रविवार, 29 अप्रैल 2012

चाय की हाय नहीं लेना


राष्ट्रीय पेय के लिए दूध और चाय आमने-सामने, जैसे भारत और इंडिया की लड़ाई। सास-बहू का झगड़ा। एक की तरफ बोले तो दूसरे का मुंह फूला। दोनों ताल ठोंककर मैदान में आ गए हैं, इसलिए अब ऐसा नहीं हो सकता कि मां का आशीर्वाद भी मिलता रहे और बीवी का प्यार भी। धोती और तिलक छापकर भारतीय भी बने रहें और टाई-चश्मा टांगकर इंडियन भी। वोट देने का वक्त है तो वोटर तो बनना पड़ेगा। लोकतंत्र ने हमें पीट-पीटकर मुर्गा बनाया है बांग तो देनी पड़ेगी। साठ साल से जब घोड़ों और गधों को अपने मत का दान कर रहे हैं तो दूध और चाय ने अपना क्या बिगाड़ा है? लेकिन चुनाव आयोग से लेकर अण्णा हजारे तक अपना गला दबाए हुऐ हैं कि वोट सोच-समझकर दें, इसलिए सोच रहा हूं।

दूध के प्रति तो बचपन से अपना अनुराग रहा, लेकिन जबसे वह पानीदार हुआ है, मोह जाता रहा है। गंगा नहाए उतना तक तो ठीक, नाले-नाले मुंह मारता है। पानी से उसकी इतनी पक्की दोस्ती हो गई है जैसे पाकिस्तान और तालिबान की, हिंदुस्तान के नेताओं और भ्रष्टाचार की, अफसर और रिश्वत की। अपने राष्ट्रपिता की नजर से देखें तो यह निहायत हिंसा है। गाय अपने खून से बछड़े के लिए दूध बनाती है, बछड़ा आंखें फाड़े देखता रहता है और हम पूरा दूध निचोड़ लाते हैं। जब गाय अपने बछड़े के लिए बच्चे की मम्मी से दूध नहीं मांगती तो मम्मी अपने बच्चे के लिए बछड़े का हक क्यों मारती है? जिस दूध को लोग दूध का धुला मानते हैं उसकी हकीकत यह है कि उसमें सबसे पहले बछड़े का लार मिलता है। अगर उसी समय गाय या भैंस ने मूत्र विसर्जन कर दिया तो वहीं का वहीं 'पंचगव्य' बन जाता है।
एक दिन ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे होने लगी। लोग लाद-फांदकर डॉक्टर के पास ले गए। उसने पहली फुरसत में पूछ लिया- 'दूध-घी तो नहीं पीते-खाते?' मैं जनमों का चटोरा कैसे कह देता कि नहीं खाता। उसने कह दिया-'भुगतो, अंदर से बाहर तक चर्बी जम गई है, अब इसे यमराज ही उतारेगा।' चाय पीने वाले दोस्तों के बीच मैं जब भी एक गिलास दूध की फरमाइश करता हूं, तो वे नागपंचमी को यादकर मुझे कोबरा समझ बैठते हैं। इसे पीकर न जान बच रही है न सम्मान। ऐसे में दूध के पक्ष में बोलना अपनी कब्र खोदना है।
यूं तो दूध की नकारात्मक वोटिंग का लाभ चाय को मिलना चाहिए और पूर्ण बहुमत से उसकी सरकार बननी चाहिए, फिर भी चाय की कुछ विशेषताएं गिना दूं ताकि सनद रहें और वक्त पर काम आएं। चाय को अगर दूध से दूर रखा जाए तो यह ठेठ भारतीयों की तरह काली है। अंगे्रजों ने इसे इसीलिए पीना शुरू किया था ताकि सुबह-शाम उनको इस बात का एहसास होता रहे कि वे भारतीयों का खून पी रहे हैं। इस लिहाज से यह पूरी तरह से शोषित और सर्वहारा है। इसे सहानुभूति मिलनी चाहिए। दोस्त हो या दुश्मन, आपके पड़ोस में रहता हो या आपके देश के, चाय पीने सकता है। दोस्त है तो दोस्ती और पक्की होगी, दुश्मन है तो दोस्त बनेगा। यह दूध की तरह आपकी ताकत और चर्बी नहीं बढ़ाएगी, जमाने ने जो तनाव दिए हैं उसे दूर भगाएगी। यह दूध के साथ मिलेगी तो दूध का मजा देगी और नीबू के साथ मिलेगी तो नीबू का। यह कांग्रेस पार्टी की तरह सपा और बसपा दोनों से एकसाथ हाथ मिला सकती है, भाजपा की तरह ईमानदारी और बेईमानी दोनों को साथ-साथ साधने मे उस्ताद है। इसे अंग्रेजों की कृपा और भारतीयों का प्यार एकसाथ मिला हुआ है। अतः वोट की भी हकदार है।
राष्ट्रपिता बनकर महात्मा गांधी इस देश से विलुप्त हो गए, राष्ट्रीय पशु बाघ गायब होने की कगार पर है, राष्ट्रीय पक्षी मोर जंगल में नाचने के लिए भी नहीं बचे, राष्ट्रीय फूल कमल केवल पार्टी के झंडे पर खिल रहा है, राष्ट्रीय खेल हॉकी क्रिकेट के आगे गिड़गिड़ा रहा है, राष्ट्रगीत विवादों में उलाला-उलाला हो रहा है। अच्छा है चाय राष्ट्रीय पेय बन जाए, इसी बहाने दूध की लाज बचेगी।
-ओम द्विवेदी

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