बुधवार, 26 अगस्त 2009

वो आए थे

वो दिखाने के लिए ही आए थे...आपने भी देखा होगा। क्या रूप-रंग था...क्या लाव-लश्कर... क्या संगी-साथी थे... क्या अदा थी... चेहरे पर विराजी मुस्कराहट का तो कहना ही क्या?

उनके व्याकरण में लोकतंत्र है और आचरण में राजतंत्र। उनका शासन भले दुःशासन का हो मगर सिहांसन बहुत महान है। साहित्यकार, पत्रकार, कलाकार, संगीतज्ञ, वैज्ञानिक, इतिहासकार और महान से महान सैनिक उनके सिंहासन में कठपुतलियां बनकर जड़ित हैं। उनका बोलना समाचार है और उनका निर्णय जनता का भाग्य। वे कुंदन की तरह दमकते रहते हैं। उनकी प्रजा भले ही जवानी में बूढ़ी दिखाई दे, लेकिन वे बुढ़ापे में भी खासे जवान दिखाई देते हैं। वे जहां से भी निकलते हैं अपने आप तोरणद्वार बन जाते हैं, पुष्पों के हार उनके गले में समर्पित हो जाते हैं, लोग चरणों में लोट जाते हैं। ...वही आए थे।
वे शांतिप्रिय हैं। इतने अधिक शांतिप्रिय कि जो शांति के पक्ष में नहीं हैं उनका जीना मुश्किल कर देते हैं। शांति की मुखालफत करने वालों की बहू-बेटियों का अपहरण हो सकता है, मारने की सुपारी मिल सकती है और अंततः फांॅसी की सजा भी। वे शांति की परिभाषाएं बनाते हैं और उसके खिलाफ एक शब्द भी सुनना नहीं चाहते। शांति स्थापना के लिए ही वे अपने साम्राज्य का विस्तार हर हालत में दिग-दिगांतर तक करना चाहते हैं।

उनके लिए प्रजा और जनता एक ही है। वोट लेने तक प्रजा को जनता मानते हैं और वोट लेने के बाद जनता को प्रजा मानने लगते हैं। वे प्रजा के पालनहार हैं। इसीलिए नए-नए कारखाने खोलते हैं और उसका उत्पाद प्रजा को बेचते हैं। प्रजा को रोटी, कपड़ा और मकान देने के लिए इतने मधुर-मधुर नारे गढ़ते हैं कि प्रजा रोटी खाने की बजाए रोटी गाने लगती है। उन्हें यह अच्छी तरह ज्ञात है कि वे जहां से गुजरते हैं, वहां प्रजा की भीड़ इकठ्ठा हो जाती है। इसलिए वे पहले से लोगों का आना-जाना रुकवा देते हैं। स्कूल, कॉलेज, दुकानें बंद करवा देते हैं। उस दिन उनकी सवारी के अलावा किसी और की सवारी उस राह से नहीं गुजरती। उस दिन शहर में चोरी डकैती नहीं होती, डॉक्टर कहते हैं कि कोई बीमार नहीं होता। पुलिस किसी और को नहीं पकड़ती केवल शांति के दुश्मनों को जेल में ठूसती है। जिस दिन वे आते हैं शहर में श्मशान जैसी शांति रहती है। ...वही आए थे।

वे न्यायकर्ता हैं। जिसे न्याय नहीं चाहिए उसे भी देते हैं। न्याय देने का उनका तरीका भी निराला है। चोर से चोरी करवाते हैं और पुलिस से पकड़वाते हैं। चोर को भी रोजगार और पुलिस को भी। वे बंदर की तरह बिल्लियों को न्याय देते हैं। एक रोटी के लिए जब बिल्लियां आपस में लड़ती हैं तो वे न्याय की तुला लेकर बैठ जाते हैं और बराबर करने के चक्कर में पूरी रोटी गपक जाते हैं। बिल्लियों का झगड़ा वे इसी तरह शांत कराते हैं।

वे सदा से उद्घारक हैं। सभी का उद्घार करते हैं। देश का उद्घार करने के लिए संसद में जाते हैं, मूर्तियों का उद्घार करने के लिए अनावरण समारोहों में और ईश्वरों का उद्घार करने के लिए मंदिरों-मस्जिदों में। वे उद्घार यात्राएं करते हैं और उद्घार आंदोलन चलाते हैं। बड़े-बड़े महापुरुष उनकी प्रतीक्षा में वर्षों से मूर्ति बने खड़े हैं।

वे मानवता के सबसे बड़े पुजारी हैं। 'जिओ और जीने दो' का सनातन धर्म इनके रक्त में घुला हुआ है। जब सरकार में रहते हैं तो खूब खाते हैं और जब सरकार में नहीं होते तो खाने देते हैं। सरकार में रहते हुए जब सभाओं में जाते हैं तो जनता को 'डकार' सुनाते हैं और जब विपक्ष में रहते हैं तो 'क्रांति' का मंत्र फूंकते हैं। जनता डकार और क्रांति दोनों को एक ही समझती है। वह वर्षों से उन्हें इसी तरह सुनती आ रही है।

उन्हें दूसरे धर्म के वोट और चंदे पसंद हैं, लेकिन लोग नहीं। चंदे और वोट गुप्तदान हैं और गुप्तदान लेने में वे नीति-अनीति का भेद नहीं करते। वे रिश्वत को भी दान मानते हैं और दान को गुप्त रखने में यकीन करते हैं। उनका मानना है कि उन्होंने ही देश को आजाद करवाया है और यदि वे नहीं होते तो देश अब तक गुलाम हो गया होता। वे जब तक जीते हैं तब तक देश की छाती पर तने रहते हैं और जब मर जाते हैं तो देश का झंडा अपनी छाती पर तान लेते हैं। जीते-मरते सेना से सलामी लेते हैं। वे हर हालत में महान हैं। ...वही आए थे।
(साहित्य अमृत द्वारा पुरस्कृत व्यंग्य)

दंगा उत्सव

दंगे हमारे शहर, प्रदेश और देश का गौरव हैं। महीने-चार महीने में दमदार दंगे न हों तो पता ही नहीं चलता कि हमारी कौमें जिंदा हैं और उनका अपना धर्म भी है। जैसे सिर में दर्द होने पर सिर का बोध होता है, पिछवाड़े बालतोड़ होने पर पिछवाड़े का अहसास होता है, पेट में मरोड़ होने लगे तो ज्ञात होता है कि शरीर में पेट भी है और महबूबा दिल तोड़ दे तो पूरा मोहल्ला जान जाता है कि आपके पास एक अदद दिल भी है। दंगे इसी तरह कौमों को उनके होने का अहसास कराते हैं। पंडों और मौलवियों को सुखेन वैद्य की तरह आदर तभी तक मिलता है जब तक समाज के पेट में दंगों का दर्द होता रहे। दंगें न हों तो दुनिया में हमारे देश की पहचान समाप्त हो जाए। बीमा का एजेन्ट जिस तरह माथे पर लगे चोट के निशान को स्थाई पहचान के रूप में चिन्हित करता है, उसी तरह हमारे मुल्क की स्थाई पहचान भी दंगों के रूप में होती है।
दंगे शांति और स्वाभिमान की रक्षा के लिए होते हैं। प्यार बचाने और बढ़ाने के लिए होते हैं। धर्म की रक्षा के लिए तो होते ही हैं। एक धर्म को मानने वाला अगर दूसरे धर्म में खोट देख ले तो धर्म तत्काल खतरे में आ जाता है। जब धर्म खतरे में हो तब धार्मिक लोग भला कैसे बैठ सकते हैं? अपनी-अपनी तलवारें निकालकर कूद पड़ते हैं धर्मक्षेत्र में। एक मजहब की लड़की को अगर दूसरे मजहब के लड़के से इश्क हो जाए तो मानिए कि प्यार खतरे में है। ऐसी स्थिति में प्यार की रक्षा के लिए दंगों को अवतार लेना पड़ता है। इन्हें आप क्षणभर के लिए नकली दंगा कह सकते हैं, लेकिन जब सरकार खतरे में आती है तब पूरी तरह चौबीस कैरेट शुद्घ दंगे होते हैं। जिस तरह माखन चुराने वाले कान्हा ने द्रौपदी की लाज बचाई थी, दंगे सरकार की लाज बचाते हैं, उसकी इज्जत ढक लेते हैं। सरकार गिरते-गिरते रह जाती है और अगले चुनाव की भैंस को हांॅकने के लिए मजबूत लाठी मिल जाती है।

दंगे का अर्थ है कि देखने-सुनने वाला दंग रह जाए। दंगा उत्सव सिद्घांत के अनुसार पहले किसी उत्सव को दंगे में परिवर्तित किया जाता है, पिᆬर कालांतर में दंगे को ही उत्सव बना दिया जाता है। बिना दंगे के उत्सव श्रीहीन और शोभहीन रहते हैं।

दंगे होने के बाद ही यह लगता है कि शहर में पुलिस भी है। थानों में सोती पुलिस वर्दी और बंदूक धारण कर तभी सड़क पर खड़ी होती है, जब उसे दंगे की सुगबुगाहट मिलती है और शहर का नाम बदलकर धारा १४४ वगैरह कर दिया जाता है। उसी समय उसे अपनी शक्ति का अहसास होता है। जामवंत जी ने हनुमानजी को उनकी शक्ति याद दिलाई थी और वे समुद्र में कूद गए थे। दंगे पुलिस को उसकी शक्ति याद दिलाते हैं और वे पीटने-कूदने पर उतारू हो जाते हैं। दंगे कभी-कभी स्वयं हनुमान की भूमिका भी अदा करते हैं। पूछ में आग लगाकर लंका फूंक देते हैं।

सरकारों ने जबसे दंगे का महत्व समझा है, तबसे दंगा विशेषज्ञों को सरकारी संरक्षण मिलने लगा है। जो लोग बिना किसी वजह के दंगा करवा दें, उन्हें एक्सपर्ट के रूप में सरकार मदद मुहैया कराती है। कुछ विदेशी विशेषज्ञ भी गुपचुप तरीके से देश में दंगों का प्रशिक्षण दे रहे हैं। सरकार यह जानती है कि कलात्मक दंगों में निपुण लोग चुनाव के समय बूथ कैप्चरिंग वगैरह कर सकते हैं और खाली समय में अलग-अलग धर्मों के स्वाभिमान की रक्षा कर सकते हैं।

दंगे कभी-कभी क्रांति का भ्रम भी बनाते हैं। वे जब हो रहे होते हैं तो लगता है क्रांति हो रही है। वस्तुतः यह क्रांति को मारने का सुनियोजित प्रयास होता है। लोग रोटी के लिए न लड़ें इसलिए धर्म के लिए लड़ा दिया जाता है। वे यह जानते हैं कि क्रांति सत्ता को पलटने के लिए होती है और दंगे सत्ता की रक्षा के लिए। उनकी सत्ता न पलटे इसलिए वे दंगे को क्रांति का सम्मान देते हैं। उन्हें यह भी जानना होगा कि जब दंगाइयों का पेट एक-दूसरे को मारकर भर जाता है तो वे अगला हमला कुरसी पर ही बोलते हैं।

(साहित्य अमृत के व्यंग्य विशेषांक अगस्त २००९ में प्रकाशित)

तम्बाकू का दर्शनशास्त्र

उस दिन तंबाकू निषेध दिवस था। एक दार्शनिक किस्म के तंबाकू सेवक से मुलाकात हो गई। फिर क्या था? लगा तंबाकू का दर्शन समझा जाए। इधर से सवालों की शुरुआत हुई कि उधर से झमाझम जवाबी बारिश होने लगी।

'आप दिनभर तंबाकू या गुटका क्यों चबाते रहते हैं?'
'अमीर गरीब को चबा रहा है...नेता वोटर को चबा रहा है...अमेरिका सारी दुनिया को चबा रहा है...दिल्ली की कुरसी भोपाल की कुरसी को, भोपाल की इंदौर की कुरसी को और इंदौर की सागरपैसा को चबा रही है...डॉक्टर मरीज को चबा रहा है...अदालतें न्याय चबा रही हैं...हिंगलिश हिंदी चबा रही है। मैं तो केवल खैनी चबा रहा हूँ।'

'आप तो जानते हैं कि तंबाकू खाने से कैंसर होता है?'
'गरीबी किसी कैंसर से कम है क्या? कैंसर से तो केवल कैंसर का मरीज मरता है, गरीबी तो पूरे खानदान को मारती है। बाप का इलाज नहीं होता, बेटा स्कूल नहीं जाता, बहन की शादी नहीं होती। जब गरीबी का ब्लड कैंसर अपुन का कुछ नहीं बिगाड़ पाया तो तंबाकू क्या उखाड़ लेगी?'

'आप सार्वजनिक स्थलों पर भी धूम्रपान करते हैं, यह अपराध है। इस पर आपको सजा हो सकती है, जुर्माना लग सकता है।'
'सरकार सार्वजनिक स्थलों पर गुटखे का कारखाना चला रही है तो अपराध नहीं है, दुकानदार उसे सार्वजनिक स्थलों पर बेच रहे हैं यह भी अपराध नहीं है, मेरा एक कश अपराध हो गया। सरकार मौत बेचे तो दाता और हम खरीदें तो अपराधी। रही बात जुर्माने की तो मुझे नशेड़ी बनाने के लिए मैं सरकार पर जुर्माना लगा रहा हूँ। या तो वह मुझे जुर्माने की राशि अदा करे या गुटखे को पाचक चूर्ण का दर्जा प्रदान करे।'

'आप विद्वान हैं इसका कुप्रभाव जानते हैं, इसके बाद भी इसका सेवन करते हैं।'
'कौन नहीं जानता कि भ्रष्टाचार बुरा है। फिर भी बंद हुआ क्या? देने वाले और लेने वाले में कौन नहीं जानता कि रिश्वतखोरी बुरी चीज है फिर भी बंद हुई क्या? झूठ बोलना पाप है यह कौन नहीं जानता फिर भी दुनिया में झुट्ठों की तादात कम हुई क्या? जानकारी से कुछ नहीं होता। जानकारी किसी बीमारी का कोई इलाज नहीं है।'

'फिर लगता है कि आपके भीतर संकल्पशक्ति की कमी है।'
'संकल्प कोई शक्ति नहीं है। वह भी एक व्यसन है। इस देश का काम तंबाकू के व्यसन के बिना तो चल जाएगा, लेकिन संकल्पों के व्यसन के बिना नहीं चलेगा। भीष्म पितामह के जमाने से हम संकल्प व्यसनी हैं। हमने साझा रूप से ब्रह्मचर्य का संकल्प लिया और दिन दूनी-रात चौगुनी रफ्तार से आबादी बढ़ाई, गरीबी हटाने का संकल्प लिया और बेगारों की भरमार हो गई, समाजवाद का संकल्प लिया और पूंजीवाद आ धमका। संकल्प का नशा भी तंबाकू की तरह दिमाग में सुरसुरी पैदा करने के लिए किया जाता है। खैनी, बीड़ी, गुटखे का नशा क्षणिक होता है इसलिए उसका सेवन जल्दी-जल्दी करना पड़ता है, लेकिन संकल्प का सेवन एक बार कर लिया जाए तो साल-छः महीने तक काम करता है। कभी-कभी तो पूरे पाँच साल रहता है। संकल्प के नशे को सामाजिक मान्यता प्राप्त है इसलिए उसके नशेड़ी पूजे जाते हैं। मैं तो कहता हूँ कि तंबाकू निषेध दिवस की जगह संकल्प निषेध दिवस मनाना चाहिए।'

'कुल मिलाकर आप तंबाकू नहीं छोड़ेंगे।'
'मैं आपकी तरह देशद्रोही नहीं हूँ। मैं एक चुटकी तंबाकू खाकर इस देश के तंबाकू उद्योग को आर्थिक सहयोग दे रहा हूँ। रात को एक पैग दारू पीकर इस देश का आबकारी विभाग चला रहा हूँ। मैं मौत की कीमत पर भी देश की तरक्की चाहता हूँ। यह देश कभी सोने की चिड़िया था। आज हम दोबारा इसे सोने की चिड़िया नहीं बना सकते, सोने का पानी तो चढ़ा ही सकते हैं।'

'अच्छा आप बता दें आपको तंबाकू के नशे में कोई बुराई नहीं दिखती?'
'तंबाकू का नशा दुनिया का सबसे छोटा नशा है। आठ आने और एक रुपए का नशा। तंबाकू प्रेम सबसे छोटे आदमी से प्रेम करने जैसा है। यह सामाजिक अपराध नहीं। दौलत के नशे, कुरसी के नशे, ताकते के नशे और मजहब के नशे के आगे इसकी भला क्या औकात? आप करोड़ों छोड़कर अठन्नी लूट रहे हैं।'

'देखिए! आगे मैं आपके किसी सवाल का जवाब नहीं दे सकता, क्योंकि मुझे बहुत जोर की तलब लगी है और खैनी खाने के बाद मुँह खोलना संभव नहीं। अस्सी चुटकी और नब्बे ताल का बुरादा आप भी मुँह में डालिए और प्रश्नों की बजाय खैनी की जुगाली कीजिए।'

(साहित्यिक पत्रिका 'वीणा' के अपैल अंक में प्रकाशित)