बुधवार, 26 जून 2013

मावस ने अगवा किया, सूरज का परिवार

ताकतवर सरकार थी, चौकस पहरेदार।
मावस ने अगवा किया, सूरज का परिवार।।

मान रहे थे तुम्हे जो, सच में पालनहार।
लाशें उनकी बिछी हैं, आज तुम्हारे द्वार।।

लड़ता है संसार से, जो जीवनभर युद्ध।
अंत समय में वही फिर, बन जाता है बुद्ध।।

भले तोप गरजे कहीं, चले कहीं बंदूक।
अमराई में बैठकर, कोयल गाती कूक।।

सुख पर दावा सभी का, क्या घर क्या संसार।
नहीं मिला है आज तक, दुःख का हिस्सेदार।।

पहले अपने हाथ से, काटें अपने पैर।
फिर दुनिया से यह कहें, ख़ुदा न करता ख़ैर।।

ज़हर नदी में घोलकर, सागर को दी आह।
उसने बादल भेजकर, पल में किया तबाह।।

बादल चुकता कर रहे, इस धरती का क़र्ज़।
लेन-देन यह युगों का, हर पत्ते पर दर्ज़।।

बादल फिर गिरने लगे, फिर से रोया गाँव।
सड़ी-गली दीवार पर, खपरैले की छाँव।।

भोले-भले पिताजी, माफ़ करें अब आप।
बड़ी सफलता के लिए, बड़ा चाहिए बाप।।

कोई खाई की तरह, कोई दिखे पहाड़।
घिघियाता अक्सर मिला, जिसके पास दहाड़।।

-ओम द्विवेदी 

सोमवार, 24 जून 2013

इंदौर की अर्ज़ी : सांसें लौटा दो मेरे 'नाथ'

देश के तमाम शहरों की तरह मैं भी एक सांस लेता शहर इंदौर हूं...दूर देवभूमि में पहाड़ों पर अटके हुए हैं मेरे लाल, मेरे आंसू पलकों की कंदराओं में फंसे हुए हैं। उन्हें याद करके बादलों की तरह बार-बार फटती है मेरी छाती। कोई फोन बजता है तो पल भर के लिए निचुड़ जाता है शरीर से रक्त। लगता है गर्म पिघले शीशे की तरह कान में गिर न जाए अनहोनी से लथपथ कोई ख़बर। पहली बारिश लेकर अपने आसमान में आए मेघ जो कभी छंद की तरह लगते थे, आज नज़र आते हैं काल की मानिंद। लगता है ये यहीं बरस जाएं जो बरसना है, हिमालय की तरफ न करें अपना रुख़। मेरे जिगर के जो टुकड़े मेरे पास आने की जद्दोजहद कर रहे हैं, उन पर फिर बिजली बनकर न गिर पड़ें ये काले-काले काल। जिन लोगों को ज़िंदगी पाने के लिए मैने बाबा केदारनाथ के चरणों में भेजा था, उनकी मौत का हिसाब करना नहीं चाहता। जो जीवन देते हैं, उनसे लाशें लेना नहीं चाहता। जिनको भक्ति और आस्था का संस्कार दिया है, उनका अंतिम संस्कार करना नहीं चाहता।
भूगोल की जंज़ीरों से अगर जकड़े नहीं होते मेरे पैर तो अब तक मैं पहाड़ों से बिन लेता छूटे और छिटके हुए बेटों को, गोदी में उठाकर भर देता उनके जख्म। गंगा, यमुना और अलकनंदा में जाल डालकर छान लेता सैलाब में बही सांसों को। राजवाड़ा को कांधे पर रख पहुंच जाता 'नाथ के दरवाज़े पर और उसे स्थापित कर देता बही हुई धर्मशालाओं की जगह। छावनी मंडी को पीठ पर लादकर ले जाता और भर देता भूख का पेट। अगर नक्शे से चिपके होने का अभिशाप नहीं मिला होता तो छाती से चिपका लेता दर्द के मारों को, पी लेता उनके आंसू।
बाबा! मैं तुम्हारे धाम की तरह भले हज़ारों साल पुराना नहीं हूं, लेकिन मेरे सिरहाने विराजे हैं दो-दो ज्योतिर्लिंग। उनकी परिक्रमा करवाता हूं मैं भी। देश-दुनिया से आए अतिथियों की बलि लेने की अनुमति न मैं बादलों को देता और न हवाओं को। हमारे महाकाल मुर्दे की राख लेते हैं, ज़िंदा को मुर्दा नहीं करते। ओंकार पर्वत पर बैठे ओंकारेश्वर डांटते रहते हैं नर्मदा को कि वह घाट पर नहाते भक्तों को अपने आगोश में न ले। पिघलने वाले पहाड़ पर बैठकर भी आपका दिल नहीं पिघला। आप बैठै रहे और आपके चाहने वाले बहते रहे। आपके जयकारे लगाते-लगाते वे शून्य में खो गए। मेरे आंगन में देवी अहिल्या ने शिव भक्ति की जो ज्योति जलाई थी, वह तूफानों में घिर गई है। बचाओ उसकी लाज।
मेरे भी सीने में धड़कता है दिल। मैं भी सुबह सूरज को न्योता देता हूं रोशनी के लिए और शाम को देहरी पर रख देता हूं उम्मीद का दीया। अगर आपको सुनाई देती है आंसुओं की प्रार्थना तो सही सलामत लौटाओ मेरी संतानों को। अगर चाहते हो कि हमारी आस्थाओं की उम्र लंबी हो तो किसी को अनाथ मत करो मेरे 'नाथ....सबको सुरक्षित लौटाओ मेरे धाम, जिससे दोबारा भेज सकूं चारोधाम।
-ओम द्विवेदी
(२४ जून को नईदुनिया में प्रकाशित टिप्पणी)

शनिवार, 15 जून 2013

दोहे : घर तक आती नौकरी, दफ्तर तक घर रोज़

ऊँची कुर्सी पर यहाँ, दिखते छोटे लोग।
ऊँचे-ऊँचे काम का, करते रहते ढोंग।।

छोटी-छोटी कुर्सियां, देती हैं बलिदान।
तब ऊँची को जगत में, मिलता है सम्मान।।

एक साल के बाद फिर, मालिक हुआ प्रसन्न।
बड़े शान से बांटता, चुटकी भरकर अन्न।।

मालिक चक्की की तरह, दाना है मज़दूर।
स्वाद बढ़ाने के लिए, पीसे है भरपूर।।

हाथी घूमे शहर में, वन में मोटर-कार।
दिखता दोनों ओर है, जमकर हाहाकार।।

पति अपने इस राष्ट्र के, आये थे इंदौर।
दंपति सारे शहर के, ढूढ रहे थे ठौर।।

लपक-गरजकर आ गई, मेघों की बारात।
घर के बाहर देखिए, हैं कैसे हालात।।

तेज़ तपिश के बाद अब, बूंदों का त्यौहार।
पेड़ मांगने लग गए, बादल से अधिकार।।

घर तक आती नौकरी. दफ्तर तक घर रोज़। 
एक - दूसरे में करें, दोनों अपनी खोज।।

पानी बरसे रातभर, दिन में बरसे आग।
धरती छेड़े किस तरह, अपना जीवन राग।।

शब्द-शब्द तलवार है, शब्द-शब्द बाज़ार।
कैसे- कैसे रूप में, सजता है अखबार।।

क्रिकेट जिसे हम मानते, नए समय का धर्म।
साथ उसी के हो रहा, सामूहिक दुष्कर्म।।

नदी हमारे गाँव की, जब तक पानीदार।
जीवन के जनतंत्र में, साँसों की सरकार।।

धुआं अगर देने लगा, इस जीवन को स्वाद।
फिर काया का राख में, होना है अनुवाद।।

कुदरत की चौपाल पर, जीवन का सत्संग।
जन्मे जिस भी कोख से, बचपन मस्त मलंग।।

यहाँ ज़िंदगी हर क़दम, खोले नए किवाड़।
देख जड़ों की जिजीविषा, टूटे कई पहाड़।

सूरज देखो कर रहा, कैसा नंगा नाच।
घर के भीतर आ रही, भट्टी जैसी आंच।।

सबका अपना रास्ता, सबकी अपनी रेल।
प्लेटफार्म पर ही करो, थोड़ा-थोड़ा मेल।।


-ओम द्विवेदी