बुधवार, 28 दिसंबर 2011

सौ सालों का गान

यूं तो जनता की जुबान पर सैकड़ों कविताओं की उम्र सौ से ऊपर है, कई कविताएं ऐसी हैं जो लोकमानस में सालों से एकसाथ गाई जाती हैं, कई गीत ऐसे हैं जिन्हें गाकर हम वर्षों से जीवन के अपने संस्कार पूरे करते हैं, कई छंद ऐसे हैं जो हजारों सालों से हमारे जीवन का संगीत हैं, लेकिन रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा वह गीत जो राष्ट्रगान बना उन सबमें कुछ खास है। वह जन गण मन की भावना के साथ हिंदुस्तान की एकता और उसके स्वाभिमान का भी गीत है। टैगोर की लेखनी से निकला वह ऐसा मंत्र है, जिसे सौ वर्षों तक गा-गाकर इस देश की जनता ने सिद्घ किया है। यह अनेकता में एकता का गाया जाने वाले भारतीय राग है, जिसमें केवल देश के भूगोल का वर्णन ही नहीं है, बल्कि जन गण के मंगल की एक निश्छल कामना भी है। यह एक ऐसा गीत है, जिसे सारा देश जाति, धर्म, रंग-रूप भूलकर एकसाथ गाता है। केवल गाता है, बल्कि गाते हुए उसका रोम-रोम रोमांचित और पुलकित होता है।

आज से सौ साल पहले गुरुदेव ने जब इस गीत को लिखा होगा तब उनके मन में इस बात का जरा भी ख्याल नहीं रहा होगा कि आजादी के बाद वह राष्ट्रगान बनेगा, २७ दिसंबर १९११ को कांग्रेस के अधिवेशन में जब यह गीत गाया गया, तब भी इसके राष्ट्रगान बनने का अनुमान नहीं रहा होगा। लेकिन अपनी बुनावट, सरसता, छंद योजना और राष्ट्रीय भावना का संपूर्णता से नेतृत्व करने के कारण यह गीत राष्ट्रगान बना। २४ जनवरी १९५० को संविधान सभा ने इसे अपनाकर देश की भावना को स्वीकार किया। गुरुदेव कवि, नाटककार, चित्रकार और कलाकार के साथ खुद बड़े संगीतकार भी थे। उनके जीवित रहते ही रंवींद्र संगीत की ख्याति केवल बंगाल में थी, वरन पूरे देश में थी। इसके बाद भी अपने गीत को कंपोज करने का दुराग्रह उन्होंने नहीं किया। इस गीत की धुन रामसिंह ठाकुर ने बनाई। बांग्ला में लिखे जाने के बाद भी यह हिंदी और हिंदुस्तान का कंठ बना। १९१३ में नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद वे पूरी दुनिया में साहित्य शिरोमणि बन गए।

इस गीत के साथ सबसे बड़ा विवाद नत्थी है कि यह विदेशी सम्राट की स्तुति में लिखा गया था। २८ दिसंबर १९११ के ' इंगलिश मैन' और 'अमृत बाजार पत्रिका' (कलकत्ता) इस गीत को इसी रूप में प्रस्तुत किया गया। मदनलाल वर्मा 'क्रांत' ने 'स्वाधीनता संग्राम के क्रांतिकारी साहित्य का इतिहास' भाग -एक में लिखा-''भारत के इतिहास में १९११ का साल राजनीतिक दृष्टि से सभी के लिए हर्ष का विषय था, क्योंकि इसी वर्ष इंग्लैंड से जार्ज पंचम हिंदुस्तान आए थे। बंग-भंग का निर्णय रद्द हुआ था, जिसके कारण भारतीयों में अंग्रजों के न्याय के प्रति विश्वास पैदा हुआ। साहित्यकार भी इससे अछूते नहीं रहे। बद्रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' ने जार्ज की स्तुति में 'सौभाग्य समागम', अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने 'शुभ स्वागत ', श्रीधर पाठक ने 'श्री जार्ज वंदना' तथा नाथूराम शर्मा 'शंकर' ने 'महेंद्र मंगलाष्टक' जैसी हिंदी में उत्कृष्ठ भक्तिभाव की रचनाएं लिखकर राजभक्ति प्रदर्शित की थी। फिर भला रविन्द्रनाथ ठाकुर कैसे पीछ रहते! उन्होंने १९११ में 'भारत भाग्य विधाता' गीत की रचना की। बाद में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 'सर' की उपाधि दी। यह अलग बात है कि १९१९ में जलियावाला बाग कांड से दुखी होकर उन्होंने यह उपाधि वापस कर दी।''

रवींद्रनाथ पर लगे इस आरोप का जवाब महान साहित्यकार और शांति निकेतन में हिंदी पढ़ाने वाले आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बड़ी दृढता से दिया था-''वस्तुतः यह गाना दिल्ली दरबार में नहीं, बल्कि सन १९११ में कलकत्ते वाले अधिवेशन में गाया था। सन १९१४ . में जान मुरे ने 'दि हिस्टोरिकल रिकॉर्ड आफ इम्पीरियल विजिट टू इंडिया १९११' नाम से दिल्ली दरबार का एक अत्यंत विशद विवरण प्रकाशित किया था उसमें इस गान की कहीं चर्चा नहीं है। सन १९१४ में रवींद्रनाथ की कीर्ति समूचे विश्व में फैल गई थी। अगर यह गीत दिल्ली दरबार में गाया गया होता तो अंग्रेज प्रशासन ने अवश्य इस गीत का उल्लेख किया होता, क्योंकि इस पुस्तिका का प्रधान उद्देश्य प्रचार ही था। असल में १९११ के कांगे्रस के मॉडरेट नेता चाहते थे कि सम्राट दंपति की विरुदावलि कांग्रेस मंच से उच्चारित हो। उन्होंने इस आशय की प्रार्थना भी रवींद्रनाथ से की थी, लेकिन उन्होंने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। प्रस्ताव पास हो जाने के बाद एक हिंदी गान बंगाली बालक-बालिकाओं ने गाया था। यही गान सम्राट की स्तुति में था।'' १९३७ में रवींद्रनाथ ने अपनी चुप्पी तोड़ी और कहा कि भारत भाग्य विधाता सर्वशक्तिमान ईश्वर है।

राष्ट्रगान का विवाद कई बार राजनीतिक और धार्मिक कारणों से भी चर्चा में रहा। इसमें राष्ट्र की वंदना को मूर्तिपूजा के रूप में देखा गया और यह तर्क दिया गया कि इससे उनकी धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं। पक्ष और विपक्ष में बहसे होती रहीं। कुछ मामले न्यायालय तक भी पहुंचे। साहित्यिक, राजनीतिक और धार्मिक विवादों से इतर अलग एक गीत अगर सौ सालों से जन-मन को स्पंदित और देशभक्ति से ओत-प्रोत कर रहा है तो यह उसकी ताकत का ही सुफल है। जिसे गाते हुए सिर सम्मान से ऊंचा हो जाता है, वह हमारे गौरव का प्रतीक है। सौ साल की इसकी उम्र हजारों और लाखों सालों में तब्दील हो।

-ओम द्विवेदी

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

मौत से भी करवाई जमकर रिहर्सल

हिंदी रंगमंच की धड़कन ठहर गई। अभिनेताओं को पहचानने और तराशने वाला जौहरी अपनी काया से स्वतंत्र हो गया। मंच पर पात्रों को जीवंत करने वाला महान रंगकर्मी, लेखनी से नए चरित्रों को गढ़ने वाला सर्जक, अपनी सक्रियता से पचास साल तक रंगमंच को नए तेवर और नई ऊर्जा देने वाला युगपुरुष दुनिया के रंगमंच से विदा हो गया। हिंदी नाटकों और हिंदी फिल्मों को प्राण सौंपने वाला कलाकार और लेखक प्राणहीन हो गया। उनके गढ़े गए सारे पात्र अनाथ हो गए। जैसे उनकी लेखनी से निकले शब्दों से किसी ने अर्थ खींच लिया। जो पुरस्कार पं. सत्यदेव दुबे को पाकर गर्व महसूस करते थे, उन पुरस्कारों की आंखें अश्रुपूरित हैं। सभागार में सन्नाटा है। अस्पताल में पिछले कई महीने से कोमा में रहकर जिस मौत की रिहर्सल कर रहे थे, उसका शो भी कर दिया पं. सत्यदेव दुबे ने। ठीक किसी नाटक की तरह।

मध्यप्रदेश (तब छत्तीसगढ़ नहीं था) के बिलासपुर में जन्मे (१९३६) पं. दुबे क्रिकेटर बनने का ख्वाब लिए मुंबई पहुह्णचे थे और इब्राहिम अल्काजी के 'थियेटर यूनिट' में रहते हुए महान नाट् निर्देशक बने। हाथ में बल्ला और गेंद पकड़ने की बजाय उन्होंने समाज में बिखरे चरित्रों को पकड़ना और उन्हें जीवंत करना शुरू कर दिया। सत्यदेव दुबे ने १९५६ बीस साल की उम्र में नाटकों का निर्देशन शुरू किया। इब्राहिम अल्काजी राष्ट्रीय नाट् विद्यालय के निदेशक बनकर दिल्ली चले गए और मुंबई में दुबेजी ने 'थियेटर यूनिट' संभाला। एक के बाद एक बेहतरीन नाटकों की प्रस्तुति शुरू हो गई। उन्होंने जिन नाटकों को निर्देशन के लिए चुना वे उस समय के सबसे कठिन और चुनौती पूर्ण नाटक थे। गिरीश कर्नाड के नाटक 'ययाति' और 'हयवदन', बादल सरकार के नाटक 'एवं इंद्रजीत' और 'पगला घोड़ा', चंद्रशेखर का 'और तोता बोला', मोहन राकेश का 'आधे-अधूरे' और विजय तेंदुल्कर का 'खामोश अदालत जारी है' नाटक खेलकर उन्होंने जहां एक ओर हिंदी नाटकों की सीमा को अन्य भारतीय भाषाओं की सरहदों तक पहुंचाया, वहीं दूसरी ओर बेहद कल्पनाशील और सशक्त निर्देशक होने का परिचय भी दिया। धर्मवीर भारती के 'अंधायुग' को उन्होंने पूरी काव्य संवेदनाओं के साथ मंच पर प्राणवंत किया। पं. वसंत देव, धर्मवीर भारती और भवानी प्रसाद मिश्र जैसे लेखकों और कवियों की संगत में उन्होंने अपने आपको इस तरह संवारा कि रंगमंच को एक नई दृष्टि मिल सकी।

साठ से अस्सी के दशक में हिंदी थिएटर में पं. सत्यदेव दुबे की तूती बोलती थी। हिंदी फिल्मों का आदमकद अभिनेता अमरीश पुरी भी अभिनय के गुर सीखने के लिए उनके समक्ष पूरी विनम्रता से खड़ा रहता था। उन्होंने हिंदी थिएटर की रगों में दौड़ने वाले लहू को रफ्तार तो दी ही, हिंदी फिल्मों को भी अपनी कलम की ऊर्जा और रचनात्मकता प्रदान की। अंकुर, निशांत, भूमिका, जुनून, कलयुग, आक्रोश, विजेता मंडी जैसी फिल्मों के लिए संवाद और स्क्रीनप्ले लिखे। १९७८ में श्याम बेनेगल की फिल्म 'भूमिका' में स्क्रीन प्ले लिए नेशनल फिल्म अवार्ड मिला तो १९८० में 'जुनून' में संवाद लेखन के लिए फिल्म फेयर। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी उन्हें प्राप्त हुआ। रंगमंच में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने इसी वर्ष उन्हें पद्मभूषण से नवाजा।

मुंबई में सशक्त मराठी थिएटर के बीच रहते हुए उन्होंने उससे ईष्या करने की बजाय, उससे सीखा और उसमें अपना हर संभव योगदान दिया। विजय तेंदुल्कर के नाटक पर आधारित 'शांतता कोर्ट चालू आहे' फीचर फिल्म बनाकर उन्होंने मराठी नाटककारों और मराठी दर्शक दोनों का कर्ज उतारा। रंगमंच से जुड़े जो लोग पं. दुबे को जानते हैं वे उनके रंगमंच के पागलपन और उनकी सनक को भी बेहतर तरीके से पहचानते हैं। रिहर्सल के दौरान बात-बात पर उखड़ जाना, अभिनेता से बौद्घिक और मानसिक रूप से उन्हीं की तरह परिपक्व होने की अपेक्षा करना तथा समय पर रिहर्सल के लिए पहुंचना उनकी आदत में था। संभवतः जीवनभर अकेले रहने के कारण उनके भीतर उद्विग्नता और जल्दबाजी भर गई थी। सच तो यह है कि वे अभिनेता को इतना सक्षम और सुदृढ़ बनाना चाहते थे कि कोई भी थिएटर को दोयम दर्जे का काम कह सके। रंगमंच का शिक्षक, अभिनय का गुरु और जीवन का योद्घा चला गया। पृथ्वी थिएटर सहित हिंदी का तमाम रंगमच भविष्य में जब भी कभी पं. सत्यदेव दुबे को याद करेगा तो सिसकिया जरूर भरेगा। जिन अभिनेताओं ने उनके साथ काम किया है, वे अब जीवनभर उनके जैसा गुरु नहीं खोज पाएंगे और जिन्होंने उनके साथ काम नहीं किया है, वे इस बात का पश्चाताप करेंगे कि उन्हें पं. दुबे क्यों नहीं मिले?

ओम द्विवेदी