प्रिय प्रधानजी!
सच कहूँ तो आपको प्रिय कहने में भारी कष्ट होता है। लगता है आपको प्रिय कहा और जीभ जलकर राख हो गई, पर क्या करूँ, हम जन्म-जन्मांतर से दुश्मन को भी प्रिय कहते आए हैं, फिर आप तो हमारे भाग्य विधाता हैं। आपकी बात सुनकर कभी-कभी लगता है कि आपके मुँह पर थूक दूँ, लेकिन अपने फेफड़ों में इतना दम नहीं कि उसे दिल्ली तक पहुँचा सकूँ। वैसे भी हम इतने सहिष्णु हैं कि ज़हर खा लेंगे, फाँसी के फंदे पर झूल जाएँगे, अपने ऊपर ही थूक लेंगे, लेकिन किसी का दिल नहीं दुखाएँगे। आप हमारी क़िस्मत की बुनियाद रखते हैं, उसके कंगूरे बनाते हैं, ठीक तरीके से पुताई कर उसे चमाचम करते हैं। हमने अगर धोखे से भी आपको भला-बुरा कह दिया तो कुंभीपाक में सड़ेंगे। अगला जन्म बिगाड़ने से अच्छा है यहाँ जो कुछ ऊँच-नीच है सह लें।
हम जानते हैं आप हमारे लिए रात-दिन एक कर काम करते हैं। अपनी सीमा से उपर उठकर काम करते हैं। आपको बोलने में अतिशय कष्ट होता है फिर भी बोलते हैं। हिंदी बोलने में आपकी जिह्वा को हज़ार बार लकवा मारता है, फिर भी आप तीज-त्योहार पर बोलते हैं। विदेशों से शिक्षा-दीक्षा लेकर हमारे लिए इस निकृष्ठ देश में रहते हैं। जो देश दो कौड़ी के एक पेंटर को नहीं भाता, आप उस देश में तकलीफ सहते हैं। आप चाहें तो शिरडी के साँईनाथ की तरह सोने का सिंहासन बनवा लें और भक्तों से सुबह-शाम की आरती करवाएँ, फिर भी आप लोकसभा की अदना सी कुरसी पर बैठते हैं और निकृष्ठ विपक्षियों की गाली सुनते हैं। जो हाथ आप खुलेआम अमेरिका से मिलाते हैं, चोरी छिपे पाकिस्तान से मिलाते हैं, चीन-रूस से मिलाते हैं, उस महान हाथ को कभी-कभी भूखी जनता की ओर भी बढ़ा देते हैं। आपकी इस महानता पर प्रश्नचिन्ह लगाऊँ तो रौरव नरक में पड़ँू।
आपके राज में दिन दूनी-रात चौगुनी तरक्की हो रही है। सेठ-साहूकार बढ़ रहे हैं, अमीर बढ़ रहे हैं, शेयर और सोने के भाव बढ़ रहे हैं, मोटरकारें बढ़ रही हैं, हवाई जहाज़ बढ़ रहे हैं, साधु-संत बढ़ रहे हैं, एटमबम बढ़ रहे हैं, नेता बढ़ रहे हैं, वोटर बढ़ रहे है। चारों तरफ बसंत दिख रहा है। सबकुछ लहलहा रहा है। इन सबके बीच महँगाई बढ़ रही है और ग़रीब भी बढ़ रहे हैं। थोड़ी लूट-खसोट और भुखमरी बढ़ रही है। आतंक बढ़ रहा है, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दखल बढ़ रहा है। आपको बुरा तब कहें जब कुछ घट रहा हो। देश की सीमा अगर थोड़ा-बहुत घट भी जाएगी तो उससे क्या, वैसे भी हमारे यहाँ राजा जब प्रसन्न होता था तो दो-चार गाँव बाँट देता था। वे रिआया को बाँटते थे आप पड़ोसी मुल्कों को बाँट रहे हैं। आपके निरंतर बढ़ते प्रगतिशील सोच और दानवीरता को प्रणाम।
जब दाल-रोटी महँगी होती है और किराने की दुकान पर तनख्वाह रेगिस्तान के पानी की तरह पलभर में सूख जाती है तो लगता है बरसों पुरानी अपनी टूटी चप्पल की प्राण प्रतिष्ठा अख़बार में छपी आपकी फोटू पर कर डालूँ, विपक्षी दलों की तरह आपका पुतला फूँक दूँ। फिर लगता है इससे कुछ होता तो अब तक हो गया होता। भरी महफिल में पत्रकार ने मंत्री को जूता मारा, उससे क्या हुआ। आपने जबसे बता दिया है कि महँगाई देश की तरक्की के लिए बढ़ रही है, तबसे गुस्सा थोड़ा कम हुआ हैं। लगता है चलो हम भूख मर जाएँगे तो मर जाएँगे, लेकिन औलादें मज़े में रहेंगी। जबसे आपने कहा है कि महँगाई दुनिया की देन है तबसे मन को संतोष होता है। लगता है एक हमी महँगाई की मार से नहीं कराह रहे हैं, बिलबिला रहे हैं, बल्कि सारी दुनिया की पीठ इसी से लाल है। लगा जब दुनिया का बाज़ार हमारे देश में आकर हमें अपार सुख दे रहा है तो दुःख कहाँ जाएगा। मीठा खा-खाकर पेट में कीड़े हो रहे हैं तो कड़वा कौन गप करेगा। अतः यह महँगाई भी सिरोधार्य है और पूरे भक्तिभाव से दिल आपकी जय-जयकार कर रहा है।
लोग कहते हैं डीजल-पेट्रोल की क़ीमतें बढ़ाना आम आदमी के ख़िलाफ़ और आपने ऐसा करके जनविरोधी काम किया है। ऐसा अज्ञानीजन और स्त्री-किसान विरोधी लोग कहते हैं। आप स्त्रियों के कितने बड़े हित चिंतक है, इसका प्रमाण आपने संसद में महिला विधेयक पेश और कुछ-कुछ पास करवा कर दिया। आपको किसानों की चिंता है यह आपने आम बजट में कर्ज की व्यवस्था करके बताया है। सरकार से कर्ज लो और फसल सूखने के बाद भी तुम खूब फलो-फूलो। डीजल और पेट्रोल की क़ीमतें आपने इसलिए बढ़ाई हैं ताकि महिलाएँ पुरुष समाज से तंग आकर जलने-भुनने में इसका इस्तेमाल नहीं करें। किसान भी मरें तो कुएँ में कूदकर और फाँसी लगाकर नितांत देसी तरीके से मरें। दूर देश की धरती से आए इस बेशकीमती पदार्थ से नहीं। आपमें देश के प्रति प्रेम कूट-कूटकर भरा है, इसलिए अपने मुल्क को पराए मुल्क के तेल से जलाना नहीं चाहते। हम आपके देशप्रेम के आगे नतमस्तक हैं।
यूँ तो आप वैसे भी जनता की बात नहीं सुनते फिर भी मेरा निवेदन है कि कभी भी जनता के बहकावे में नहीं आएँ। यह जनता होती ही इतनी नासुकरी है कि उसे अपने पेट से मतलब होता है। उसे देश और दुनिया की तरक़्क़ी से न कोई लेना-देना है और न उसकी चिंता। उसे तो आपका नाम तक नहीं मालूम। वह तो केवल सरकार जानती है और उसी की जय-जयकार करती है। अब सरकार में घोड़ा है कि गधा, इससे भी उसका लेना-देना नहीं है। जनता पाँच साल में एक बार वोट डालती है, आप जिसके लिए दारू-कंबल बँटवा देते हो, उसके पक्ष में मतदान कर देती है। वोट देने के बाद हमेशा सरकार से नाराज़ रहती है। केरोसिन न मिले तो नाराज़, मज़दूरी न मिले तो नाराज़, ग़रीबी रेखा का कार्ड न मिले तो नाराज़, वृद्घावस्था पेंशन न मिले तो नाराज़, दलिया-दाल न मिले तो नाराज़। यह आज़ादी के पहले भी नाराज़ थी और आज़ादी के बाद भी नाराज़ है। यह नाराज़ न रहे तो मरी-मरी दिखती है। इसलिए आप तो जनता की सोचने की बजाय देश और विदेश की सोचो, वरना यह तुच्छ जनता आपको जीने नहीं देगी।
कुछ लोग कहते हैं कि आपके राज में इस देश को विदेशी ताक़तें चला रही हैं। हमारे देश में आतंकवादियों को पाकिस्तान चला रहा है, बाज़ार को चीन, जापान और अमेरिका चला रहा है, अर्थव्यवस्था को विश्वबैंक चला रहा है। व्यवस्था भगवान भरोसे। वे जगत निंदक यह नहीं जानते कि आपके पास चौबीसों घंटे एक विदशी ताकत है जो आपको चला रही है। आपने अपनी आत्मा उसके पास सुरक्षित रखी है। इसलिए उसकी आवाज़ आपके आत्मा की आवाज़ होती है। यह देश चीन, अमेरिका के भरोसे चले या भगवान के, चल तो रहा है। आपके सिर यह पाप तब जाए, जब देश रुक जाए। मैं आपके चलाने की क्षमता का कायल हूँ और जब तक यह देश चलता रहेगा तब तक आपकी जय-जयकार करते रहेंगे। मैं तो केवल देश के चलने पर यकीन करता हूँ, चला-चलाकर आप इसे कहाँ पहुँचाएँगे, यह आप जानें और आपकी सरकार।
आपका
जनता के बीच बजबजा रहा एक जन
4 टिप्पणियां:
व्यवस्था भगवान भरोसे-आपका पत्र भी भगवान ही पढ़ेंगे..साहब अभी ड्यूटी पर हैं.
विकास की तरह आगे ऐसे लेखन को भी नहीं बढ़ने दिया जाएगा.पर यह सार्थक लेखन तो है इसमें दोराय नहीं.
बहुत खूब लिखा है आप ने आज की (अ)व्यवस्था पर. "तो लगता है बरसों पुरानी अपनी टूटी चप्पल की प्राण प्रतिष्ठा अख़बार में छपी आपकी फोटू पर कर डालूँ" ये वाक्य पढ़ कर तो बरबस हंसी निकल पड़ी.
अरसा हो गया इतना सरस-सार्थक व्यंग पढ़े हुए। भाई साहब प्रधानमंत्री के त्यागों का ब्योरा रुला देने वाला है आंख भर आई है कंम्प्यूटर स्क्रीन पर कुछ दिख नहीं रहा सो बाकी बाद में।
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