शनिवार, 5 मई 2012

हंसी की शोक कथा


हंसने के लिए तैयार बैठा हूं, लेकिन हंसी है कि ही नहीं रही। दस-बीस चुटकुले पढ़ लिए, पेट में गुदगुदी कर ली, नेताओं के चेहरे देख लिए, खट्टी चटनी के साथ मिठाई खा ली, बिना बात पत्नी की तारीफ कर दी, मूर्ख अफसर को महापंडित कह दिया...फिर भी नहीं रही। आतंकियों की तरह नामुराद शरीर के जाने किस कोने में छिपी बैठी है। कहीं नक्सलियों ने इसे अगवा तो नहीं कर लिया, हम ताके बैठे रहें और उधर से चिठ्ठी जाए कि पहले हमारी हंसी रिहा करो, तब हम तुम्हारी करेंगे।

अपनी हंसी की तरह ही राजनीतिक दलों के लोग इस समय राष्ट्रपति का उम्मीदवार खोज रहे हैं। कोई अपने घर में ढूंढ रहा है तो कोई दूसरे के घर में। चप्पे-चप्पे में छापेमारी हो रही है, लेकिन उम्मीदवार लापता। आम सहमति का लतीफा सुनकर भी बाहर नहीं रहा। १२१ करोड़ की आबादी में वह जाने कहां छिपा है। मैं डरा बैठा हूं कि लोग कहीं मुझे पकड़ लें। पति होने के नाते राष्ट्रपति के उम्मीदवार की पात्रता तो मेरे पास भी है। अगर बना दिया तो फिर हंसी का क्या होगा? कैसे आएगी? वैसे इस उम्मीदवारी से अपने बचने की उम्मीद इसलिए है कि कमर धनुष नहीं बनी है और पांव कब्र में नहीं लटके हैं। सुबह-शाम विदेश टहलने के लिए वीजा-पासपोर्ट भी नहीं बना है। उम्मीदवार खोजने वाले भारतीय संस्कृति के होम गार्ड जवान भी हैं, वे जानते हैं कि अपन जैसे नौजवान टाइप के लोग अगर धोखे से उस आसन तक पहुंच गए तो सुख-सुविधा देखकर पगला जाएंगे और अमेरिका के क्लिंटन बाबू की तरह चुपके-चुपके आईपीएल खेलने लगेंगे। कुछ अपने पुरखों ने भी बचा लिया। उच्च कुल गोत्र देकर, ऊंची सियासत के लिए अछूत कर दिया।
जैसे चुनाव के समय नेताजी राजधानी से बाहर निकलने का मन करते हैं, अपनी हंसी भी कभी-कभार बाहर आने के लिए कुलबुलाती है। पुलिस के डंडों और सीबीआई की यातना के डर से जैसे विपक्ष वाले इंकलाबी मुठ्ठियां आहिस्ता से कुरते की जेब में डाल लेते हैं, हंसी भी अंतःपुर में प्रवेश कर जाती है। वह युवतियों की तरह डरती रहती है कि बाहर निकले और मनचले उसे छेड़ने लगें। उठाकर ले जाएं और सामूहिक दुष्कृत्य कर डालें। हंसी को याद है कि एक बार कौरवों को देखकर वह द्रोपदी के अंदर से फूट पड़ी थी। इसके बाद से पूरे हस्तिनापुर से उसका नामो-निशान मिट गया था। राम को राज सौंपने की बात पर दशरथ हंसे ही थे कि फिर बचे नहीं। राम जंगल और वे स्वर्गलोक। हंसी सोचती होगी कि यह आम आदमी जिंदा रहे इसलिए वह इस हाड़-मांस के पिंजरे में अपने को कैद किए हुए है। वह बालिका भ्रूण की तरह गर्भ में ही मर जाना चाहती है।

सच बताऊं हंसी ने सत्याग्रह कर दिया है। बाहर महंगाई खंजर लिए घूम रही है। सब्जी, रोटी, चावल, दाल सभी इस तरह मुंह फाड़े खड़े हैं कि आदमी को ही कौर बनाकर खा जाएं। खरीदने की जरूरत ही नहीं, भाव सुनकर ही लोगों की ह्दयगति रुकती है। ऊंट के मुंह में जीरा फिर भी बड़ा लगता है। महंगाई के मुंह में तनख्वाह की स्थिति तो उससे भी गई गुजरी है। भ्रष्टाचार इतना अधिक है कि छापा मारने वाले छापा नहीं मार पा रहे हैं, जुल्म इतना अधिक कि पुलिस कम पड़ रही है, न्याय देते-देते अदालतें थकी जा रही हैं और फाइलें घटने का नाम नहीं ले रहीं। हंसी बाहर आकर करेगी भी क्या? आएगी भी तो कितने दिन बाहर रह पाएगी? इसलिए उसने फैसला किया है कि जब तक बाहर का माहौल उसके लायक नहीं हो जाता वह अंदर ही रहेगी और जन-जन के लिए अनशन करेगी।

अपनी हंसी दुलहन की तरह सोलह श्रृंगार कर रही है, जब निकलेगी तो लोग ठगे रह जाएंगे। वह जनता के गुस्से की तरह अंदर बैठी खून का घूंट पी रही है, जिस दिन बाहर आएगी सरकारें खून के आंसू रोएंगी। वह बीज की तरह धरती के भीतर पक रही है, जिस दिन दिन निकलेगी धरती का सीना फोड़कर निकलेगी। वह मुखौटे की तरह होठों पर चस्पा नहीं होगी, बल्कि इस तरह करेगी अट्टहास कि आंसुओं का कलेजा दहल जाएगा।
  • ओम द्विवेदी

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