शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

दीप आज भी लड़ता है संग्राम

जिस देहरी पर दीप रखने के लिए
तरसते रहते थे महीनों
वह छूटी जा रही है धीरे-धीरे

जिस दीये की बाती बनाने के लिए
लड़ते थे सारे भाई-बहन
उसने भी बदल ली है अपनी शक्ल

जिन नए कपड़ों के लिए
नाराज हो जाते थे पिता से
उन्हें बेटे को दिलाने में अब फूल जाता है दम

जिन सपनों को देखकर
आखें रोज़ मनाती थीं दिवाली
आज वे हो रहे हैं अमावस से भी काले

पहले हम दिवाली मनाते थे
अब दिवाली हमें मनाती है
पहले हम ज़िंदगी जीते थे
अब ज़िंदगी हमें जीती है।

लेकिन दीप कल भी लड़ता था अंधेरे से संग्राम
आज भी लड़ता है
कल भी लड़ेगा।

दीपावली की शुभकामनाएँ...

-ओम द्विवेदी

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

कुछ रोशन दोहे

झालर, झूमर, दीप सब, सजकर हैं तैयार।
अँधकार के तख्त को, पलटेंगे इस बार॥

अँधियारे की बाढ़ में, चली दीप की नाव।
घर-घर पहुँची रोशनी, रोशन सारा गाँव॥

बंद आँख में रात है, खुली आँख में भोर।
पलकें बनकर पालकी, लेकर चलीं अँजोर॥

उल्लू के संग में बनी, लक्ष्मी की सरकार।
हंस लगाकर टकटकी, देखे बारम्बार॥

लक्ष्मी, दीप, प्रसाद सब, बेच रहा बाजार।
जिसकी मोटी जेब है, उसका है त्योहार॥

देहरी दुल्हन बन गई, दीवारों पर रंग।
सात रंग की रोशनी, बनकर उड़े पतंग॥

मावस ने है रच दिया, यह कैसा षडयंत्र।
कहे रोशनी ठीक है, अँधियारे का तंत्र॥

नई-नई शुभकामना, नए-नए संदेश।
दीवाली लेकर चली, बाँटे सारे देश॥

सूरज जब दीपक बने, हो जाती है रात।
दीपक जब सूरज बने, दिखने लगे प्रभात॥

सूरज ने जबसे किया, जुगुनू के संग घात।
लाद रोशनी पीठ पर, घूमे सारी रात॥

पसरी है संसार पर, जब-जब काली रात।
एक दीप ने ही उसे, बतला दी औकात॥

सोता है संसार जब, बेफिक्री की नींद।
रात पालती कोख में, सूरज की उम्मीद॥

नहीं चलेगा यहाँ पर, अँधियारे का दाँव।
पोर-पोर में रोशनी, यह सूरज का गाँव॥

उँजियारे का है बहुत, मिला-जुला इतिहास।
कुछ आँखों के पास है, कुछ सूरज के पास॥

मावस के हाथों हुई, जब भी रात गुलाम।
दीपक ने तब-तब लड़ा, एक बड़ा संग्राम॥

दीप बाँटता रोशनी, गुरु बाँटे सद्ज्ञान।
जब मावस की रात हो, दोनों एक समान॥

सिंहासन के पास है, सिंहासन का घात।
दीप तले हरदम रहे, एक छोटी-सी रात॥

फाइल-दर-दर फाइल बुझा, लोकतंत्र का दीप।
करे रोशनी आजकल, मंत्री जी की टीप॥

दीवाली ने बाँट दी, थोड़ी-थोड़ी आग।
मावस को गाना पड़ा, खुलकर दीपक राग॥

भूख अमावस की निशा, रोटी रोशन दीप।
आदम की दुनिया करे, दोनों एक समीप॥

अँधकार के राज में, दीपक की हुंकार।
तुझसे लड़ने के लिए, आऊँगा हर बार॥

दिल्ली जैसी हो गई, मावस की हर चाल।
दीपक से सौदा करे, कर दे मालामाल॥

जितना लंबा है यहाँ, मावस का इतिहास।
उतना ही प्राचीन है, दीपक का उल्लास॥

संध्या से ही बंद है, सूरज से संवाद।
अँधियारे का भोर से, दीप करे अनुवाद॥

रातें कलयुग की कथा, दीप कृष्ण का रास।
प्रेम गली में बाँटता, वह दिन-रात उजास॥

आज देखते बन रहा, दीपक का उन्माद।
ज्यों मावस की रात में, हो पूनम का चाँद॥

देहरी से आँगन तलक, दीपक का संसार।
छिपकर चाँद निहारता, धरती का श्रृंगार॥

काली होती जा रही, महँगाई की रात।
भूखे को कैसे मिले, रोटी का परभात॥

-ओम द्विवेदी


नईदुनिया दीपावली विशेषांक-२०१० में प्रकाशित
चित्र - गूगल से साभार

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

मत कर रे तकरार पड़ोसी

मत कर रे तकरार पड़ोसी।
हम दोनों हैं यार पड़ोसी ।


चाँद यहाँ भी वैसा ही है,
जैसा तेरे द्वार पड़ोसी।

एक- दूसरे के दुक्खों में,
रोये कितनी बार पड़ोसी।

अपनी-अपनी रूहों का हम,
करते हैं व्यापार पड़ोसी।

रोटी-बेटी के नातों पर,
मत रख रे अंगार पड़ोसी।

बम का मजहब बरबादी है,
दिल की बोली प्यार पड़ोसी।

हम लड़ते हैं चौराहे पर,
हँसता है संसार पड़ोसी।

आ मिल बैठें पंचायत में,
बन जायें परिवार पड़ोसी।

  • ओम द्विवेदी
(यह ग़ज़ल काफी पहले कही थी, वर्तमान संदर्भों में याद आई। चित्र-गूगल से साभार।)

बुधवार, 29 सितंबर 2010

दिल सबसे बड़ी इबादतगाह

रगों में दौड़ने के पहले लहू यह नहीं पूछता कि तू हिंदू है या मुसलमान, साँसें फेफड़ों से उसका मज़हब नहीं पूछतीं, सपने हिंदू-मुसलमान की आँख देखकर नहीं अँकुरते, आँसू पलकों से उसकी ज़ात पूछकर नहीं लुढ़कते, कोख में पल रहे शिशु की नाल किसी मंदिर-मस्जिद से नहीं जुड़ती। होठों पर हँसी न पंडित से पूछकर आती न मौलवी से, परिंदे मंदिर-मस्जिद की मुडेरों पर बैठने से पहले न राम से इजाज़त लेते न अल्लाह से, सात सुरों के भीतर ही ध्वनित हैं मंत्र और अज़ान। धर्मस्थलों की देहरी देखकर फूलों की ख़ुश्बू नहीं बदलती, सूरज अलग-अलग रोशनी नहीं बाँटता, चाँद दोनों के दरवाज़े अलग-अलग नूर लेकर नहीं आता, हिंदुओं के आदेश से न गंगा पावन होती और न ही मुसलमानों के हुक्म से पाक होता आबे ज़मज़म। इतनी बड़ी दुनिया बनाने वाला अपने लिए कभी भी मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर बनाने के लिए नहीं कहता। समंदर कभी चुल्लू में नहीं समाता, आसमान मुठ्ठी में क़ैद नहीं होता, धरती किसी से छत नहीं माँगती।

खुदा ने धरती बनाई तो हमने उसमें सरहदें खीच दीं, उसने अनंत बनाया तो हमने उसे पूरब-पश्चिम बना दिया, ऊपर वाले ने एक वक़्त बनाया तो हमने उसके चौबीस टुकड़े कर दिए। उसने क़ायनात बनाते हुए आदमी-आदमी में फ़र्क़ नहीं किया, लेकिन हमने ख़ुदा और ख़ुदा में फ़र्क़ कर दिया। उसने आदमी और आदमी के लहू के रंगों में फ़र्क़ नहीं किया, लेकिन आदमी ने उसे अलग-अलग रंगों के चोले पहना दिए। जिन पत्थरों को उसने खाइयों को पाटने के लिए बनाया था, उनसे हमने अपने-अपने ख़ुदाओं की मीनारें खड़ी कर लीं, फिर उनकी सुरक्षा के लिए उन्हें हाथों में उठा लिए। जिसकी अदालत में चीटी से लेकर हाथी तक का और भिखारी से लेकर बादशाह तक का फैसला होता है, हम उसका फैसला करने के लिए अदालतें लगाने लगे। जिसने पेड़ों को हरापन दिया, फूलों को महक दी, नदियों को प्रवाह दिया, हवा को प्राण दिया, आकाश को ऊँचाई और समंदर को गहराई दी...हम उसे इंसाफ़ देने लगे।

अपना क़द बड़ा करने के लिए जो ख़ुदा को छोटा करे, वह कभी उसका बंदा नहीं हो सकता। ईश्वर के नाम पर जो उसकी सबसे अमूल्य कृति मनुष्य को नुकसान पहुँचाए वह कभी उसका भक्त नहीं हो सकता। तुलसी, कबीर, नानक, जायसी, रहीम, बुल्लेशाह, सूफिया आदि ने न तो किसी मंदिर के लिए यात्राएँ की और न किसी मस्जिद के लिए ख़ंज़र उठाए। उन्होंने सारी धरती को ही गोपाल की भूमि कही और सभी आत्माओं को परमात्मा का हिस्सा। राम ने पत्थर को ज़िंदा (अहिल्या) करना सिखाया, ज़िंदा आदमी को पत्थर में तब्दील करना नहीं। किसी भी आत्मा को तकलीफ़ देना परमात्मा के साथ सबसे बड़ा धोखा है। अगर इंसानियत के माथे पर ज़रा भी ख़ून दिखता है तो सारे मौलवियों का शांतिपाठ व्यर्थ है और हमारी प्रार्थनाएँ मुजरिम।

आज अयोध्या विवाद का फैसला होना है, संयोग से आज का दिन गुरु (गुरुवार) का है। उस गुरु का जो हमे अँधेरे से उजाले की ओर ले जात है, मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाता है। आज उस गुरुत्व की भी परीक्षा है। हमारे संस्कारों, इरादों और सभ्यताओं का इम्तहान है। हम इसमें सफल हुए तो इंसान कहलाएँगे और असफल हुए तो हैवान। यहाँ छोटी अदालत की अपील तो बड़ी अदालत में हो जाएगी, लेकिन ऊपर वाले की आख़िरी अदालत में कोई अपील नहीं होती। अपने किए की सज़ा हर हाल में भुगतनी होती है। याद रखें दिल से बड़ी कोई इबादतगाह नहीं होती और मोहब्बत से बड़ा कोई मज़हब नहीं होता।
  • ओम द्विवेदी
(दिल की इस आवाज़ को मैने अख़बार के लिए शब्दों में ढाला था, लेकिन ३० सितंबर के दिन २६ पन्नों के हमारे अख़बार में इतनी जगह नहीं थी कि इसे छापा जा सके। अतः अभिव्यक्ति की आज़ादी का महामंच 'ब्लॉग जिंदाबाद!')

बुधवार, 1 सितंबर 2010

फिर राजाओं के ख़ून से ललकार रहा है कंस


जैसे कारागृह में बंद थे वसुदेव और देवकी, वैसे ही हर रोशनी बंद है अँधेरे में। जैसे उनके हाथ-पाँव जकड़े से बेड़ियों से, सच बंधक बना हुआ है उसी तरह। जैसे कंस अपनी जान बचाने के लिए आमादा था पूरे राज्य का बचपन मार देने पर, उसी तरह हर सत्ता अपनी रक्षा के लिए काट देना चाहती है निरीज जनता का गला। जैसे पूतना कृष्ण को दूध के साथ पिला देना चाहती थी ज़हर, उसी तरह बाज़ार हमें गोदी में बैठाकर करा रहा है स्तनपान। जैसे कालिया नाग ने ज़हरीला कर दिया था यमुना का पानी, वैसे ही हमारे पापों से पट गई हैं नदियाँ। जैसे कौरव पांडवों को नहीं देना चाहते थे अँगुल भर जमीन, भू-माफिया उसी तरह कुंडली मारकर बैठे हैं ग़रीबों की भूमि पर। शकुनी की चाल के समक्ष जैसे पराजित हो गए थे धर्मराज युधिष्ठिर, अपराधियों और गुंडों के समक्ष हार रहा है समय।

निरंतर खींची जा रही है द्रोपदी की चीर, अट्टहास कर रहा है राजदरबार, बेबस भीष्म पीटे जा रहे हैं अपनी छाती, दुर्योधन के रक्त के लिए अभी भी खुले हैं पांचाली के केश, सुदामा अभी भी भूखा है कृष्ण के दरवाज़े पर, कुंती अभी भी अपने बेटों के लिए दर-दर कर रही है न्याय की फरियाद, कर्ण अपनी पहचान के लिए देख रहा है सूरज की ओर, गुरु द्रोण माँगे जा रहे हैं एकलव्य से अँगूठा, अभिमन्यु मारा जा रहा है चक्रव्यूह में, सत्ता की चौसर पर रोज़ लग रहे हैं दाँव और कुरुक्षेत्र में मारी गई १८ अक्षौहिणी सेना की तरह गुमनाम मर रहे हैं सपने और ग़रीब। आज महाभारत से भी कठिन समय है भारत में और तुम्हारा इंतज़ार है पार्थसारथी।

तुम्हारा पांचजन्य खो गया है पूजाघर से, तुम्हारा सुदर्शन चक्र छीन ले गए हैं डकैत, तुम्हारी बांसुरी नीलाम हो गई, तुम्हारा पीतांबर बेच खाया हमने, तुम्हारी गोपियों की आबरू हमारी आँखों के सामने लुटी, जिन गायों को चराकर तुम कान्हा बने उन्हें हमने दूध निचोड़कर सड़कों पर मरने के लिए छोड़ दिया, जो चरवाहे तुम्हारे साथ जंगल में खेला करते थे वे कचरा पेटियों में कचरा बिन रहे हैं, जो तुम्हारे साथ माखन खाया करते थे वे जूठन खा रहे हैं। कान ऐंठकर जिस राजधानी को तुमने उसकी औकात बताई, वह आज हमारे कान खींच रही है। गोपियों और सखाओं का मौन क्रंदन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है परमपुरुष।

जब तुमने पांडवों को युद्घ लड़ने के लिए प्रेरित किया था, जब उन्हें महारूप दिखाकर उनका रथ युद्घस्थल की ओर खींचा था, तब दुश्मन सामने खड़ा था। उससे लड़ने पर राज्य या स्वर्ग मिल सकता था। आज हम चारों ओर दुश्मनों से घिरे हैं, फिर भी उन्हें पहचानते नहीं। जिन्हें भी मारने के बारे में सोचते हैं, वे हमारे हित चिंतक दिखाई दिखाई देते हैं। जिसके विरुद्घ भी बंद होने लगती हैं मुठ्ठियाँ, वह प्रचारित करने लगता है स्वयं को हमारा देवता। कभी-कभी तो तुम्हारी शक्ल धारण कर लेते हैं दुश्मन। कभी तुम्हें पूजने वाले तो कभी बेचने वाले दुश्मन दिखते हैं। कभी वोट लेने वाले तो कभी देने वाले दिखते हैं दुश्मन। कभी थाने बैरी लगते हैं तो कभी मुजरिम। हमसे बड़ा हमारा असमंजस है आज।

फिर आ गई है भाद्रपद की काली रात, फिर राजाओं के ख़ून में घुसकर कंस ललकार रहा है जनता जनार्दन को, फिर बिना आँख वालों के कब्ज़े में है सिहासन, फिर आदमी का ख़ून जम रहा है नाना प्रकार के भयों से। तुम आओ, चाहे किसी देवकी की कोख से या हमारी आत्माओं को बनाओ वह कोख जिससे पैदा हो सके कृष्णत्व। इस बार तुम्हें दुश्मन भी बताना पड़ेगा और लड़ने का तरीका भी, शास्त्र भी सुनाना पड़ेगा और उठाना पड़ेगा शस्त्र भी। तुम कब आओगे कन्हैया।
  • ओम द्विवेदी

संलग्न चित्र
कंस की भूमिका में ओम द्विवेदी। दयाप्रकाश सिन्हा लिखित 'कथा एक कंस की' नाटक का मंचन वर्ष २००० में राष्ट्रीय नाट्‌य विद्यालय,नईदिल्ली के स्नातक दिलीप पावले के निर्देशन में किया गया।

रविवार, 13 जून 2010

जाति पूछिए साधु की

मै भी कितना उजबक था जो 'जाति' को बुराई मानता था और कभी-कभार उसके खिलाफ बोलकर खुद को भगतसिंह। गाँधी, लोहिया, मार्क्स आदि ने ऐसा दिमाग खराब कर दिया था कि 'जाति' होने से घिन होने लगी थी। पढ़-लिखकर खुद को आदमी मानने लगा था। मै कैसा बंदर हो गया था कि जाति-धर्म की सुंदर पोषाकें, स्वर्ण जड़ित राजमुकुट अपने ही हाथों नोचता रहता था। सभी जातियों का प्रिय बनने के चक्कर में अपनी ही जाति का तर्पण करने लगा था। भला हो सरकार का कि उसने डूबती नाव बचा ली, दीये को बुझने न दिया। मेरी जाति की महानता को नमस्कार करने सरकार स्वयं मेरे द्वार आ रही है। जवानी भले 'जाति' के हीनभाव से ग्रस्त रही हो, बुढ़ापा उसी पर इतराते हुए कटेगा। जिस जाति-धर्म में जन्म लिया आज उसे सीना तानकर बताने का समय आ गया है, आगे उस पर बलिदान होने का मौका भी मिलेगा। क्रांति के चक्कर में जिन्होंने अपने जातिनाम का खतना कर दिया है, वे भुगतेंगे। वैसे उन्होंने भुगतने के लिए अपनी जाति गया नहीं भेजी है, जन्म का प्रमाण पत्र निकालकर वे अपनी रक्तजाति सरकार को बताएँगे और आने वाले समय में उसका भी लाभार्जन करेंगे।

'जाति' गिनना किसी खब्ती का काम नहीं, बल्कि यह सरकार का सुनियोजित कार्यक्रम है। इसके दूरगामी लाभ हैं। यह सरकार द्वारा सचाई की स्वीकारोक्ति है। सरकार वर्षों तक जनतंत्र की स्थापना में लगी रही। वह दुनिया से कहती थी कि हम सबसे बड़े जनतंत्र हैं। इस जनतंत्र को बनाए रखने के लिए वह हर पाँच साल में 'जन' की गिनती करवाती थी। जन-जन को गिनकर जनगण गाती थी। सरकार ने सोचा कि जब जातियों के महासागर में जन की नाव डूब रही है तो उसकी गिनती ही क्यँू की जाए? जब जाति के जंगल में 'जन' नाम का डायनासोर विलुप्त हो रहा है तो फिर उसे खोजने में सरकारी खजाना क्यूँ खाली किया जाए? जन की बजाय जाति की गिनती ही करवा ली जाए। रही बात 'जनतंत्र' के नामकरण की तो उसे भी बॉम्बे से मुम्बई मद्रास से चेन्नई की तरह बदलकर 'जातितंत्र' कर दिया जाएगा। फिर भारतवासी गर्व से कह सकेंगे कि हम दुनिया के इकलौते और सबसे बड़े 'जातितंत्र' हैं।
जाति की गिनती हो जाने के बाद जरूरत के हिसाब से उनके प्रदेश बनाए जा सकेंगे। अलग-अलग जातियों के अलग-अलग प्रदेश। अपनी भाषा, अपना पहनावा। ठाकरे साहबान जैसा महाराष्ट्र को बनाना चाहते हैं तकरीबन वैसा ही हर प्रदेश होगा। उसी जाति का मुख्यमंत्री, उसी जाति के मंत्री-विधायक। कभी जब जातियों में युद्घ करवाना हो तो देशभर से सबको इकठ्ठा नहीं करना पड़ेगा। रथयात्रा वगैरह नहीं निकालनी पड़ेगी। मुख्यमंत्री सरकारी योजनाओं की तरह युद्घ की घोषणा करेंगे और जनता-जनार्दन टूट पड़ेगी। एक ही जाति के लोग एक प्रदेश में रहेंगे तो जातियों में भेदभाव जैसा कुछ नहीं होगा। रोटी-बेटी का नाता आसान रहेगा। एक ही गोत्र में इश्क करने की सजा अगर प्रेमी-प्रेमिकाओं को कभी-कभार मिल गई तो वे उसे भुगत लेंगे।

जातिप्रदेश जैसी बड़ी क्रांति न भी हो पाए तो भी पार्टियों को चुनाव में टिकट बाँटना आसान हो जाएगा। उम्मीदवार चुनने की मगजमारी नहीं करनी पड़ेगी और दूसरी जातियों के नेताओं को यह भी नहीं दिखाना पड़ेगा कि तुम्हारे नाम पर विचार चल रहा है। जाति की गिनती के बाद ब्राह्मणों के सूबे में पंडित, क्षत्रियों के सूबे में ठाकुर, पटेलों और यादवों के सूबे में पटेलों-यादवों को टिकट मिलेगी। लोकतंत्र के रहस्य रहस्य नहीं रहेंगे। जब ब्राह्मणों वाली सीट पर दुबे, तिवारी, मिसिर, क्षत्रियों की सीट पर सेंगर, परिहार बघेल, वैश्वों की सीट पर गुप्ता, नेमा, अग्रवाल, लालाओं की सीट पर खरे, श्रीवास्तव, भटनागर तथा पटेलों-यादवों की सीट पर फलां-फलां-फलां अपना सिर फोड़ेंगे तब समस्या पर पुनः विचार होगा। अगली गणना में पांडे में भी पांडे तलाशे जाएँगे। बाल की भी खाल निकाली जाएगी। बेचारे मतदाता के दिमाग से भ्रम के बादल छटेंगे और वह हर पाँच साल में (अगर बीच में कुरसी लकवाग्रस्त नहीं हुई तो) एक बार जाति के काम आ सकेगा।

जिस जाति की सरकार रहेगी, उस जाति को विशेष पैकेज दिया जाएगा। उसी को गरीब और बेरोजगार मानकर उसके उत्थान के लिए योजनाएँ लाई जाएँगी। गरीबी रेखा के नीचे उन्हीं को माना जाएगा। सड़कें उसी जाति के लिए बनाई जाएँगी। बसें और रेलें भी उन्हीं के लिए चलेंगी। सरकारी नौकरी में उन्हीं के लिए आरक्षण होगा। राशन की दुकानों में राशन भी सरकार वाली जाति को मिलेगा। सरकारी अस्पतालों में उन्हीं का इलाज होगा। अदालतें उन्हीं के पक्ष में फैसला सुनाएँगी। वही अखबारों में संपादक होंगे। मीडिया में खबरें भी उनकी ही दिखाई और छापी जाएँगी। सड़कों, पुलों और तमाम निर्माण कार्यों के ठेके सरकारी जाति वालों को ही मिलेंगे। दीगर जाति के लोग आम आदमी कहे जाएँगे और शत्रुदेश के निवासी माने जाएँगे। अगर धोखे से हिंद देश के जन माने गए तो नक्सली और उल्फाई होंगे।

सभी जातियों की सरकारों से लाभ लेने के चक्कर में जो लोग अपनी 'जाति' नहीं बताएँगे, वे जेल जाने के लिए तैयार रहें। सरकार से कुछ भी छिपाया तो छिप-छिपकर जीना पड़ेगा। सरकार महाराज मनु के पदचिन्हों पर चलते हुए वर्णव्यवस्था द्वितीय लागू करने जा रही है। कृतघ्न इस राष्ट्रवाद को जातिवाद की संज्ञा देकर उपेक्षित न करें। इस राष्ट्रीय कार्यक्रम में व्यवधान डालना देशद्रोह माना जाएगा। अतः हिंद देश के सभी जन सरकार को अपनी जाति बताएँ और जब चुनाव का समय आए तो उसे उसकी औकात बताएँ।

शनिवार, 15 मई 2010

सोना है भविष्य, रोना मत

आपको पता चला क्या, अपने मुख्यमंत्रीजी ने विधानसभा में सोना बनाने की मशीन लगवाई है! जिस पारस पत्थर के बारे में बड़े-बूढ़े बताया करते थे, शायद वही लगवाया है। अब वे पूरे प्रदेश को सोना बनाएँगे। उनके जो सहयोगी विधायक और मंत्री बनने के पहले लोहे का भंगार थे, वे अब चमचमाता सोना हो गए हैं। चेहरा भले भंगार जैसा दिखे, लेकिन चमक सोने की हो गई है। बीवी, बच्चे, पुरखे सभी सोने के हो गए हैं। पड़ोसी उन्हें देख-देख ललचाते हैं, अचरज करते हैं। वे तो दुश्मनों को भी सोना बनाने के लिए अंदर बुला रहे थे, लेकिन वे बाहर ही बैठै रहे। दुश्मन विधायकों को लग रहा था कि वे तो पहले से ही सोने के हैं, मुख्यमंत्री उन्हें अंदर बुलाकर कहीं फिर से लोहा न कर दें। भंगार सोना बन सकता है तो सोना भी तो भंगार बन सकता है।

इस पारस पत्थर के सहारे 'साहिब' प्रदेश का भविष्य स्वर्णिम करेंगे। सबसे पहले योजनाओं को सोना बनाएँगे। पारस छूने के बाद सारी योजनाएँ सोना हो जाएँगी। सोना योजनाओं के लिए लूटमार मचेगी और हर कोई चाहेगा कि वह इन योजनाओं को प्राप्त कर ले। सोने को ललकती बेचारी जनता जब इन योजनाओं के दर्शन करेगी तो वह धूल-धूसरित अपनी जिंदगी को धन्य-धन्य मानेगी। वह कोशिश करेगी कि इन योजनाओं के मंगलसूत्र बनवाकर लाडली लक्ष्मी को दे दे। इन योजनाओं से किसान धरती में अनाज की जगह सोना उगाएगा। रोजी-रोटी के लिए जूते का तल्ला घिसवाता नौजवान योजनाओं का कारोबार करेगा। भोपाल से लेकर मिसिरगवाँ खुर्द तक स्वर्णिम योजनाएँ इस तरह रथारूढ़ होकर चलेंगी कि रामराज्य धम्म से आ गिरेगा। जनता के सारे दुःख हिंद महासागर में फेंक दिए जाएँगे और सुख छप्पर तोड़-तोड़कर घरों में डाल दिए जाएँगे।

पारस पत्थर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद जो भी विधानसभा तक पहुँच जाएगा वह सोना होकर ही लौटेगा। अंधा-काना, लंगड़ा-लूला, गूँगा-बहरा भले रहे पर सोने का रहेगा। वह अपने जिन चमचों को चाहेगा सोने का कर देगा। पारस का प्रताप ऐसा होगा कि जिस सड़क पर मुसाफिर गिर-गिरकर अपना पाँव तुड़वाते हैं, वही सड़क ठेकेदार के लिए सोना उगलेगी। जिन नालियों की दुर्गन्ध से लोगों की घ्राणशक्ति जा रही है और वे घर में कम अस्पताल में अधिक रह रहे हैं, उन्हीं नालियों में ठेकेदार के लिए सोना बहेगा। जिन सरकारी दफ्तरों में गरीब की फाइल शतायु हो रही है और जो विभाग लगातार घाटे में हैं, वही अपने अफसरों पर सोना बरसाएँगे। कभी जब उनका लॉकर खुलेगा तो सोना आराम से सोता मिलेगा।

मुख्यमंत्रीजी की सदिच्छा है कि भविष्य में पूरा प्रदेश सोने का हो जाए। दीवारें सोने की, सड़कें सोने की, घर सोने के, नालियाँ सोने की, गाड़ियाँ सोने की, पेड़ सोने के और चिड़िया सोने की। जैसे कभी भारत सोने की चिड़िया था और उसे लूटने के लिए दूर देश से लुटेरे आया करते थे, वैसे ही अपने प्रदेश में भी आएँ। लूटने के लिए नहीं, देख-देख दंग होने। जब चारों तरफ सोना ही सोना दिखाई देने लगेगा तो अपना प्रदेश भी सोने की लंका जैसा हो जाएगा। जिसमें रावण, कुंभकरण, मेघनाद, खर और दूषण जैसे अपराजेय योद्घा रहने लगेंगे। विभीषण को लात मारकर बाहर कर दिया जाएगा। सोना है ही ऐसा कि राजा को ताकतवर कर देता है। रावण-कुंभकरण जैसा।

स्वर्णिम प्रदेश गढ़ने में संकल्पों के ७० सुनार काम करेंगे। कन्यादान से लेकर लेकर भू-दान तक मजे से होगा। अपने लिए सबसे स्वर्णिम संकल्प है कि अब राशन की दुकानें रोज खुलेंगी। मतलब यह कि अगर गाँठ में पैसा होगा तो अन्न खूब मिलेगा और जनता हाथ-मुँह एक कर सकेगी। डर लगता है कि रोज खुलने वाली दुकानों में अगर राशन भी सोने का मिलेगा, तो क्या होगा। बहरहाल सभी नेताओं, अफसरों और गुर्गों-मुर्गों को कह दिया गया है कि प्रदेश का भविष्य जहाँ भी मिले तो उसे पकड़कर लाओ और विधानसभा में रखे पारस पत्थर पर उसका सिर दे मारो। जब तक वह सोने का न हो जाए तब तक पटकते रहो, ताकि आने वाली पीढ़ी कह सके कि हमारा वर्तमान स्वर्णिम है। साँस रोककर देखिए कि अगले चुनाव तक कितने भविष्य स्वर्णिम होकर सदन से बाहर निकलते हैं। फिलहाल स्वर्णिम संकल्प के लिए मुख्यमंत्री की जय बोलिये और उनके दुश्मनों की पराजय।

शनिवार, 1 मई 2010

सूरज की मर्दानगी

सूरज आसमान से इस तरह गोली-बारी कर रहा है जैसे अमेरिका अफगानिस्तान और पाकिस्तान पर ड्रोन से हमला कर रहा हो। सड़क पर निकलना आग की बारिश में चलने जैसा लगता है। बाहर तो बाहर घर के भीतर भी सूरज इस कदर गर्मी भेज रहा है जैसे पकिस्तान हमारे यहाँ आतंकवादी भेजता है। सेना और खुफिया विभाग के कान भी खड़े नहीं हो पाते और वे हमारा गाल लाल कर चले जाते हैं। गर्मी भी उसी अंदाज में घुसपैठ कर रही है। एसी और कूलर सीमा पर तैनात हैं, लेकिन गर्मी है कि बदन से पसीना निचोड़े दे रही है। मंदिर में जूता चोरी चला जाए तो घर पहुँचते तक धरती पाँवों को ऐसे भूनती है जैसे हर बजट के बाद महँगाई। आह भरते रहें और राह चलते रहें। पुलिस कप्तान होता तो दस-बीस धारा लगाकर जेल में ठूस देता और सड़ाता तीन महीने। ज्यादा टुर्राता तो जिला बदर कर देता।

ऐसे भूखा-प्यासा निकलता है घर से कि खाना-पानी कम पड़ने लगता है। नदी-तालाब पी जाता है, बोरिंग-हैंडपंप पी जाता है, कुएँ-नल पी जाता है फिर भी प्यास नहीं बुझती। बिलकुल बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तरह। इसकी प्यास कुछ-कुछ हमारे नेताओं और अफसरों जैसी भी है। वो ऊपर बैठकर धरती का पानी सोख रहा है और ये राजधानी में बैठकर जनता का खून। न धरती का पानी पीकर सूरज अघाता और न जनता का खून चूसकर सरकार। दोनों अंतिम बूँद स्वाद ग्रहण करने की में लगे हैं।

सारी समस्याओं की जड़ यह नामुराद सूरज ही है। अब देखिए न! सरकार के हुकुम पर बच्चे परीक्षा देने के बाद फिर से स्कूल जाने लगे थे, लेकिन इसने अपनी ताकत दिखाकर धारा-१४४ लगवा दी। सब बंद। इसने सरकार को पहले बताया भी नहीं कि हम गर्मियों में तपेंगे इसलिए पहले से इंतजाम कर लो, लू लगने से पहले बच्चों की छुट्टियाँ कर दो, उन्हें दो महीने चैन से जी लेने दो। अब सरकार कोई इतनी ज्ञानी तो नहीं है कि उसे पहले से पता रहे कि ठंडी के बाद गर्मी आएगी और गर्मी के बाद बारिश। उसे तो जैसा बताया जाता है वह मानती है और फटाफट योजनाएँ बनाती है। जैसे ही उसे गर्मी का पता चला छुट्टियाँ हो गईं। सूरज की जरा सी लापरवाही के कारण सरकार को कितना नुकसान हुआ, कितने आदेश निकालने पड़े। सचिवालय की मेहनत और जनता का धन दोनों अकारथ गया। स्कूल लगाओ...बच्चों को स्कूल लाओ...उन्हें किताबें बाँटो...पढ़ने की रुचि जगाओ...एक के बाद एक आदेश चल रहे थे कि सूरज तपने लगा और आदेश निकालना पड़ा कि सबकी छुट्टी कर दो। पहले से बता देता तो आदेशों और फाइलों को थकना नहीं पड़ता।

सूरज बीमारियों से मारे डाल रहा है। सरकार बच्चों को दलिया-दूध खिला रही है, दोपहर का भोजन दे रही है, जो लोग गरीबी रेखा पर चलते-चलते नीचे खिसक गए हैं, उन्हें गेहूँ-चावल दे रही है। रोटी छीनने वाले देश अमेरिका से मक्का मगा रही है तो बम फेंकने वाले देश पाकिस्तान से शकर। सबको खिलाने पर आमादा है। जिन्हें खाना नहीं दे पा रही उन्हें पौष्टिक आश्वासन दे रही है। सरकार के इस सारे किए-धरे पर सूरज दस मिनट में पानी फेर देता है। लोग खा-पीकर घर से बाहर से निकलते हैं और सूरज का चाटा खाकर अस्पताल पहुँच जाते हैं। डॉक्टर किसे-किसे बचाएँ। भला हो बजरंगवली का जो लोगों की साँस थामे हुए हैं। लोग बिस्तर पर पड़े-पड़े प्रार्थना कर रहे हैं कि प्रभु बाल्यकाल की तरह एक बार और सूरज को खा लो। हमारे प्राणों की रक्षा करो।

गरीबी, भुखमरी और बीमारी के लिए लोग नाहक ही सरकार को कोसते हैं। मैं तो कहता हूँ कि इसके लिए यह सूरज ही पूरी तरह जिम्मेदार है। सरकार को इसके खिलाफ जाँच आयोग बनाना चाहिए और जल्द से जल्द सजा तय करनी चाहिए। हो सके तो लाल किले पर फाँसी देने का शानदार आयोजन करना चाहिए। विपक्ष तो माल खाकर किसी तरह सरकार की रक्षा कर लेता है, लेकिन ये सूरज सब कुछ खा-पीकर भी सरकार की लुटिया डुबोने में लगा रहता है। अपनी मर्दानगी से कम सूरज की गर्मी से ही हम चीन को नंबर दो की कुरसी पर धकेलने वाले हैं। उसी की साजिश से हमारी आबादी फल-फूल रही है। लोग सूरज का गुस्सा चाँद उतारते हैं और आँगन में तारों की बारात उतर आती है। सरकार किसको-किसको दाना-पानी दे। सरकार माने या न माने सूरज की सौंपी आबादी ही सरकार की बरबादी का सबसे बड़ा कारण है। सरकार को इससे निपटना चाहिए। पर निपटे कैसे, उसी गर्मी से वोट भी तो पैदा होता है। जो आबादी मुसीबत का जहर है, वही वोट का अमृत भी तो है। फिर तो पूजना पड़ेगा सूरज को।

सुनने में आया है कि सूरज इसलिए गुस्से में है क्योंकि हम पेड़ काटकर घर और सड़क बना रहे हैं, पलँग-सोफा बनवा रहे हैं, लकड़ी जलाकर खाना बना रहे हैं, वगैरह..वगैरह। अरे भैया! पूरी धरती पर पेड़ ही रहेंगे तो क्या हम घर पेड़ पर बनाएँगे। आपको तो सड़क की जरूरत पड़ती नहीं। दिनभर में पैदल ही सारा आसमान नाप लेते हैं। आपके घर किसी के आने की हिम्मत भी नहीं कि पलँग-सोफा की जरूरत पड़े। आपके कोप से डरे तो फिर हम जीते जी मरे। सूरज बाबू ! सौ टके की बात सुनो-हमें अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारना अच्छा लगता है। हम अगर धरती पर पेड़ों को रहने देंगे तो आपका गुस्सा भी नपुंसक हो जाएगा और सारे खुदगर्ज भस्म होने से बच जाएँगे। तुम्हीं तो एक मर्द हो जो नामर्दों को सबक सिखा सकते हो। अभी जितना गुस्साओगे, तीन महीने बाद धरती का आँचल भी तो उतना ही भिगाओगे।

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

मुझको भी तो भ्रष्ट बना दो!

प्रभु! जाने किस घड़ी में मैने तुझसे विद्या का वरदान माँग लिया था। जब माँगा था तो यह सोचकर माँगा था कि यही दुनिया का श्रेष्ठ वरदान है, अब बहुत पछता रहा हूँ। संभव हो तो प्रायश्चित का मौका दो और विद्या, ज्ञान, लेखनी वगैरह अपने माल गोदाम में जमा करवा लो। अपनी मूर्खता और तुम्हारी दी हुई कृपा पर घड़ी-घड़ी रोना पड़ रहा है। कलम ने ईमानदारी का जो कैंसर दिया है, उससे मुक्ति दो। अब तो अपना दिल चौबीस कैरेट भ्रष्ट होने का है। जैसे-तैसे भ्रष्ट बना दो तभी संसार के कष्ट कटेंगे, वरना जीवन इसी तरह तिल-तिल नष्ट होगा। हे अंतरयामी! मुझे किस तरह भ्रष्ट बनाओगे यह तुम जानो, मैं तो केवल भ्रष्ट होने के लिए लालायित हूँ। एक बार संपूर्ण भ्रष्ट कर दो तो मैं जीवनभर तुम्हारी सेवा करूँगा। मंदिर वगैरह बनवा दूँगा। तीर्थयात्रा करूँगा। यज्ञ-पूजन करूँगा। बड़े-बड़े ट्रस्ट बनाकर तुम्हारे नाम का कीर्तन करवाऊँगा। भ्रष्ट होने के बाद मैं यह सब बहुत आराम से कर सकूँगा। पर्याप्त समय होगा।

वैसे तो सारी सृष्टि आपकी ही बनाई हुई है फिर भी इन दिनों की जो दुनिया है, वह मुझे हर पल भ्रष्ट होने के लिए आमंत्रित कर रही है। बड़े-बूढों ने बताया था कि दुनिया का सारा वैभव भ्रष्टाचार की खदान से निकला है। सारी अट्टालिकाएँ, सारी स्वर्ण लंकाएँ, सारी गगनचुंबी यात्राएँ बिना भ्रष्ट आचरण के संभव नहीं हैं। उन्होंने पहले ही कहा था कि तुम भ्रष्ट बनो, लेकिन मेरी ही मति मारी गई थी। देर से ही सही जाग गया हूँ, अब मेरा मार्ग प्रशस्त करो। जबसे यह महँगाई बढ़ी है और आपने बाजार को लुभावनी अदाएँ दी हैं, जबसे रोटी के लिए भूख शीर्षासन करने लगी है और दवा के आगे मर्ज गिड़गिड़ाने लगा है, तब से यह दिल और भी रह-रहकर भ्रष्ट होने का करता है। अपने देखते-देखते सारे संगी-साथी कहाँ से कहाँ पहुँच गए। कोई उन्हें भ्रष्ट होने का प्रमाण पत्र दे न दे, पर उनकी शानो शौकत किसी प्रमाण पत्र की मोहताज नहीं। कभी-कभी लगता है कि भ्रष्टों की बजाय ईमानदारों से ही प्रतिस्पर्घा करूँ, लेकिन जब दौड़ शुरू होती है तो एक भी आदमी नहीं मिलता। अकेले ज्यादा देर तक दौड़ा नहीं जाता। या तो मुझे भ्रष्टों के साथ दौड़ने का मौका दो, या फिर एकाध दर्जन लोग ऐसे भेजो जिनके साथ मैं ईमानदारी की दौड़ लगा सकूँ।

हे जगदीश्वर! मैं जानता हू कि तुम सीधे किसी को कुछ नहीं देते। अपनी कृपा सद्‌गुरुओं के माध्यम से भेजते हो। मैने अपनी विनती इस समय आप तक इसलिए पहँुचाई है क्योंकि इस समय मुझे इस मार्ग पर ले जाने वाले कई सद्‌गुरु धरती पर अवतरित हैं। आप तो बस मुझे इतना ज्ञान दो कि एक सच्चे गुरु का चयन कर सकूँ, जो मुझे शीघ्रातिशीघ्र भ्रष्ट बना दे। भ्रष्टाचार के जिन सद्‌गुरुओं का नाम इन दिनों चलन में है उनमें अपने मध्यप्रदेश के मंत्री कैलाश विजयर्गीय हैं। कहते हैं कि वे बचपन में ईमानदार थे और एक टूटे स्कूटर पर चलते थे, जबसे उन्होंने अपना रूपांतरण किया है। इंदौर शहर की आधी जमीन उनकी हो गई, लक्ष्मी उनके यहाँ पैर प्लास्टर बँधवाकर आराम करने लगी, चारों ओर उनकी जयकार होने लगी। एक ललित मोदी का नाम भी चल रहा है। वे आईपीएल नाम का क्रिकेट खेल खिलाते हैं। मोदी साहब भी रंक से चक्रवर्ती सम्राट हुए हैं। उनके दुश्मनों की कृपा से पता चला कि उन्हें भी महान भ्रष्ट संस्कारों ने ही यह मान दिया है। एक थरूर साहब हैं, जिनके चेहरे पर पचपन में भी इतनी रौनक है कि महिलाएँ खिंची चली आती हैं और आए दिन उनके नए विवाह की चर्चा रहती है। इच्छाघारी और संत नित्यानंद के इन्हीं संस्कारों ने उन्हें धार्मिक फील्ड का पावर फुल आदमी बनाया। धन-धान्य के साथ स्त्रियों का सुख भी नसीब हुआ। मेडिकल कौंसिल के केतन देसाई साहब भी भ्रष्ट हुए तो उनकी रिश्वत का रेट दो-दो करोड़ तक पहुँच गया। पुराने भ्रष्टों के बारे में बताने का मतलब है आशिकों को बार-बार 'देवदास' पढ़ाना। अब आप जिसकी तरफ संकेत कर दें, मैं उसे अपना गुरु बना लूँ और यात्रा आरंभ करूँ। आप बताने में जितना विलंब करेंगे गुरुओं की संख्या बढ़ती जाएगी। फिर आप भी कन्फ्यूज होंगे और मैं भी।

एक विनती और जगतपति! इस गुप्त विद्या को विलुप्त मत होने दें। भ्रष्ट बनाने के इस अमूल्य नुस्खे को दादी माँ के नुस्खों की तरह गुम न हो जाने दें। इसे वाचिक परंपरा से लिखित परंपरा में लाएँ। जिस विद्या ने समृद्घि के बंद दरवाजे खोले, उसे कुछ खास लोगों के पास ही मत रहने दें, वरना इस देश के आमजन का आपके ऊपर से विश्वास उठ जाएगा। संभव हो तो आईआईएम और आईआईटी जैसे भ्रष्टाचार सिखाने वाले कुछ संस्थान बनाकर विद्यार्थियों का भला करें। वैसे भी इन संस्थानों को आपने इस तरह की विद्या सिखाने का जिम्मा दिया है, लेकिन अब वक्त आ गया है कि जो काम चोरी-छिपे चल रहा है, उसे खुलेआम कर दिया जाए। यदि आप ऐसा करवा पाएँगे तो आने वाली पीढ़ियाँ आपकी एहसानमंद रहेंगी। उन्हें इस हुनर को प्राप्त करने के लिए किसी को तेल नहीं लगाना पड़ेगा।

भ्रष्ट आचरण के लिए आप सम्मान वगैरह की व्यवस्था भी करवा सकते हैं। भारत रत्न, पद्म श्री, पद्मविभूषण आदि सम्मानों के लिए आप इन्हें भी सुपात्र मानें। आखिर देश की तरक्की में उनका योगदान भी तो है। अगर वैश्विक स्तर तक आपकी पहुँच हो तो नोबेल सम्मान इस भ्रष्ट विद्या के लिए भी दिलवाओ। लेखकों को ऐसी मति दो कि वो भ्रष्ट बनाने वाले वेद-पुराणों की रचना करें। जाँच एजेंसियाँ जिन महान आत्माओं को जेल का भय दिखा रही हैं, उन्हें भ्रष्ट बनाने वाले विश्वविद्यालयों में कुलपति-प्राध्यापक बनाकर उनके अनुभव का लाभ लें। दुनिया उनके साम्राज्य का सम्मान करती ही है, उनके चरित्र को भी सम्मान के योग्य बनाएँ।

एक मुहावरा आपने भी सुना ही होगा कि लोहा लोहे को ही काटता है, ठीक उसी तरह भ्रष्ट भ्रष्ट को ही जेल ले जाने की धमकी देता है और तैयारी करता है। जो पुलिस केस दर्ज करती है, उसके बारे में आप जानते हैं कि वह एक एफआईआर दर्ज करने का क्या लेती है! सीबीआई, सीआईडी और लोकायुक्त आदि की जाँच भी कैसे होती है और कौन किसके खिलाफ करवाता है, यह भी आपको पता है। जांच के लिए जो संसदीय कमेटियाँ बनती हैं, उनका न्याय भी आपकी नजर में है। अच्छा माल देने वाला मिले तो पुलिस आपके ही खिलाफ प्रकरण दर्ज कर दे। आप विपक्ष में हों तो सरकार आपके पीछे इन जाँच एजेंसियों को लगा दे। आप भागते फिरें। जब तक आप भ्रष्ट होकर नहीं लौटें और उनकी सेवा में न हाजिर हों तब तक जाँच की दोनाली आपके पीछे-पीछे दौड़े। खैर! आप तो सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ हैं। कुछ न कुछ कर ही लेंगे। आप तो मुझ जैसे तुच्छ सेवकों के बारे में सोचें और तत्काल भ्रष्ट बनाएँ। क्षणभर में इतना भ्रष्ट कर दें कि मंत्री-संत्री, दादा-दऊ, अफसर-चाकर सब जलें-भुनें और चुपके से पूछे - 'गुरू भ्रष्ट होने का कोई गुर मुझे भी बताओ न!'

गुरुवार, 25 मार्च 2010

नोटों की माला का अर्थात

बहनजी काँटों भरा सफ़र तय करके आलीशान सिंहासन तक पहुँची हैं, अतः फूलों की माला पहनकर वे काँटों का अपमान नहीं करना चाहतीं।वे जिस समाज का नेतृत्व करती हैं दुनिया आज भी उसे काँटा ही मानती है।दुनिया उस काँटे से अपने पाँव का चुभा काँटा निकालकर फिर उसे बाहर फेंक देती है।उस काँटे की बागड़ बनाकर फसलों और फूलों की रखवाली तो कर लेती है, लेकिन उसको सम्मान नहीं देती।जो फूल काँटों को हिकारत भरी नज़र से देखते हैं भला बहनजी उन फूलों को गले से कैसे लगाएँ।जो फूल समूचे काँटा जाति का संहार कर देना चाहते हैं उन्हें भला वे कैसे दिल के क़रीब रखतीं।इसीलिए उन्होंने फूलों की बजाय नोटों(काँटों)की माला पहन ली।

लोग समझते हैं कि बहनजी रुपयों की भूखी हैं। हमेशा धन बटोरती रहती हैं। कभी जन्मदिन पर, कभी पार्टी फंड के नाम पर तो कभी चुनाव में टिकट देने के नाम पर वे धन संग्रह करती हैं।कहने वालों की जिह्वा जले, लेकिन कहते तो वे यह भी हैं कि बहनजी उसी 'आम' को चूसती हैं, जिसके वोट से आलीशान सिंहासन हासिल करती हैं।बहनजी जहाँ भारतीय मुद्रा का स्पर्श करती हैं तो भाई लोगों का दिल-दिमाग हिलने लगता है।प्रदर्शन करने वाले लोग बहनजी का दर्शन क्या जानें।जिन मायावियों ने धन को माया कहकर सदियों तक लोगों को भरमाया, जिसके अभाव में उनके वोटर मज़दूर, खेतिहार, किसान और बेकार रह गए।उन्हीं रुपयों की माला पहनकर वे अपने वोटरों और भूख से मरें तमाम क्षूद्रजनों का तर्पण कर रही हैं।बहनजी उस माया को भी सम्मान दे रही हैं, जिसे कबीर ने महाठगिनी कहकर लज्जित किया था।आप कोई ठगी थोड़ी कर रही हैं।

बहनजी जानती हैं कि लोकतंत्र बिकाऊ है और उन्होंने यह राज अपने समर्थकों को बताया है।उन्हें मालूम है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, वह कोई कौड़ी दो कौड़ी में तो बिकने से रहा। जब गली-मोहल्लों में कमरे दो कमरे की ज़मीन करोड़ रुपए माँगने लगी है तो भला लोकतंत्र तो लोकतंत्र है। उसकी क़ीमत सारी दुनिया जानती है। इसमें संसद है, न्यायपालिका है, विधायिका है और मीडिया है।सब एक से एक क़ीमती। सबको ख़रीदना है तो पूंजी तो ज़रूरी है न! इस लोकतंत्र को अगर ऊँचे भवनों से देखना है तो मुख्यमंत्री निवास है, प्रधानमंत्री निवास है, राष्ट्रपति भवन है, राज्यपालों की अट्टालिकाएँ हैं, कलेक्टोरेट हैं, एसपी ऑफिस हैं, तहसीलदार, पटवारी तक हैं। सबको ख़रीदना कोई गाजर घास थोड़ी न है! तो बहनजी के प्राणप्यारे यह जानते हैं इसलिए अब वे उन्हें नोटों की माला पहना रहे हैं, जिससे वे थोड़ा-थोड़ा लोकतंत्र ख़रीदती रहें और एक दिन पूरा ख़रीद लें।इससे लोकतंत्र भी बचेगा और सदियों से सत्ता से बाहर धकेले गए लोगों को सत्ता भी मिलेगी।

जो लोग बहनजी के गले में नोटों की माला देखकर जल-हैं भुन रहे और बहनजी की आलोचना कर रहे हैं, दरअसल वे पर्यावरण और प्रकृति के सबसे बड़े दुश्मन हैं। वे नककटे आलोचक यह नहीं जानते कि बहनजी पर्यावरण की रक्षा का पावन संकल्प ले चुकी हैं। वे कली-कली से, पत्ते-पत्ते से, तने-तने और जड़-जड़ से प्यार करने लगी हैं। वे फूलों की माला पहनेंगी तो कितनी टहनियां बाँझ हो जाएँगी, फूलों के कितने पौधे सिसक-सिसककर रोएँगे। वे अगर एक माला रा़ेज भी पहनती हैं तो कुछ दिन में अच्छे फूलों की प्रजाति ख़त्म हो जाएगी।फूल माला बनने के बाद सूख जाएँगे, लेकिन माला बनने के बाद नोटों का हरापन और बढ़ेगा। बहनजी के गले में पहुँचकर नोट और इतराएँगे। नोट पर बैठे गाँधीबाबा जब बहनजी से भेंट करेंगे तो राम से लेकर कांशीराम तक परम प्रसन्न होंगे।नोटों की इस माला में पतझर को स्थान नहीं, यहाँ हमेशा बसंत रहेगा।

रे नामुरादों! बहनजी 'अछूतोद्घार' की तरह 'नोटोद्घार' कर रही हैं।दूसरे दलों के कुबेर इन्हीं नोटों के दमपर इतराते हैं, लेकिन जब सार्वजनिक रूप से इन्हें स्वीकार करने की बात आती है तो नाक-भौं सिकोड़ते हैं।कमरों और तहख़ानों में लेन-देन होता है, लेकिन बाहर सन्यासी बने रहते हैं।गुपचुप लेन-देन करते हैं और विदेशी बैंक भरते हैं।बहनजी को इन नोटों पर दया आई और उन्होंने तय किया कि वे इन नोटों का उद्घार करेंगी।उन्होंने नोटों को सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया।जिसे मूढजन भ्रष्टाचार कहते थे, बहनजी ने उसे शिष्टाचार बना दिया है।जिसे भी नोटों का 'उद्घार' करवाना हो वे उनके दर पर जा सकते हैं।उनके चहेतों की चाह है कि वे यह माला पहनकर दिल्ली जाएँ और लाल किला पर झंडा फहराएँ।बहनजी यह जानती हैं नोटों की माला से ही वोटों का सफर तय होगा।

गुरुवार, 11 मार्च 2010

प्रधानजी के नाम ख़त

प्रिय प्रधानजी!

सच कहूँ तो आपको प्रिय कहने में भारी कष्ट होता है। लगता है आपको प्रिय कहा और जीभ जलकर राख हो गई, पर क्या करूँ, हम जन्म-जन्मांतर से दुश्मन को भी प्रिय कहते आए हैं, फिर आप तो हमारे भाग्य विधाता हैं। आपकी बात सुनकर कभी-कभी लगता है कि आपके मुँह पर थूक दूँ, लेकिन अपने फेफड़ों में इतना दम नहीं कि उसे दिल्ली तक पहुँचा सकूँ। वैसे भी हम इतने सहिष्णु हैं कि ज़हर खा लेंगे, फाँसी के फंदे पर झूल जाएँगे, अपने ऊपर ही थूक लेंगे, लेकिन किसी का दिल नहीं दुखाएँगे। आप हमारी क़िस्मत की बुनियाद रखते हैं, उसके कंगूरे बनाते हैं, ठीक तरीके से पुताई कर उसे चमाचम करते हैं। हमने अगर धोखे से भी आपको भला-बुरा कह दिया तो कुंभीपाक में सड़ेंगे। अगला जन्म बिगाड़ने से अच्छा है यहाँ जो कुछ ऊँच-नीच है सह लें।

हम जानते हैं आप हमारे लिए रात-दिन एक कर काम करते हैं। अपनी सीमा से उपर उठकर काम करते हैं। आपको बोलने में अतिशय कष्ट होता है फिर भी बोलते हैं। हिंदी बोलने में आपकी जिह्वा को हज़ार बार लकवा मारता है, फिर भी आप तीज-त्योहार पर बोलते हैं। विदेशों से शिक्षा-दीक्षा लेकर हमारे लिए इस निकृष्ठ देश में रहते हैं। जो देश दो कौड़ी के एक पेंटर को नहीं भाता, आप उस देश में तकलीफ सहते हैं। आप चाहें तो शिरडी के साँईनाथ की तरह सोने का सिंहासन बनवा लें और भक्तों से सुबह-शाम की आरती करवाएँ, फिर भी आप लोकसभा की अदना सी कुरसी पर बैठते हैं और निकृष्ठ विपक्षियों की गाली सुनते हैं। जो हाथ आप खुलेआम अमेरिका से मिलाते हैं, चोरी छिपे पाकिस्तान से मिलाते हैं, चीन-रूस से मिलाते हैं, उस महान हाथ को कभी-कभी भूखी जनता की ओर भी बढ़ा देते हैं। आपकी इस महानता पर प्रश्नचिन्ह लगाऊँ तो रौरव नरक में पड़ँू।

आपके राज में दिन दूनी-रात चौगुनी तरक्की हो रही है। सेठ-साहूकार बढ़ रहे हैं, अमीर बढ़ रहे हैं, शेयर और सोने के भाव बढ़ रहे हैं, मोटरकारें बढ़ रही हैं, हवाई जहाज़ बढ़ रहे हैं, साधु-संत बढ़ रहे हैं, एटमबम बढ़ रहे हैं, नेता बढ़ रहे हैं, वोटर बढ़ रहे है। चारों तरफ बसंत दिख रहा है। सबकुछ लहलहा रहा है। इन सबके बीच महँगाई बढ़ रही है और ग़रीब भी बढ़ रहे हैं। थोड़ी लूट-खसोट और भुखमरी बढ़ रही है। आतंक बढ़ रहा है, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दखल बढ़ रहा है। आपको बुरा तब कहें जब कुछ घट रहा हो। देश की सीमा अगर थोड़ा-बहुत घट भी जाएगी तो उससे क्या, वैसे भी हमारे यहाँ राजा जब प्रसन्न होता था तो दो-चार गाँव बाँट देता था। वे रिआया को बाँटते थे आप पड़ोसी मुल्कों को बाँट रहे हैं। आपके निरंतर बढ़ते प्रगतिशील सोच और दानवीरता को प्रणाम।

जब दाल-रोटी महँगी होती है और किराने की दुकान पर तनख्वाह रेगिस्तान के पानी की तरह पलभर में सूख जाती है तो लगता है बरसों पुरानी अपनी टूटी चप्पल की प्राण प्रतिष्ठा अख़बार में छपी आपकी फोटू पर कर डालूँ, विपक्षी दलों की तरह आपका पुतला फूँक दूँ। फिर लगता है इससे कुछ होता तो अब तक हो गया होता। भरी महफिल में पत्रकार ने मंत्री को जूता मारा, उससे क्या हुआ। आपने जबसे बता दिया है कि महँगाई देश की तरक्की के लिए बढ़ रही है, तबसे गुस्सा थोड़ा कम हुआ हैं। लगता है चलो हम भूख मर जाएँगे तो मर जाएँगे, लेकिन औलादें मज़े में रहेंगी। जबसे आपने कहा है कि महँगाई दुनिया की देन है तबसे मन को संतोष होता है। लगता है एक हमी महँगाई की मार से नहीं कराह रहे हैं, बिलबिला रहे हैं, बल्कि सारी दुनिया की पीठ इसी से लाल है। लगा जब दुनिया का बाज़ार हमारे देश में आकर हमें अपार सुख दे रहा है तो दुःख कहाँ जाएगा। मीठा खा-खाकर पेट में कीड़े हो रहे हैं तो कड़वा कौन गप करेगा। अतः यह महँगाई भी सिरोधार्य है और पूरे भक्तिभाव से दिल आपकी जय-जयकार कर रहा है।

लोग कहते हैं डीजल-पेट्रोल की क़ीमतें बढ़ाना आम आदमी के ख़िलाफ़ और आपने ऐसा करके जनविरोधी काम किया है। ऐसा अज्ञानीजन और स्त्री-किसान विरोधी लोग कहते हैं। आप स्त्रियों के कितने बड़े हित चिंतक है, इसका प्रमाण आपने संसद में महिला विधेयक पेश और कुछ-कुछ पास करवा कर दिया। आपको किसानों की चिंता है यह आपने आम बजट में कर्ज की व्यवस्था करके बताया है। सरकार से कर्ज लो और फसल सूखने के बाद भी तुम खूब फलो-फूलो। डीजल और पेट्रोल की क़ीमतें आपने इसलिए बढ़ाई हैं ताकि महिलाएँ पुरुष समाज से तंग आकर जलने-भुनने में इसका इस्तेमाल नहीं करें। किसान भी मरें तो कुएँ में कूदकर और फाँसी लगाकर नितांत देसी तरीके से मरें। दूर देश की धरती से आए इस बेशकीमती पदार्थ से नहीं। आपमें देश के प्रति प्रेम कूट-कूटकर भरा है, इसलिए अपने मुल्क को पराए मुल्क के तेल से जलाना नहीं चाहते। हम आपके देशप्रेम के आगे नतमस्तक हैं।

यूँ तो आप वैसे भी जनता की बात नहीं सुनते फिर भी मेरा निवेदन है कि कभी भी जनता के बहकावे में नहीं आएँ। यह जनता होती ही इतनी नासुकरी है कि उसे अपने पेट से मतलब होता है। उसे देश और दुनिया की तरक़्क़ी से न कोई लेना-देना है और न उसकी चिंता। उसे तो आपका नाम तक नहीं मालूम। वह तो केवल सरकार जानती है और उसी की जय-जयकार करती है। अब सरकार में घोड़ा है कि गधा, इससे भी उसका लेना-देना नहीं है। जनता पाँच साल में एक बार वोट डालती है, आप जिसके लिए दारू-कंबल बँटवा देते हो, उसके पक्ष में मतदान कर देती है। वोट देने के बाद हमेशा सरकार से नाराज़ रहती है। केरोसिन न मिले तो नाराज़, मज़दूरी न मिले तो नाराज़, ग़रीबी रेखा का कार्ड न मिले तो नाराज़, वृद्घावस्था पेंशन न मिले तो नाराज़, दलिया-दाल न मिले तो नाराज़। यह आज़ादी के पहले भी नाराज़ थी और आज़ादी के बाद भी नाराज़ है। यह नाराज़ न रहे तो मरी-मरी दिखती है। इसलिए आप तो जनता की सोचने की बजाय देश और विदेश की सोचो, वरना यह तुच्छ जनता आपको जीने नहीं देगी।

कुछ लोग कहते हैं कि आपके राज में इस देश को विदेशी ताक़तें चला रही हैं। हमारे देश में आतंकवादियों को पाकिस्तान चला रहा है, बाज़ार को चीन, जापान और अमेरिका चला रहा है, अर्थव्यवस्था को विश्वबैंक चला रहा है। व्यवस्था भगवान भरोसे। वे जगत निंदक यह नहीं जानते कि आपके पास चौबीसों घंटे एक विदशी ताकत है जो आपको चला रही है। आपने अपनी आत्मा उसके पास सुरक्षित रखी है। इसलिए उसकी आवाज़ आपके आत्मा की आवाज़ होती है। यह देश चीन, अमेरिका के भरोसे चले या भगवान के, चल तो रहा है। आपके सिर यह पाप तब जाए, जब देश रुक जाए। मैं आपके चलाने की क्षमता का कायल हूँ और जब तक यह देश चलता रहेगा तब तक आपकी जय-जयकार करते रहेंगे। मैं तो केवल देश के चलने पर यकीन करता हूँ, चला-चलाकर आप इसे कहाँ पहुँचाएँगे, यह आप जानें और आपकी सरकार।

आपका

जनता के बीच बजबजा रहा एक जन

गुरुवार, 4 मार्च 2010

अद्‌भुत...अकल्पनीय...

दोस्तों, कई महीनों बाद ब्लॉग पर अपना मिलना हो रहा है। ग्वालियर में सचिन तेंदुलकर ने २०० रन बनाकर एकदिवसीय मैचों के इतिहास में विश्व कीर्तिमान रचा। २४ फरवरी को ही नईदुनिया के लिए मैंने यह टिप्पणी लिखी। पोस्ट करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा। विलंब के लिए क्षमा याचना सहित...

अद्‌भुत...अकल्पनीय...अविश्वसनीय...अविस्मरणीय...अद्वितीय...अतुलनीय...शब्दकोष में इस तरह के जितने भी शब्द हैं, आज इस बल्लेबाजी पर कुर्बान। ग्वालियर किले की प्राचीरों से इतिहास सचिन की क्रिकेट कला प्रदर्शनी देखने के लिए बार-बार सिर उठा रहा था। मजार से मियाँ तानसेन झाँक रहे थे कि कौन है जो गले से नहीं बल्ले से राग हिंडोल, मुलतानी , मालकोस और यमन सुना रहा है... कौन है जो करोड़ों लोगों को सम्मोहित किए हुए लकड़ी के बल्ले से ही कभी दादरा तो कभी ठुमरी गा रहा है। बल्ले की गायकी ऐसी कि विलंबित में आत्मा निचुड़ जाए और द्रुत ऐसा कि लगे कहीं धड़कनों की रफ्तार न ठहर जाए! जिस खेल को गोरे अपना कहते हैं, वह सचिन के हाथों ग्वालियर में धन्य हुआ। खेल के रसिकों ने कैप्टन रूपसिंह मैदान में किक्रेट की सर्वोत्कृष्ठ पारी देखी, संगीत प्रेमियों ने तानसेन समारोह का आनंद लिया तो शायरी के चाहने वालों के लिए लिटिल मास्टर का हर अंदाज गालिब और मीर का शेर था। उनकी अदा में कभी बिहारी का श्रृंगार था तो कभी नजरूल की क्रांति। जिन्होंने भी यह पारी देखी उन्होंने क्रिकेट का शाही स्नान किया। महाकुंभ में पवित्र हुए। जो चूक गए वे तब-तब पछताएँगे, जब-जब इस महान पारी का जिक्र होगा।

सचिन की इस पारी से भारतीय क्रिकेट की छाती गजों चौड़ी हो गई है। क्रिकेट के हमारे पूवर्जों का तर्पण तो हुआ ही, स्वर्ग में बैठे डॉन ब्रेडमैन ने भी यह मैच देखकर सचिन का कद नापा होगा। दुनिया के वे किक्रेटर, जिन्हें सचिन के आसपास होने का भ्रम है जल भुन गए होंगे। जिन्होंने भी कभी हाथ में बल्ला पकड़ा होगा, उनके लिए एक बार फिर सचिन 'सुमेरु' हो गए। किक्रेट की दुनिया के बड़े-बड़े धुरंधर चार-छः साल मैदान में बिताने के बाद 'सन्यास' ले लेते हैं, लेकिन सचिन पिछले बीस वर्षों से एक दृढ 'सन्यासी' की तरह मैदान में साधनारत हैं और बल्ला कीर्तिमानों की फसल काट रहा है। ईश्वर ने अगर सचिन को क्रिकेट के लिए गढ़ा है तो सचिन ने क्रिकेट को अपने लिए।

ग्वालियर में सचिन क्रिकेट में नए राग की रचना कर रहे थे, क्रिकेट की किताब में निराला की तरह नया छंद गढ़ रहे थे, लियोनार्दो द विंची की तरह कोई मोनालिसा बना रहे थे।जिन्होंने भी यह मैच देखा उन्हें यकीन नहीं हो रहा था वे किक्रेट देख रहे हैं या कोई चमत्कार है जो उनकी आँखों के सामने घटित हो रहा है। वे अपनी एकाग्रता, कौशल और कलात्मकता से एकदिवसीय क्रिकेट के इतिहास में एक ऐसा हिमालय बना रहे थे, जिससे टकराकर पूर्व-पश्चिम की सारी हवाएँ शर्म से पानी-पानी हो जाएँ। इस हिमालय के समक्ष कुछ मस्तक श्रद्घा से नत हैं तो कुछ इसकी ताकत के आगे।

सचिन ने क्रिकेट को जिस तरह अश्वमेध यज्ञ की तरह साधा है, पूजा है और दिग्विजयी हुए हैं, निकट भविष्य में उनके छोड़े अश्व को पकड़ पाना किसी भी क्रिकेट के भूपति के वश की बात नहीं। क्रिकेट की इस मीनार को सलाम। इस ताजमहल को लाखों बोसे। देश की इस धड़कन को प्यार।


-ओम द्विवेदी