिया में टेसू के चिह्न भी नहीं खोजे मिलेंगे, जंगल के सीने में कील बनकर घुस गया होगा शहर। वैध्ाव्य झेलती खान नाम की नदी ने कृष्णपुरा छत्री पर कर ली होगी खुदकुशी। परिंदों को मिल चुका होगा देश निकाला। वह अगर पंचम सुर में गाएगा तो मोटर-कारों और हॉर्न की चीखें दबा देंगी उसका गला। उसे पता था कि अगर वह ऋतुओं के राजा की तरह आएगा तो मार दिया जाएगा बहुरूपिया समझकर। वह जानता था कि यहां लोगों ने अपने-अपने घरों में बना लिए हैं अपने वसंत, इसलिए वह खाएगा ठोकर। जानता था कि अगर वह ढिढोरा पीटकर आएगा तो उसे शेर की तरह रख दिया जाएगा चिड़ियाघर में। कुछ कैमरे में कैद करेंगे तो कुछ पत्थर मारकर परखेंगे उसका स्वभाव। भक्त मंदिरों में बैठाकर पट बंद कर लेंगे और चढ़ाएंगे छप्पन भोग। इसीलिए बिना किसी को फोन किए, बिना अखबारों में इश्तहार छपवाए, बाजारों में बिना पोस्टर चस्पा करवाए, बिना ऊंचे-ऊंचे तोरणद्वार के, वसंत चुपचाप आ गया है सपनों के वन में, वासंती नयन में, वासंती शहर में।
-ओम द्विवेदी 

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