रविवार, 27 मार्च 2011

हिंदी रंगकर्म की विडम्बनाएं

आज विश्व रंगमंच दिवस है, याद आया कि कभी अपने भीतर भी कलाकार हुआ करता था, कभी अपने सपने में भी नाटकों के किरदार चला करते थे, कभी राते रिहर्सल में कटती थीं और सभागार में बजने वाली तालियां महीनों ऊर्जावान रहने की प्रेरणा देती थीं। उन्हीं दिनों को याद करके ही थोड़ा-सा सोचा और थोड़ा-सा लिखा। शायद लिख-लिखकर ही फिर से जाग जाएं। -ब्लागर

हिंदी सिनेमा जितना समृद्घ है, हिंदी रंगमंच उतना ही विपन्न। फ़िल्म अभिनेता जितने मालामाल हैं, रंगमंच के कलाकार उतने ही कंगाल। आज़ादी के साठ साल बाद भी न तो उनके लिए कोई सरकारी योजना है और न ही उनके भरण पोषण के लिए कोई इंतज़ाम। परिणाम यह कि हिंदी रंगमंच की ओर रुख करने में भी युवाओं के पांव कंपकंपाते हैं। अगर वे हिंदी नाटकों की दुनिया में दाख़िल होते भी हैं तो इसलिए कि उन्हें देर-सबेर बॉलीवुड का टिकट चाहिए होता है। रंगममंच के लिए बड़े-बड़े कलाकारों का समर्पण अंततः पेट के आगे आत्म समर्पण कर देता है। परिणाम यह कि हिंदी रंगकर्म आज भी शौक़िया है और ज़्यादातर शौक़िया रंगकर्मियों के हाथ में ज़िंदा भी है।

वह निकट भविष्य में पूरी तरह व्यावसायिक हो पाएगा, इसमें संदेह है। इसके पीछे तर्कों की लंबी फ़ेहरिस्त है। नाटकों के लिए हर तरफ उपेक्षा भाव है। ज़्यादातर उत्तर भारत के पारिवारिक संस्कारों में रंगकर्मियों को आज भी 'भाड़' ही माना जाता है। जिनमें सीखने की जिज्ञासा है और जो रंगमंच को जीवन की मुख्यधारा में शामिल करना चाहते हैं, उनके लिए बेहतर प्रशिक्षण नहीं है। राष्ट्रीय नाट्‌य विद्याल नई दिल्ली और भारतेंदु नाट्‌य अकादमी लखनऊ को छोड़ दिया जाए तो कोई भी सरकारी संस्थान ऐसा नहीं है, जहां रंग प्रतिभा को निखारा और संवारा जाता हो। यहां भी इतनी कम सीटें हैं कि हज़ारों युवक वहां पहुंचने का ख़्वाब ही देखते रह जाते हैं। भोपाल का भारत भवन अब केवल प्रेक्षागृह ही रह गया है। जब तक ऐसे संस्थानों का विकेन्द्रीकरण नहीं होगा, तब तक छोटी-छोटी जगहों पर रंग रुचियों का अंकुर छायादार वृक्ष नहीं बनेगा।

नाटकों को मंच पर उतारने के लिए पहली ज़रूरत स्क्रिप्ट की होती है। दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि अच्छे हिंदी नाटक ऊंगलियों पर गिने जाने लायक़ हैं और उन्हें कई-कई बार मंचित किया जा चुका है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, जयशंकर प्रसाद, मोहन राकेश जैसे कुछेक नाटककारों ने मौलिक नाट्‌य लेखन की शुरुआत की, लेकिन यह परंपरा समृद्घ होकर आगे नहीं बढ़ी। मराठी, बंगाली आदि अन्य भारतीय भाषाओं सहित विदेशी भाषाओं के अनुदित नाटकों के ज़रिए हिंदी रंगमंच संघर्ष अवश्य करता रहा है, लेकिन अपनी जड़ों से पानी लेकर वृक्ष के बड़े होने का संतोष ही कुछ और है। जो नाटककार लोक से जुड़कर आगे बढ़े, उनके यहां यह आनंद स्पष्ट दिखाई देता है। हबीब तनवीर का नया थियेटर इसका उदाहरण है। हबीबजी ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के नितांत गंवई कलाकारों के साथ मिलकर हिंदी थियेटर को सात समंदर पार तक स्थापित किया। रंग विदूषक के जरिए बंसी कौल ने भी नाटकों में एक नई स्थापना दी। इन दोनों ने अभिनेताओं की अभिनय क्षमता के हिसाब से स्क्रिप्ट भी लिखी। भोपाल में अलखनंदन भी यह काम निरंतर कर रहे हैं। लखनऊ में जावेद अख्तर, गया में संजय सहाय, जबलपुर में अरुण पांडेय, दिल्ली में अरविंद गौड़ नाट्‌य लेखन के साथ उनके मंचन में संलग्न हैं, लेकिन यह कोशिश इतनी पर्याप्त नहीं कि हिंदी रंगमंच में क्रांतिकारी परिवर्तन हो सके। इनके कामों को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिभाशाली युवा रंगकर्मी भी नहीं दिख रहे।

उपेक्षा का आलम यह है कि हिंदी क्षेत्र में एक शहर में एक सभागार भी ऐसा नहीं है जो विशुद्घ रूप से नाट्‌यकर्म के लिए हो। जो सभागार थोड़े से साधन संपन्न हैं, उनकी स्थिति इंदौर के रवीन्द्र नाट्‌य गृह की तरह है। उनका एक दिन का किराया ही इतना महंगा है कि कलाकार बिक जाए।शादी-बारात और सरकारी बैठकों के लिए बने सभागारों में ही जुगाड़कर रंगकर्मी नाटक करते हैं। इससे प्रस्तुति में वह प्रभाव पैदा नहीं होता जो व्यावसायिक रंगकर्म में झलकता है। दिल्ली में हिंदी रंगकर्म इसलिए भी केंद्रित है क्योंकि वहां एनएसडी के भारी-भरकम ख़र्चे पर नाटक होते हैं और तमाम नाट्‌य समारोहों में अन्य भारतीय भाषाओं के अलावा विदेशी भाषाओं के नाटकों की भव्यता और दिव्यता दिखाई देती है। प्रेक्षागृह से लेकर रंगमंच की तमाम अन्य सहायक सामग्रियां भी वहां प्रचुर मात्रा में मौजूद हैं।

हिंदी रंगमंच को विडम्बनापूर्ण स्थिति में पहुंचाने के लिए वे कलाकार भी कम दोषी नहीं हैं, जो हिंदी नाटकों का दाना-पानी खाकर मुम्बइया फिल्मों की सेवा में लग गए। राष्ट्रीय नाट्‌य विद्यालय में पढ़ते हुए उन्होंने क़समे में तो नाटकों की सेवा की खाईं, लेकिन पांव सिनेमा के पखारने के लगे। इस समय अकेले मध्यप्रदेश के ही इतने रंगमंच कलाकार फ़िल्मों में ठीक-ठाक हैसियत रहते हैं कि वे चाहें तो एक साझा कोशिश से प्रदेश के रंगमंच में प्राण फूंक सकते हैं। रघुवीर यादव, आशुतोष राणा, गोविंद नामदेव, मुकेश तिवारी, विजयेन्द्र घाटगे, स्वानंद किरकिरे आदि कोशिश करें तो प्रदेश में रंगमंच नए करवट ले सकता है। यही भूमिका पूरे हिंदी क्षेत्र के लिए ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, अनुपम खेर, मनोज वाजपेयी, सुधीर मिश्रा और कुछ हद तक अमिताभ बच्चन भी निभा सकते हैं। स्वयं को पुनर्जीवित करने के लिए नाटक करने की बजाय इन्हें हिंदी रंगमंच को पुनर्जीवित करने के लिए सुदीर्घ योजना बनानी चाहिए। अगर ये लोग हिंदी नाटकों के लिए आगे आएंगे तो सरकारें भी जागेंगी और हिंदी नाटकों के दर्शकों के मन में जो हीन भावना है, वह भी ख़त्म होगी। सिनेमा के समानान्तर नाटकों का ग्लैमर तैयार होगा।

हिंदी में नाटकों के प्रति अगर उपेक्षाभाव ख़त्म नहीं होता, उनके प्रशिक्षण की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होती, हिंदी में रंगमंच से जुड़े नए प्रयोग करने वाले नाट्‌य लेखक तैयार नहीं होते, रंगमंच में रा़ेजगार की स्तरीय व्यवस्था नहीं होती, कलाकारों के साथ दर्शकों में भी व्यावसायिक भावना नहीं आती तो हिंदी रंगमंच असहाय और बेचारा दिखाई देता रहेगा। दिनभर के दीगर कामों के बाद शाम को फुरसत के क्षणों में जो रंगकर्म छोटे शहरों में किया जा रहा है, उससे भी अगर नाटकों की दुनिया रोशन है तो यह कम बड़ी बात नहीं है।
-ओम द्विवेदी

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

कहानियाँ गुमसुम, कविताएँ उदास

२५ मार्च को सुबह-सुबह युवा कवि और कहानीकार शशिभूषण का मोबाइल पर संदेश आया कि-'' हम सबके कमला प्रसादजी सुबह ६ बजे नहीं रहे।'' कुछ देर बाद यही संदेश युवा कवि हनुमंत के मोबाइल से आया। दोपहर में योगेन्द्र ने कमलाजी के बारे में पूछा। कुछ सूझ नहीं रहा था कि किसी को क्या उत्तर दूँ और उनके बारे में क्या बात करूँ । एकलव्य की ही तरह तकरीबन १८ वर्ष तक मैं उनका शिष्य रहा। तथाकथित अर्जुनों और युधिष्ठिरों ने नहीं चाहा, वरना मैं भी अंतिम समय में उनसे मिल सकता था। जब तक उनकी बीमारी के बारे में पता चलता तब तक वे कोमा में एम्स पहुँच चुके थे। खैर! उनके आशीर्वाद ने मुझे हमेशा प्रेरित किया है। करता रहेगा। -ब्लागर


कविताओं की आँखों से आंसुओं का सोता फूट पड़ा हैं, कहानियाँ गुमसुम-सी हैं, उपन्यास उदास। शब्द थके-हारे से, जैसे किसी ने उनसे अर्थ निचोड़ लिया हो।...जैसे उनका रहनुमा चला गया हो। 'वसुधा' बेहाल है। कवियों और लेखकों की जमात स्तब्ध और हैरान। हरिशंकर परसाई का 'कमांडर', उन्हीं के पास पहुँच गया है। आलोचना का एक अध्याय ख़त्म हो गया है। ज़िंदगी के बेहद मज़बूत क़िले में मौत की काली बिल्ली कूद पड़ी है। व्यवस्था के कैंसर का इलाज करते-करते एक सुखेन वैद्य काया के कैंसर से हार गया है। कमला प्रसाद नाम के फ़ौलाद को मृत्यु ने तोड़ दिया है। अब किसी भी साहित्यिक आयोजन में उनकी ऊर्जावान उपस्थिति देखने को नहीं मिलेगी। अब नए लेखकों को कविताएँ और कहानियाँ लिखने का हुनर कौन बताएगा। रचना शिविर के लिए क़स्बों-क़स्बों और शहरों-शहरों कौन दौड़ा-दौड़ा जाएगा। अब दोस्त किसे इज्ज़त देंगे, दुश्मन किसे गालियाँ देंगे। अब कौन तपाक से फोन उठाएगा और पूछेगा कि आजकल क्या लिख-पढ़ रहे हो। कौन बार-बार समझाएगा कि अच्छा लेखक होने के लिए अच्छा इंसान होना ज़रूरी है। कौन कहेगा कि पार्टनर अपनी प्रतिबद्घता तय करो। प्रगतिशील लेखक संघ को संजीवनी देने के लिए कौन अपना रात-दिन एक करेगा। कमांडर! अभी तो तुम्हारे सिपाहियों ने युद्घ का ककहरा भी नहीं सीखा था और तुम मोर्चा छोड़कर चल दिए।

मेरे जैसे बहुतेरे लोगों ने उन्हें जब भी देखा चलते देखा, उनके बारे में जब भी सुना चलते सुना। कभी किसी आयोजन के लिए तो कभी किसी संघर्ष के लिए। न उनकी चाल में दिखावट और थकावट दिखी न उनके हाल में। विश्वविद्यालय और कला परिषद जैसी महत्वपूर्ण जगहों पर सरकारी फ़ाइलों के बीच रहे, लेकिन उनका व्यक्तित्व फ़ाइलों का ग़ुलाम नहीं हुआ, उनमें नत्थी नहीं हुआ। उनके पास से जो फ़ाइलें आईं वे रचनात्मकता की कोख बन गईं और उन्होंने किसी जनपक्षधर आयोजन को जन्म दिया। नब्बे के दशक में वे रीवा विश्वविद्यालय में हिंदी के विभागाध्यक्ष थे। जब मेरा उनसे परिचय हुआ तब वे केशव शोध अनुसंधान केंद्र को ओरछा जाने से रोकने के लिए एक-एक रुपए का चंदा कर रहे थे और अदालत की लड़ाई लड़ रहे थे। कालांतर में वे उस लड़ाई में आधा ही सही सफल हुए। उनकी उपस्थिति से रीवा विवि हिंदी प्रेमियों की चौपाल बन गया। हर हफ्ते किसी नामचीन साहित्यकार से मिलने और उन्हें सुनने का मौका मिलने लगा। रशियन विभाग में भीष्म साहनी का व्याख्यान चल रहा है तो हिंदी विभाग में काशीनाथ सिंह छात्रों से रूबरू हो रहे हैं। नागार्जुन और त्रिलोचन अपनी कविताई पर बोल रहे हैं, राजेन्द्र यादव कहानियों पर तो नामवर सिंह हिंदी आलोचना पर अपनी बात कह रहे हैं। खगेन्द्र ठाकुर, सत्यप्रकाश मिश्र, अजय तिवारी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, प्रभाष जोशी जब चाहे तब चले आ रहे हैं। कभी राजेश जोशी, कुमार अंबुज और हरिओम राजोरिया कविताएँ सुना रहे हैं तो कभी देवास से नईम गीत सुनाने चले आ रहे हैं। कभी बद्रीनारायण की कविता का नया स्वाद मिल रहा है तो कभी सुदीप बनर्जी, चंद्रकांत देवताले और लीलाधर मंडलोई जैसे वरिष्ठ कवि युवाओं का मार्गदर्शन कर रहे हैं। शिवमंगल सिंह सुमन को भी मैंने पहली बार विवि के शंभूनाथ सभागार में ही सुना।

उसी दौर में रीवा जैसी छोटी जगह में हबीब तनवीर ने नाटकों पर ४५ दिन की वर्कशाप की और 'देख रहे हैं नयन' जैसे बड़े नाटक को स्थानीय कलाकारों के साथ किया। अलखनंदन, आलोक चटर्जी ने भी वर्कशाप की। राष्ट्रीय नाट्‌य विद्यालय का शिविर लगा। भारतीय जन नाट्‌य संघ (इप्टा) के माध्यम से एक रंग आंदोलन रीवा में खड़ा हो गया। कमलाजी कभी खड़े होकर नुक्कड़ नाटक के लिए ताली बजाते मिल जाते तो कभी रिहर्सल देखते हुए। कवियों और कहानीकारों की तरह कई रंगकर्मी भी उस छोटी जगह से निकले। इसमें एक बड़ा योगदान कमलाजी का था। भोपाल के भारत भवन की तर्ज़ पर वे रीवा में एक सांस्कृतिक केंद्र विकसित करना चाहते थे। अर्जुनसिंह के मानव संसाधन विकास मंत्री रहते उन्होंने इस स्वप्न को तक़रीबन साकार कर लिया था, लेकिन बाद में राजनीतिक संकल्प शक्ति के अभाव में वह स्वप्न स्वप्न ही रह गया। विवि में रहते हुए ही उन्होंने 'विन्ध्य भारती' के संग्रहणीय अंकों का संपादन किया। उन्हीं के रहते 'वसुधा' रीवा से प्रकाशित होना शुरू हुई और बाद में उनके भोपाल आने के बाद भोपाल आ गई। कला परिषद भोपाल में उप सचिव रहते हुए 'कलावार्ता' को एक नई ऊह्णचाई उन्होंने दी और लोकोत्सवों की एक परंपरा शुरू की। यह उनकी राजनीतिक प्रतिबद्घता ही थी कि प्रदेश में भाजपा की सरकार आने के बाद उन्होंने उप सचिव की कुर्सी तत्काल छोड़ दी।

प्रगतिशील लेखक संघ को खड़ा करने और उसे लगातार सक्रिय बनाए रखने में कमलाजी के योगदान को उनके घोर निंदक भी नकार नहीं सकते। उनकी सांगठनिक क्षमता की मान्यता मैंने प्रलेस और इप्टा के कई राष्ट्रीय अधिवेशनों में देखी है। हालाँकि उनके ऊपर यह आरोप लगते रहे हैं कि वे सेवकों का ही भला करते हैं, लेकिन मैंने उनको जितना देखा और समझा है तो वे सभी का भला करते ही दिखे हैं। जो चालाक चेले थे उन्होंने केवल उनका दोहन किया और उनके संबधों का अपने कॅरियर के लिए इस्तेमाल किया। कमाल यह था कि संगठन के लिए कमलाजी बिना किसी तर्क-वितर्क के अपना दोहन करवाते रहते थे। नए रचनाकारों को उन्होंने जितना अधिक रेखांकित किया और सतत मंच दिया, शायद ही किसी और ने किया हो। अपने अंतिम दिनों तक वे हम जैसे बिलकुल अनगढ़ रचनाकारों से लिखने के लिए कहते रहते थे। अर्जुनसिंह से उनकी मित्रता जग जाहिर थी, वे अपने समय के कद्दावर नेता थे, उस समय भी कमलाजी जब उनसे बात करते थे तो उतना ही झुकते थे, जितने में विनम्रता दिखे, चापलूसी नहीं।

व्यक्तिगत रूप से वे अपने मित्रों और दोस्त शिष्यों को कितना ख़्याल रखते थे, इसके लिए मेरे पास बेहद निजी उदाहरण हैं। १९९६ में जब मेरे पिताजी की मृत्यु हुई और मैं गाँव में था। उस समय तक गाँव में दूरभाष और मोबाइल की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। कमलाजी को पिताजी की मृत्यु के बारे में पता चला तो उन्होंने बहुत ही सांत्वनाभरा पोस्टकार्ड लिखा। यह भी लिखा कि टूटना मत मैं अभी ज़िंदा हूँ। तब से वे मुझे हमेशा पिता की तरह ही लगे। पिता की तरह ही उनसे प्रेम भी करता था और नाराज भी था।

नामवर सिंह की तरह वे बड़े आलोचक भले न रहे हों, लेकिन वक्ता उनकी टक्कर के थे। समझ उनसे उन्नीस नहीं थी। संगठन खड़ा करने और लोगों को जोड़ने में तो वे इक्कीस नहीं पचास थे। मुझे लगता है कि वे स्वर्गलोक जाकर यमराज को भी समझा रहे होंगे कि तू गरीबों को बहुत मारता है और अमीर भ्रष्टों को बख्श देता है। जरा समानता का व्यवहार कर। तू भी अच्छा इंसान बन। कमलाजी वहाँ पहुँचते ही परसाई और मुक्तिबोध से मिल आए होंगे। नागार्जुन, सुदीप बेनर्जी, हबीब तनवीर, भीष्म साहनी और नईम आदि के साथ कविता, कहानी और रंगमंच के नए अंदाज़ पर बात करने लग गए होंगे। हो न हो जाते ही वहाँ कोई रचना शिविर लगा बैठे हों। नर्क को स्वर्ग बनाने का कोई आंदोलन छेड़ दिया हो। वे वहाँ कुछ भी कर रहे हों, भी कर रहे हों, यहाँ तो सूनापन छोड़ गए हैं। विनम्र श्रद्घांजलि!
-ओम द्विवेदी

सोमवार, 21 मार्च 2011

फागुन सिर पर हाथ रख, बैठा मिला उदास

मेरे इन दोहों को ठीक होली के दिन भाई शशिभूषण ने अपने ब्लॉग हमारी आवाज पर पोस्ट किया, पढ़कर लगा इन्हें मीठी मिर्ची पर भी होना चाहिए। यहाँ पढ़ें, वहां पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ-http://hamariaavaaz.blogspot.com

सूरज ने जबसे किया, फागुन को उद्दंड।
पानी
-पानी लाज से, हुई बेचारी ठंड॥

गेर खेलने सड़क पर, निकले सातों रंग।
फागुन
हंसता देखकर, चांद संवारे अंग॥

आंखों-आखों सज गया, फागुन का बाजार।

दिल वाले करने लगे, सपनों का व्यापार

सपने सब टेसू हुए, केसर-केसर रूप।

अंग-अग फागुन हुआ, बदन उलीचे धूप॥


ढोल, मजीरे, मसखरी, रंग, गीत, सत्कार।

प्रेम पंथ में आज भी, फागुन है त्योहार॥

आंखें प्यासी हो रहीं, तन-मन तपे बुखार।
फागुन के बीमार का, फागुन ही उपचार॥

कली-कली का रूप अब, आंखें रहीं सहेज।
फागुन चुपके से बना, सपनों का रंगरेज॥

बहकी-बहकी-सी लगे, हवा छानकर भंग।
गाल गुलाबी देखकर, बहक रहे हैं रंग॥

अपने कर पाते नहीं, अपनों की पहचान।
रंगों ने जबसे किया, सबको एक समान॥

अचरज करते ही मिले, सारे वैद्य-हकीम।
फागुन से मिलकर गले, मीठी हो गई नीम॥

धरती से आकाश तक, पुख्ता सभी प्रबंध।
तितली ने फिर भी किया, फूलों से संबंध॥

नुक्कड़-नुक्कड़ पर लगी, रंगों की चौपाल।
गाल शिकायत कर रहे, छेड़े हमे गुलाल॥

बहते पानी में नहीं, ठहरे कोई रंग।
ठहरा पानी ही करे, रंगों से सत्संग॥

महंगाई को देखकर, उड़ा रंग का रंग।

फागुन करे गुलाल से, नए तरह की जंग॥

जंगल की परजा सभी, देख-देखकर दंग।
गीदड़ पाता जा रहा, शेर सरीखा रंग॥

रंग तोड़ने लग गए, फागुन का कानून।
लाल-लाल पानी हुआ, काला-काला खून॥

सपने, आंखें, भूख सब, हैं बाजार अधीन।
रंग, अबीर, गुलाल से, कैसे हों रंगीन॥

राजा-परजा साथ में, मिलकर खेलें फाग।
परजा डूबी प्रेम में, राजा करता स्वांग॥

दिल्ली में ही कैद हैं, सुख के सभी वसंत।
जो कुछ आया यहां, लूट गए श्रीमंत।

सभी सुखों के वाक्य में, दुःख का एक हलंत।
जीवन के इस चक्र में, हरदम कहां वसंत॥

चेहरे पर झुर्री दिखी, हो गए बाल सफेद।
तु वसंत की उम्र से, व्यक्त कर रही खेद॥

रंगों को होने लगा, मजहब का अहसास।
फागुन सिर पर हाथ रख, बैठा मिला उदास॥

गुपचुप किया विपक्ष ने, राजा से संवाद।

रही सलामत होलिका, भस्म हुआ प्रहलाद॥

वेदपाठ भगवा करे, बोले हरा अजान।
फगुआ गाए प्रेम से, मिलकर हिंदुस्तान॥

रंगों से है कर रहा, फागुन यह अनुरोध।
आपस में करना नहीं, आगे कभी विरोध॥