रविवार, 17 नवंबर 2013

एक ख्वाब, जो 24 साल तक रहा पलकों पर

जैसे कोई बल्ले की क़लम से मैदान के भोजपत्र पर वेदों की ऋचाएं रचता रहा हो...छंद शास्त्र को अनगनित मात्रिक और वार्णिक छंद सौंपता रहा हो...बल्ले की वीणा पर राग-रागिनियां बजाता रहा हो...बाइस गज़ के बीच दौड़ते हुए कथक, कुचीपुड़ी और लावणी को शर्मिंदा करता रहा हो...जिसने बिना-अस्त्र के दिलों पर बादशाहत हासिल की हो...दुनियाभर के क्रिकेटप्रेमियों की धड़कन बनकर धड़कता रहा हो...जिसके हाथ में लकड़ी का छोटा-सा खिलौना तोप बनकर दुश्मनों के किले ध्वस्त करता रहा हो...जिसने शत्रुओं के खेल को अपने देश की आत्मा बना दी हो...जिसका सिर आसमान से टकराता हो, लेकिन पांव ज़मीन में धंसे हों...जिसके आगे एवरेस्ट छोटा दिखे, लेकिन जो कंकरों-पत्थरों को भी सम्मान दे...जिसके लिए पूरी धरती सचमुच में एक परिवार रही हो...जिसने खेल से इतनी मोहब्बत की हो कि रश्क़ करे ताजमहल...वह सचिन रमेश तेंडुलकर ख्वाब बनकर 24 साल तक टिका रहा पलकों पर।

इतिहास ने कितनी बार उसे सज़दा किया, भूगोल कितनी बार सिमटकर उसके सामने बित्तेभर का हो गया, उसकी गहराई नापते हुए समंदर कितनी बार पसीने-पसीने हुए। जाने कितनी सुनामियों और चक्रवातों का दंभ उसने अपने क़दमों से कुचला। जाने कितने युवाओं के जज़्बातों में वह जन्म लेता रहा बार-बार। उसके जैसे पुत्र को जन्म देने के लिए ललकती रहीं जाने कितनी माताओं की कोख। वह न जाने कितने सपनों में दाख़िल हुआ होगा राजकुमार बनकर। कितने कोरे कागज़ तरसे होंगे उसके एक हस्ताक्षर के लिए। जाने कितनी इच्छाओं को अतृप्त करते हुए वह बनता रहा सागर और दौड़ता रहा अपने 'चांद' की ओर। एक आदमी अपनी एकाग्रता, एकनिष्ठता, मेहनत और लगन से किस तरह बना इतना विराट कि उसके सामने हर ऊंचाई लगने लगी बौनी। अभ्यास ने लिखी सफलता की ऐसी अमिट कहानी, जिसे सुनकर सदियों बाद भी चौड़ा होता रहेगा समय का सीना। कृष्ण का विराट रूप केवल एक बार अर्जुन देखा था, सचिन का पूरी दुनिया ने देखा। बार-बार, कई बार।

क्रिकेट का यह 'भगवान' भले ही मुंबई वानखेड़े स्टेडियम में अंतिम विदाई ले रहा था, मैदान से बाहर जाते हुए गाल पर आंसुओं के मोती गिर रहे थे, दुनिया देख रही थी भावनाओं का महाकुंभ...लेकिन सिसक रहा था मेरा अपना मध्यप्रदेश भी। ग्वालियर का कैप्टन रूपसिंह स्टेडियम याद कर रहा था एकदिवसीय मैचों में लगाया गया इतिहास का पहला दोहरा शतक। इंदौर के नेहरू और होलकर स्टेडियम हिचकियां ले रहे थे उसकी छुअन और पदचाप को याद करके। जिस प्रदेश और उसके शहर इंदौर को पद्मभूषण कर्नल सीके नायडू और पद्मश्री मुश्ताक अली ने क्रिकेट खेलने और देखने का सलीक़ा सिखाया हो, वह भला कैसे न महसूस करता क्रिकेट के 'पैगंबर' की जुदाई का दर्द। जिसकी होलकर टीम ने जीते हों चार-चार रणजी खिताब, जिसके ख़ज़ाने से निकले हों नरेंद्र हिरवानी और अमय खुरसिया जैसे सितारे, वह कैसे भूलेगा कभी अपने आंगन में बिखरी क्रिकेट के 'कोहिनूर' की चमक। खेल के ऐसे रत्न को जो बन गया हो भारत रत्न।

समय की आंख बनकर देखें तो सगुण से निर्गुण हो गया सचिन का खेल, एक ऐसा मंत्र बन गया जिसका जाप कर आने वाली पीढ़िया सिद्ध करेंगी अपना हुनर, एक ऐसा गीत जो अवसाद को बनाएगा नया हौसला, एक ऐसी मिसाल जिसे बताकर फ़ख्र महसूस करेंगे लोग। कबीर ने बिना दाग-धब्बे के जैसे चदरिया ज्यों की त्यों रख दी थी, सचिन ने क्रिकेट की पोषाक रख दी निष्कलंक। भरा-पूरा साम्राज्य छोड़कर चल पड़े बुद्ध की राह पर। क्रिकेट को इतना मान और सम्मान दिलाया कि आने वाली पीढ़िया इस बात पर गर्व करेंगी कि उन्होंने उस खेल को चुना, जिसे सचिन खेला करते थे। आईंस्टीन होते तो बापू की तरह सचिन के लिए भी कोई ऐसा सूत्र वाक्य कहते कि, आने वाला ज़माना भरोसा नहीं करेगा कि हाड़-मांस का कोई आदमी क्रिकेट की साधना कर भगवान बन गया था।
 -ओम द्विवेदी
 नईदुनिया, 17.11.2013 



मंगलवार, 5 नवंबर 2013

अंधेरे के आंगन में रोशनी का महारास

सूरज के पहलू में जिस दीप की कोई औकात नहीं थी, अमावस की छाती पर चढ़कर उसी ने रात को औकात बता दी। सबसे काली रात को उजास का लिबास पहना दिया। मावस अपने तमाम षडयंत्रों के साथ देहरी के इर्द-गिर्द घूमती रही, घर में घुसने की कोशिश करती रही, लेकिन नन्हा-सा दीप इस कदर पहरेदारी करता रहा कि वह सेंध नहीं लगा पाई। अखंड दिखने वाली रात की सत्ता खंड-खंड हुई और दीप ने रोशनी का विजयनाद किया। 

शहर के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक यह दीप कहीं मिट्टी के रूप में था तो कहीं बिजली की लड़ियों की शक्ल में, कहीं सफेद वस्त्रों में दमकता हुआ तो कहीं बेहद रंगीन, कहीं महालक्ष्मी की आराधना करता हुआ तो कहीं पटाखों के साथ आसमान में नाचता हुआ, झोपड़ी में मंद-मंद मुस्काता हुआ तो बहुमंजिला इमारतों पर खिलखिलाता-अट्टहास करता हुआ, बुजुर्गों के चरणों में मत्था टेककर आशीर्वाद लेता हुआ तो बच्चों को गले लगाकर प्यार-दुलार देता हुआ, राजवाड़ा से इतिहास की रोशनी लुटाता हुआ तो मॉल से विश्व बाजार की जयकार करता हुआ। उजाले की सबसे छो
टी इकाई ने शहर के पोर-पोर को अपने रंग से रंग दिया।

दीयों ने सबसे काली रात को भी इतनी खूबसूरत बना दिया कि शरद की पूर्णिमा को भी जलन होने लगी। 
दीये की महाविजय पर पूनम के चांद ने संदेश भेजा-'मेरी मजबूरी है कि मैं नहीं आ सकता अमावस्या के घर। नहीं दे सकता उसे अपनी आभा। उसकी काली करतूतों से नहीं हैं कोई मेरा लेना-देना। डरता भी हूं कि मेरे दामन पर कहीं लग न जाए कालिख। दोनों के अलग-अलग रहते ही बचा हुआ है दोनों का वजूद। मेरी अनुपस्थिति में भी तुम चांद बनकर चमकते रहे धरती पर। जैसे मैं ही बैठ गया हूं मिट्टी के पात्र पर। तुम्हारे रहते किसी ने एक बार भी याद नहीं किया मुझे। सूरज ने चिठ्ठी लिखी-'मैंने कभी तुम्हें अपना वारिस नहीं बनाया, तुम्हारी बेजान-सी हस्ती देखकर मैं हंसता रहा बार-बार, मैं अपने उजाले पर ही इतराता रहा, घूमता रहा पूरब से पश्चिम तक, रोशनी बांटकर समझता रहा खुद को दानी-महादानी। आज तुम्हारी हैसियत देखकर टूट गया मेरा दंभ। आग की पोटली लिए तुम भस्म करते रहे अंधेरे को। जिस छोर पर मैं पहुंच भी नहीं सकता था, वहां तुमने कायम की अपनी सत्ता। अमावस के आंगन में भी तुमने बचा ली मेरी लाज। मेरी सोहबत में नहीं तैयार हो सकता दूसरा सूरज, लेकिन तुमने ज्योति से ज्योति जलाकर तैयार कर दी दीपों की अपराजेय सेना। आज मुझे समझ में आया कि तुम जैसे छोटे-छोटे सूरज को सम्मान देकर ही समर्थ और दीर्घजीवी हो सकता है बड़े सूरज का जनतंत्र। मैं लिख रहा हूं तुम्हारे नाम अपनी वसीयत। तारों ने ट्वीट किया-तुम्हारे साथ हम धरती पर भी करेंगे समूह नृत्य, गाएंगे उजाले का कोरस, कायम करेंगे वंचितों का साम्राज्य। तुम एक साथ कर सकते हो अंधेरे और उजाले का सम्मान।

शहर की दहलीज पर अगर दीया सोलह श्रृंगार करके आता है तो यह शहर भी उसके लिए लड़ता है तूफानों से। उसकी लौ की रक्षा में लगा रहा रहता है निरंतर। होलकरों ने इंदूर की देहरी पर विकास का जो दीप रखा 
था, इंदौर आज उसे मशाल में तब्दील कर चुका है। इंद्रेश्वर से लेकर खजराना के मंदिर तक आस्था के अकंपित दीप जगमगा रहे हैं। ज्वार के शाजे और आलनी भाजी के दीप पर 'स्वाद की लौ पूरे देश को लुभा रही है। अतिथियों के सत्कार के लिए यह जलता रहता है मद्धिम-मद्धिम। यह सेठ हुकमचंद के साथ धन के दीप जलाता है...डीडी देवलालीकर और एमएफ हुसैन के साथ रंगों के ...अमीर खां और लता मंगेशकर के साथ सुरों के...भवानी प्रसाद मिश्र और प्रभाकर माचवे के साथ साहित्य के...सीके नायडू और मुश्ताक अली के साथ खेल के...। यहां की गली का दीप बीआरटीएस बनकर दमकता है, तांगों का दीया हवाई जहाज बनकर आसमान की लंबाई नापता है। लगातार जलते हुए भी वह करता रहता है प्रार्थना कि मिल की चिमनियों की तरह खामोश न हो जाए एक दिन। 

-ओम द्विवेदी
नईदुनिया इंदौर , 04.11.13 

शनिवार, 7 सितंबर 2013

माया में ही उलझकर, गुरू हुआ घंटाल

गिरा-गिरा फिर से गिरा, रुपया गिरा धड़ाम।
गिर-गिरकर होने लगा, ससुरा आसाराम।

कौन करेगा पाप का, इस धरती से अंत।
जब बेटी की लाज को, लूटे बूढ़ा संत।।

प्रवचन में कहता रहा, माया को जंजाल।
माया में ही उलझकर, गुरू हुआ घंटाल।।

अर्थशास्त्री कर रहे, रुपये से दुष्कृत्य।
साधु बुढ़ापे में करे, बिना वस्त्र के नृत्य।।

बतलाओ गोविंद तुम, गुरु की कुछ पहचान।
ज़्यादा बड़ा मकान है, या फिर बड़ी दुकान।।

कल तक था नेपथ्य में, आज मंच पर शोर।
चोर सभी कहने लगे, इसको-उसको चोर।।

करें सिपाही किस तरह, उसकी तेज़ तलाश।
सिंहासन पर शान से, बैठा जब बदमाश।।

कई कंस दिल्ली जमे, कई जमे भोपाल।
सबका मर्दन साथ में, कैसे हो गोपाल।।

जो जनता की भूख का, करते हैं आखेट।
संसद में बिल पेशकर, कहा-भरेंगे पेट।।

लंका जिसने जीत ली, दिया दशानन मार।
आज अयोध्या देखकर, गया स्वयं से हार।।

हुई अयोध्या फिर गरम, फिर से प्रकटे 'राम'।
करने लगा चुनाव फिर, वही पुराने काम।।

जख्म नए फिर से मिले, भरे न पिछले घाव।
दंगा, कर्फ्यू, गोलियां, लेकर चला चुनाव।।

दंगा- दंगा फिर शहर, पागल है तलवार।
गोली-कर्फ्यू झेलकर, सिसकी भरता प्यार।।

शब्द भले धोखा करें, वाणी बने न मित्र।
किन्तु गवाही समय की, हरदम देंगे चित्र।।

वह सीमा के पार से, करता हमें शहीद।
हम दिल्ली से चीख़कर, देते हैं ताकीद।।

-ओम द्विवेदी

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

थाली को भी चाहिए, शासन से अनुदान

रोटी बनकर खा गया, बेहतर कल को काल।
बड़ी भूख है कर रही, छोटी भूख हलाल।

प्रजा पुरानी कर रही, राजा को बदनाम।
उसे बदलकर मिलेगा, कुरसी पर आराम।

एक साथ दोनों गिरे, रुपया और चरित्र।
एक-दूसरे से हुए, दोनों खूब पवित्र।

छाछ बताता स्वयं को, कभी-कभी श्रीखंड।
बड़े मंच पर बड़ों का, दिखता है पाखंड।।

देख सियासी मनचले, लोकतंत्र हैरान।
जनता थाती दे किसे, जब सारे हैवान।

अब राजा के साथ है, जो थी कल तक रंक।
देख रसोई डर रही, सब्ज़ी का आतंक।

सब्ज़ी करने लग गई, सोने का सम्मान।
थाली को भी चाहिए, शासन से अनुदान।।

संसद से बढ़कर यहाँ, उसके पहरेदार।
सिंहासन पर बैठकर, करें नए व्यभिचार।

नई उमर को नया ही, पढ़ा रहे हैं पाठ।
जो जी-जी करते हुए, पार कर गए साठ।

किसका सुमिरन अब करूं, किसकी करूं तलाश।
कैसे जाऊं उस गली, जहां अनगिनत लाश।

दिल्ली-संसद में हुआ, गुपचुप कुछ अनुबंध।
टूट गया है गाँव से, बिलकुल ही संबंध।

जाने कैसा कर रहे, वैद्यराज उपचार।
उनकी सेहत बन रही, मैं क्रमशः बीमार।


-ओम द्विवेदी

बुधवार, 26 जून 2013

मावस ने अगवा किया, सूरज का परिवार

ताकतवर सरकार थी, चौकस पहरेदार।
मावस ने अगवा किया, सूरज का परिवार।।

मान रहे थे तुम्हे जो, सच में पालनहार।
लाशें उनकी बिछी हैं, आज तुम्हारे द्वार।।

लड़ता है संसार से, जो जीवनभर युद्ध।
अंत समय में वही फिर, बन जाता है बुद्ध।।

भले तोप गरजे कहीं, चले कहीं बंदूक।
अमराई में बैठकर, कोयल गाती कूक।।

सुख पर दावा सभी का, क्या घर क्या संसार।
नहीं मिला है आज तक, दुःख का हिस्सेदार।।

पहले अपने हाथ से, काटें अपने पैर।
फिर दुनिया से यह कहें, ख़ुदा न करता ख़ैर।।

ज़हर नदी में घोलकर, सागर को दी आह।
उसने बादल भेजकर, पल में किया तबाह।।

बादल चुकता कर रहे, इस धरती का क़र्ज़।
लेन-देन यह युगों का, हर पत्ते पर दर्ज़।।

बादल फिर गिरने लगे, फिर से रोया गाँव।
सड़ी-गली दीवार पर, खपरैले की छाँव।।

भोले-भले पिताजी, माफ़ करें अब आप।
बड़ी सफलता के लिए, बड़ा चाहिए बाप।।

कोई खाई की तरह, कोई दिखे पहाड़।
घिघियाता अक्सर मिला, जिसके पास दहाड़।।

-ओम द्विवेदी 

सोमवार, 24 जून 2013

इंदौर की अर्ज़ी : सांसें लौटा दो मेरे 'नाथ'

देश के तमाम शहरों की तरह मैं भी एक सांस लेता शहर इंदौर हूं...दूर देवभूमि में पहाड़ों पर अटके हुए हैं मेरे लाल, मेरे आंसू पलकों की कंदराओं में फंसे हुए हैं। उन्हें याद करके बादलों की तरह बार-बार फटती है मेरी छाती। कोई फोन बजता है तो पल भर के लिए निचुड़ जाता है शरीर से रक्त। लगता है गर्म पिघले शीशे की तरह कान में गिर न जाए अनहोनी से लथपथ कोई ख़बर। पहली बारिश लेकर अपने आसमान में आए मेघ जो कभी छंद की तरह लगते थे, आज नज़र आते हैं काल की मानिंद। लगता है ये यहीं बरस जाएं जो बरसना है, हिमालय की तरफ न करें अपना रुख़। मेरे जिगर के जो टुकड़े मेरे पास आने की जद्दोजहद कर रहे हैं, उन पर फिर बिजली बनकर न गिर पड़ें ये काले-काले काल। जिन लोगों को ज़िंदगी पाने के लिए मैने बाबा केदारनाथ के चरणों में भेजा था, उनकी मौत का हिसाब करना नहीं चाहता। जो जीवन देते हैं, उनसे लाशें लेना नहीं चाहता। जिनको भक्ति और आस्था का संस्कार दिया है, उनका अंतिम संस्कार करना नहीं चाहता।
भूगोल की जंज़ीरों से अगर जकड़े नहीं होते मेरे पैर तो अब तक मैं पहाड़ों से बिन लेता छूटे और छिटके हुए बेटों को, गोदी में उठाकर भर देता उनके जख्म। गंगा, यमुना और अलकनंदा में जाल डालकर छान लेता सैलाब में बही सांसों को। राजवाड़ा को कांधे पर रख पहुंच जाता 'नाथ के दरवाज़े पर और उसे स्थापित कर देता बही हुई धर्मशालाओं की जगह। छावनी मंडी को पीठ पर लादकर ले जाता और भर देता भूख का पेट। अगर नक्शे से चिपके होने का अभिशाप नहीं मिला होता तो छाती से चिपका लेता दर्द के मारों को, पी लेता उनके आंसू।
बाबा! मैं तुम्हारे धाम की तरह भले हज़ारों साल पुराना नहीं हूं, लेकिन मेरे सिरहाने विराजे हैं दो-दो ज्योतिर्लिंग। उनकी परिक्रमा करवाता हूं मैं भी। देश-दुनिया से आए अतिथियों की बलि लेने की अनुमति न मैं बादलों को देता और न हवाओं को। हमारे महाकाल मुर्दे की राख लेते हैं, ज़िंदा को मुर्दा नहीं करते। ओंकार पर्वत पर बैठे ओंकारेश्वर डांटते रहते हैं नर्मदा को कि वह घाट पर नहाते भक्तों को अपने आगोश में न ले। पिघलने वाले पहाड़ पर बैठकर भी आपका दिल नहीं पिघला। आप बैठै रहे और आपके चाहने वाले बहते रहे। आपके जयकारे लगाते-लगाते वे शून्य में खो गए। मेरे आंगन में देवी अहिल्या ने शिव भक्ति की जो ज्योति जलाई थी, वह तूफानों में घिर गई है। बचाओ उसकी लाज।
मेरे भी सीने में धड़कता है दिल। मैं भी सुबह सूरज को न्योता देता हूं रोशनी के लिए और शाम को देहरी पर रख देता हूं उम्मीद का दीया। अगर आपको सुनाई देती है आंसुओं की प्रार्थना तो सही सलामत लौटाओ मेरी संतानों को। अगर चाहते हो कि हमारी आस्थाओं की उम्र लंबी हो तो किसी को अनाथ मत करो मेरे 'नाथ....सबको सुरक्षित लौटाओ मेरे धाम, जिससे दोबारा भेज सकूं चारोधाम।
-ओम द्विवेदी
(२४ जून को नईदुनिया में प्रकाशित टिप्पणी)

शनिवार, 15 जून 2013

दोहे : घर तक आती नौकरी, दफ्तर तक घर रोज़

ऊँची कुर्सी पर यहाँ, दिखते छोटे लोग।
ऊँचे-ऊँचे काम का, करते रहते ढोंग।।

छोटी-छोटी कुर्सियां, देती हैं बलिदान।
तब ऊँची को जगत में, मिलता है सम्मान।।

एक साल के बाद फिर, मालिक हुआ प्रसन्न।
बड़े शान से बांटता, चुटकी भरकर अन्न।।

मालिक चक्की की तरह, दाना है मज़दूर।
स्वाद बढ़ाने के लिए, पीसे है भरपूर।।

हाथी घूमे शहर में, वन में मोटर-कार।
दिखता दोनों ओर है, जमकर हाहाकार।।

पति अपने इस राष्ट्र के, आये थे इंदौर।
दंपति सारे शहर के, ढूढ रहे थे ठौर।।

लपक-गरजकर आ गई, मेघों की बारात।
घर के बाहर देखिए, हैं कैसे हालात।।

तेज़ तपिश के बाद अब, बूंदों का त्यौहार।
पेड़ मांगने लग गए, बादल से अधिकार।।

घर तक आती नौकरी. दफ्तर तक घर रोज़। 
एक - दूसरे में करें, दोनों अपनी खोज।।

पानी बरसे रातभर, दिन में बरसे आग।
धरती छेड़े किस तरह, अपना जीवन राग।।

शब्द-शब्द तलवार है, शब्द-शब्द बाज़ार।
कैसे- कैसे रूप में, सजता है अखबार।।

क्रिकेट जिसे हम मानते, नए समय का धर्म।
साथ उसी के हो रहा, सामूहिक दुष्कर्म।।

नदी हमारे गाँव की, जब तक पानीदार।
जीवन के जनतंत्र में, साँसों की सरकार।।

धुआं अगर देने लगा, इस जीवन को स्वाद।
फिर काया का राख में, होना है अनुवाद।।

कुदरत की चौपाल पर, जीवन का सत्संग।
जन्मे जिस भी कोख से, बचपन मस्त मलंग।।

यहाँ ज़िंदगी हर क़दम, खोले नए किवाड़।
देख जड़ों की जिजीविषा, टूटे कई पहाड़।

सूरज देखो कर रहा, कैसा नंगा नाच।
घर के भीतर आ रही, भट्टी जैसी आंच।।

सबका अपना रास्ता, सबकी अपनी रेल।
प्लेटफार्म पर ही करो, थोड़ा-थोड़ा मेल।।


-ओम द्विवेदी 

रविवार, 12 मई 2013

मां ने रखा सहेजकर, सबको बिलकुल पास


भाड़े-बर्तन कर रहे, आपस में तकरार।
मां रहती है देखकर, अक्सर ही बीमार।।

कभी गली में झांकती, कभी रही है खांस।
बेटा घर से दूर है, मां की अटकी सांस।।

भाई दिखलाने लगे, जबसे अपनी पीठ।
एक-एककर हो गए, दुश्मन सारे ढीठ।।

मां ने रखा सहेजकर, सबको बिलकुल पास।
दो शब्दों को जिस तरह, जोड़े रखे समास।।

एक कोख के ख़ून में, घुले अगर तकरार।
नागफनी बनने लगे, आंगन की दीवार।।

मौला ने आदम दिया, आदम ने संसार।
मां ने मौला को दिया, एक बोसे में प्यार।।

बेटे ने जब-जब किया, छाती से संवाद।
मां तब-तब करती मिली, ममता का अनुवाद।।

दिखें भिखारी देवता, रंक दिखे सरकार।
जब माथे को चूमकर, माता बांटे प्यार।।

आंचल अंबर के सदृश, हृदय धरा का रूप।
सागर जैसा प्यार है, लोरी ठंड की धूप।।

सूरज चढ़े मुडेर पर, गरमी हो उद्दंड।
बनी बरफ की डली मां, घुल-घुल बांटे ठंड।।

जब बेटों को कष्ट दे, जग की कोई चीज़।
मां धागे में बांधती, ममता का ताबीज़।।

मां देहरी पर बैठकर, उमर रही है काट।
लड़कर बेटों ने किया, जबसे हिस्सा-बांट।।


  • ओम द्विवेदी 

ताना मारे ज़िंदगी से.... 

शनिवार, 23 मार्च 2013

माफ़ करना भगतसिंह


मैं भी उठा सकता हूँ बम
लेकिन साहस नहीं है कलेजे में
मैं भी बोल सकता हूँ इन्कलाब जिंदाबाद
लेकिन कांप जाती है ज़बान

नौजवानी मेरे पास भी है

लेकिन उसके सपने में है केवल नौकरी और छोकरी
आज़ाद नहीं है मेरा भी देश
लेकिन आजादी की इच्छा मर गई है मेरे भीतर

मुझे भी वतन के लिए बुलाता है फांसी का फंदा
लेकिन रह-रहकर आता है बीवी और बच्चों का ख्याल
मै कैसे कहूँ भगतसिंह
कि मैं तुम्हारी तरह जीना चाहता हूँ
रात के ख़िलाफ़
एक दीया बनना चाहता हूँ

कैसे कहूँ तुमसे कि नहीं लड़ पा रहा हूँ
भीतर बैठे एक नपुंसक से
दीमकों से नहीं बचा पा रहा हूँ अपनी आत्मा को

मुझे माफ़ करना भगतसिंह
मैं नहीं रख पाया तुम्हारे बलिदान की लाज.

-ओम द्विवेदी

वीडियो देखने का पता
  

गुरुवार, 7 मार्च 2013

आइए बधाइयाँ दें उसे



पहले उसके साथ बलात्कार करो
फिर उसे कहो निर्भया और बहादुर
पहले उसे दासी बनाओ
फिर कहो देवी
पहले कुचलो उसके सपनों को
फिर बताओ सपनों से सुन्दर
तीन सौ चौंसठ दिन जिसे मनुष्य कहने में
कांपती रही हमारी जीभ
आइए बधाइयाँ दें उसे।
  • ओम द्विवेदी  

पहले उसके साथ बलात्कार करो 
फिर उसे कहो निर्भया और बहादुर 
पहले उसे दासी बनाओ 
फिर कहो देवी 
पहले कुचलो उसके सपनों को 
फिर बताओ सपनों से सुन्दर 
तीन सौ चौंसठ दिन जिसे मनुष्य कहने में
 कांपती रही हमारी जीभ 
आइए बधाइयाँ दें उसे।

सोमवार, 28 जनवरी 2013

तेरी मीनार तेरा गुम्बद देख लिया

तेरी मीनार तेरा गुम्बद  देख लिया। 
तेरी पूजा, अज़ान, सबद देख लिया। 

उठा के एड़ी न ऊंचाई का अहसास करा 
तेरी बातों से तेरा कद  देख लिया।

तेरी ताक़त का बहुत शोर था लेकिन,
तुझे भीड़ में तन्हा अदद  देख लिया।

तेरा बाज़ार जिस दुनिया को गांव कहता है,
वहां देहरी-देहरी पे सरहद  देख लिया।

जिसे मिलती है मुफ़लिस की बद्दुआ हरदम,
वो कुर्सी, वो ऊंचा पद  देख लिया।

  • ओम द्विवेदी 
(ताना मारे ज़िंदगी से )