गुरुवार, 25 मार्च 2010

नोटों की माला का अर्थात

बहनजी काँटों भरा सफ़र तय करके आलीशान सिंहासन तक पहुँची हैं, अतः फूलों की माला पहनकर वे काँटों का अपमान नहीं करना चाहतीं।वे जिस समाज का नेतृत्व करती हैं दुनिया आज भी उसे काँटा ही मानती है।दुनिया उस काँटे से अपने पाँव का चुभा काँटा निकालकर फिर उसे बाहर फेंक देती है।उस काँटे की बागड़ बनाकर फसलों और फूलों की रखवाली तो कर लेती है, लेकिन उसको सम्मान नहीं देती।जो फूल काँटों को हिकारत भरी नज़र से देखते हैं भला बहनजी उन फूलों को गले से कैसे लगाएँ।जो फूल समूचे काँटा जाति का संहार कर देना चाहते हैं उन्हें भला वे कैसे दिल के क़रीब रखतीं।इसीलिए उन्होंने फूलों की बजाय नोटों(काँटों)की माला पहन ली।

लोग समझते हैं कि बहनजी रुपयों की भूखी हैं। हमेशा धन बटोरती रहती हैं। कभी जन्मदिन पर, कभी पार्टी फंड के नाम पर तो कभी चुनाव में टिकट देने के नाम पर वे धन संग्रह करती हैं।कहने वालों की जिह्वा जले, लेकिन कहते तो वे यह भी हैं कि बहनजी उसी 'आम' को चूसती हैं, जिसके वोट से आलीशान सिंहासन हासिल करती हैं।बहनजी जहाँ भारतीय मुद्रा का स्पर्श करती हैं तो भाई लोगों का दिल-दिमाग हिलने लगता है।प्रदर्शन करने वाले लोग बहनजी का दर्शन क्या जानें।जिन मायावियों ने धन को माया कहकर सदियों तक लोगों को भरमाया, जिसके अभाव में उनके वोटर मज़दूर, खेतिहार, किसान और बेकार रह गए।उन्हीं रुपयों की माला पहनकर वे अपने वोटरों और भूख से मरें तमाम क्षूद्रजनों का तर्पण कर रही हैं।बहनजी उस माया को भी सम्मान दे रही हैं, जिसे कबीर ने महाठगिनी कहकर लज्जित किया था।आप कोई ठगी थोड़ी कर रही हैं।

बहनजी जानती हैं कि लोकतंत्र बिकाऊ है और उन्होंने यह राज अपने समर्थकों को बताया है।उन्हें मालूम है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, वह कोई कौड़ी दो कौड़ी में तो बिकने से रहा। जब गली-मोहल्लों में कमरे दो कमरे की ज़मीन करोड़ रुपए माँगने लगी है तो भला लोकतंत्र तो लोकतंत्र है। उसकी क़ीमत सारी दुनिया जानती है। इसमें संसद है, न्यायपालिका है, विधायिका है और मीडिया है।सब एक से एक क़ीमती। सबको ख़रीदना है तो पूंजी तो ज़रूरी है न! इस लोकतंत्र को अगर ऊँचे भवनों से देखना है तो मुख्यमंत्री निवास है, प्रधानमंत्री निवास है, राष्ट्रपति भवन है, राज्यपालों की अट्टालिकाएँ हैं, कलेक्टोरेट हैं, एसपी ऑफिस हैं, तहसीलदार, पटवारी तक हैं। सबको ख़रीदना कोई गाजर घास थोड़ी न है! तो बहनजी के प्राणप्यारे यह जानते हैं इसलिए अब वे उन्हें नोटों की माला पहना रहे हैं, जिससे वे थोड़ा-थोड़ा लोकतंत्र ख़रीदती रहें और एक दिन पूरा ख़रीद लें।इससे लोकतंत्र भी बचेगा और सदियों से सत्ता से बाहर धकेले गए लोगों को सत्ता भी मिलेगी।

जो लोग बहनजी के गले में नोटों की माला देखकर जल-हैं भुन रहे और बहनजी की आलोचना कर रहे हैं, दरअसल वे पर्यावरण और प्रकृति के सबसे बड़े दुश्मन हैं। वे नककटे आलोचक यह नहीं जानते कि बहनजी पर्यावरण की रक्षा का पावन संकल्प ले चुकी हैं। वे कली-कली से, पत्ते-पत्ते से, तने-तने और जड़-जड़ से प्यार करने लगी हैं। वे फूलों की माला पहनेंगी तो कितनी टहनियां बाँझ हो जाएँगी, फूलों के कितने पौधे सिसक-सिसककर रोएँगे। वे अगर एक माला रा़ेज भी पहनती हैं तो कुछ दिन में अच्छे फूलों की प्रजाति ख़त्म हो जाएगी।फूल माला बनने के बाद सूख जाएँगे, लेकिन माला बनने के बाद नोटों का हरापन और बढ़ेगा। बहनजी के गले में पहुँचकर नोट और इतराएँगे। नोट पर बैठे गाँधीबाबा जब बहनजी से भेंट करेंगे तो राम से लेकर कांशीराम तक परम प्रसन्न होंगे।नोटों की इस माला में पतझर को स्थान नहीं, यहाँ हमेशा बसंत रहेगा।

रे नामुरादों! बहनजी 'अछूतोद्घार' की तरह 'नोटोद्घार' कर रही हैं।दूसरे दलों के कुबेर इन्हीं नोटों के दमपर इतराते हैं, लेकिन जब सार्वजनिक रूप से इन्हें स्वीकार करने की बात आती है तो नाक-भौं सिकोड़ते हैं।कमरों और तहख़ानों में लेन-देन होता है, लेकिन बाहर सन्यासी बने रहते हैं।गुपचुप लेन-देन करते हैं और विदेशी बैंक भरते हैं।बहनजी को इन नोटों पर दया आई और उन्होंने तय किया कि वे इन नोटों का उद्घार करेंगी।उन्होंने नोटों को सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया।जिसे मूढजन भ्रष्टाचार कहते थे, बहनजी ने उसे शिष्टाचार बना दिया है।जिसे भी नोटों का 'उद्घार' करवाना हो वे उनके दर पर जा सकते हैं।उनके चहेतों की चाह है कि वे यह माला पहनकर दिल्ली जाएँ और लाल किला पर झंडा फहराएँ।बहनजी यह जानती हैं नोटों की माला से ही वोटों का सफर तय होगा।

गुरुवार, 11 मार्च 2010

प्रधानजी के नाम ख़त

प्रिय प्रधानजी!

सच कहूँ तो आपको प्रिय कहने में भारी कष्ट होता है। लगता है आपको प्रिय कहा और जीभ जलकर राख हो गई, पर क्या करूँ, हम जन्म-जन्मांतर से दुश्मन को भी प्रिय कहते आए हैं, फिर आप तो हमारे भाग्य विधाता हैं। आपकी बात सुनकर कभी-कभी लगता है कि आपके मुँह पर थूक दूँ, लेकिन अपने फेफड़ों में इतना दम नहीं कि उसे दिल्ली तक पहुँचा सकूँ। वैसे भी हम इतने सहिष्णु हैं कि ज़हर खा लेंगे, फाँसी के फंदे पर झूल जाएँगे, अपने ऊपर ही थूक लेंगे, लेकिन किसी का दिल नहीं दुखाएँगे। आप हमारी क़िस्मत की बुनियाद रखते हैं, उसके कंगूरे बनाते हैं, ठीक तरीके से पुताई कर उसे चमाचम करते हैं। हमने अगर धोखे से भी आपको भला-बुरा कह दिया तो कुंभीपाक में सड़ेंगे। अगला जन्म बिगाड़ने से अच्छा है यहाँ जो कुछ ऊँच-नीच है सह लें।

हम जानते हैं आप हमारे लिए रात-दिन एक कर काम करते हैं। अपनी सीमा से उपर उठकर काम करते हैं। आपको बोलने में अतिशय कष्ट होता है फिर भी बोलते हैं। हिंदी बोलने में आपकी जिह्वा को हज़ार बार लकवा मारता है, फिर भी आप तीज-त्योहार पर बोलते हैं। विदेशों से शिक्षा-दीक्षा लेकर हमारे लिए इस निकृष्ठ देश में रहते हैं। जो देश दो कौड़ी के एक पेंटर को नहीं भाता, आप उस देश में तकलीफ सहते हैं। आप चाहें तो शिरडी के साँईनाथ की तरह सोने का सिंहासन बनवा लें और भक्तों से सुबह-शाम की आरती करवाएँ, फिर भी आप लोकसभा की अदना सी कुरसी पर बैठते हैं और निकृष्ठ विपक्षियों की गाली सुनते हैं। जो हाथ आप खुलेआम अमेरिका से मिलाते हैं, चोरी छिपे पाकिस्तान से मिलाते हैं, चीन-रूस से मिलाते हैं, उस महान हाथ को कभी-कभी भूखी जनता की ओर भी बढ़ा देते हैं। आपकी इस महानता पर प्रश्नचिन्ह लगाऊँ तो रौरव नरक में पड़ँू।

आपके राज में दिन दूनी-रात चौगुनी तरक्की हो रही है। सेठ-साहूकार बढ़ रहे हैं, अमीर बढ़ रहे हैं, शेयर और सोने के भाव बढ़ रहे हैं, मोटरकारें बढ़ रही हैं, हवाई जहाज़ बढ़ रहे हैं, साधु-संत बढ़ रहे हैं, एटमबम बढ़ रहे हैं, नेता बढ़ रहे हैं, वोटर बढ़ रहे है। चारों तरफ बसंत दिख रहा है। सबकुछ लहलहा रहा है। इन सबके बीच महँगाई बढ़ रही है और ग़रीब भी बढ़ रहे हैं। थोड़ी लूट-खसोट और भुखमरी बढ़ रही है। आतंक बढ़ रहा है, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दखल बढ़ रहा है। आपको बुरा तब कहें जब कुछ घट रहा हो। देश की सीमा अगर थोड़ा-बहुत घट भी जाएगी तो उससे क्या, वैसे भी हमारे यहाँ राजा जब प्रसन्न होता था तो दो-चार गाँव बाँट देता था। वे रिआया को बाँटते थे आप पड़ोसी मुल्कों को बाँट रहे हैं। आपके निरंतर बढ़ते प्रगतिशील सोच और दानवीरता को प्रणाम।

जब दाल-रोटी महँगी होती है और किराने की दुकान पर तनख्वाह रेगिस्तान के पानी की तरह पलभर में सूख जाती है तो लगता है बरसों पुरानी अपनी टूटी चप्पल की प्राण प्रतिष्ठा अख़बार में छपी आपकी फोटू पर कर डालूँ, विपक्षी दलों की तरह आपका पुतला फूँक दूँ। फिर लगता है इससे कुछ होता तो अब तक हो गया होता। भरी महफिल में पत्रकार ने मंत्री को जूता मारा, उससे क्या हुआ। आपने जबसे बता दिया है कि महँगाई देश की तरक्की के लिए बढ़ रही है, तबसे गुस्सा थोड़ा कम हुआ हैं। लगता है चलो हम भूख मर जाएँगे तो मर जाएँगे, लेकिन औलादें मज़े में रहेंगी। जबसे आपने कहा है कि महँगाई दुनिया की देन है तबसे मन को संतोष होता है। लगता है एक हमी महँगाई की मार से नहीं कराह रहे हैं, बिलबिला रहे हैं, बल्कि सारी दुनिया की पीठ इसी से लाल है। लगा जब दुनिया का बाज़ार हमारे देश में आकर हमें अपार सुख दे रहा है तो दुःख कहाँ जाएगा। मीठा खा-खाकर पेट में कीड़े हो रहे हैं तो कड़वा कौन गप करेगा। अतः यह महँगाई भी सिरोधार्य है और पूरे भक्तिभाव से दिल आपकी जय-जयकार कर रहा है।

लोग कहते हैं डीजल-पेट्रोल की क़ीमतें बढ़ाना आम आदमी के ख़िलाफ़ और आपने ऐसा करके जनविरोधी काम किया है। ऐसा अज्ञानीजन और स्त्री-किसान विरोधी लोग कहते हैं। आप स्त्रियों के कितने बड़े हित चिंतक है, इसका प्रमाण आपने संसद में महिला विधेयक पेश और कुछ-कुछ पास करवा कर दिया। आपको किसानों की चिंता है यह आपने आम बजट में कर्ज की व्यवस्था करके बताया है। सरकार से कर्ज लो और फसल सूखने के बाद भी तुम खूब फलो-फूलो। डीजल और पेट्रोल की क़ीमतें आपने इसलिए बढ़ाई हैं ताकि महिलाएँ पुरुष समाज से तंग आकर जलने-भुनने में इसका इस्तेमाल नहीं करें। किसान भी मरें तो कुएँ में कूदकर और फाँसी लगाकर नितांत देसी तरीके से मरें। दूर देश की धरती से आए इस बेशकीमती पदार्थ से नहीं। आपमें देश के प्रति प्रेम कूट-कूटकर भरा है, इसलिए अपने मुल्क को पराए मुल्क के तेल से जलाना नहीं चाहते। हम आपके देशप्रेम के आगे नतमस्तक हैं।

यूँ तो आप वैसे भी जनता की बात नहीं सुनते फिर भी मेरा निवेदन है कि कभी भी जनता के बहकावे में नहीं आएँ। यह जनता होती ही इतनी नासुकरी है कि उसे अपने पेट से मतलब होता है। उसे देश और दुनिया की तरक़्क़ी से न कोई लेना-देना है और न उसकी चिंता। उसे तो आपका नाम तक नहीं मालूम। वह तो केवल सरकार जानती है और उसी की जय-जयकार करती है। अब सरकार में घोड़ा है कि गधा, इससे भी उसका लेना-देना नहीं है। जनता पाँच साल में एक बार वोट डालती है, आप जिसके लिए दारू-कंबल बँटवा देते हो, उसके पक्ष में मतदान कर देती है। वोट देने के बाद हमेशा सरकार से नाराज़ रहती है। केरोसिन न मिले तो नाराज़, मज़दूरी न मिले तो नाराज़, ग़रीबी रेखा का कार्ड न मिले तो नाराज़, वृद्घावस्था पेंशन न मिले तो नाराज़, दलिया-दाल न मिले तो नाराज़। यह आज़ादी के पहले भी नाराज़ थी और आज़ादी के बाद भी नाराज़ है। यह नाराज़ न रहे तो मरी-मरी दिखती है। इसलिए आप तो जनता की सोचने की बजाय देश और विदेश की सोचो, वरना यह तुच्छ जनता आपको जीने नहीं देगी।

कुछ लोग कहते हैं कि आपके राज में इस देश को विदेशी ताक़तें चला रही हैं। हमारे देश में आतंकवादियों को पाकिस्तान चला रहा है, बाज़ार को चीन, जापान और अमेरिका चला रहा है, अर्थव्यवस्था को विश्वबैंक चला रहा है। व्यवस्था भगवान भरोसे। वे जगत निंदक यह नहीं जानते कि आपके पास चौबीसों घंटे एक विदशी ताकत है जो आपको चला रही है। आपने अपनी आत्मा उसके पास सुरक्षित रखी है। इसलिए उसकी आवाज़ आपके आत्मा की आवाज़ होती है। यह देश चीन, अमेरिका के भरोसे चले या भगवान के, चल तो रहा है। आपके सिर यह पाप तब जाए, जब देश रुक जाए। मैं आपके चलाने की क्षमता का कायल हूँ और जब तक यह देश चलता रहेगा तब तक आपकी जय-जयकार करते रहेंगे। मैं तो केवल देश के चलने पर यकीन करता हूँ, चला-चलाकर आप इसे कहाँ पहुँचाएँगे, यह आप जानें और आपकी सरकार।

आपका

जनता के बीच बजबजा रहा एक जन

गुरुवार, 4 मार्च 2010

अद्‌भुत...अकल्पनीय...

दोस्तों, कई महीनों बाद ब्लॉग पर अपना मिलना हो रहा है। ग्वालियर में सचिन तेंदुलकर ने २०० रन बनाकर एकदिवसीय मैचों के इतिहास में विश्व कीर्तिमान रचा। २४ फरवरी को ही नईदुनिया के लिए मैंने यह टिप्पणी लिखी। पोस्ट करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा। विलंब के लिए क्षमा याचना सहित...

अद्‌भुत...अकल्पनीय...अविश्वसनीय...अविस्मरणीय...अद्वितीय...अतुलनीय...शब्दकोष में इस तरह के जितने भी शब्द हैं, आज इस बल्लेबाजी पर कुर्बान। ग्वालियर किले की प्राचीरों से इतिहास सचिन की क्रिकेट कला प्रदर्शनी देखने के लिए बार-बार सिर उठा रहा था। मजार से मियाँ तानसेन झाँक रहे थे कि कौन है जो गले से नहीं बल्ले से राग हिंडोल, मुलतानी , मालकोस और यमन सुना रहा है... कौन है जो करोड़ों लोगों को सम्मोहित किए हुए लकड़ी के बल्ले से ही कभी दादरा तो कभी ठुमरी गा रहा है। बल्ले की गायकी ऐसी कि विलंबित में आत्मा निचुड़ जाए और द्रुत ऐसा कि लगे कहीं धड़कनों की रफ्तार न ठहर जाए! जिस खेल को गोरे अपना कहते हैं, वह सचिन के हाथों ग्वालियर में धन्य हुआ। खेल के रसिकों ने कैप्टन रूपसिंह मैदान में किक्रेट की सर्वोत्कृष्ठ पारी देखी, संगीत प्रेमियों ने तानसेन समारोह का आनंद लिया तो शायरी के चाहने वालों के लिए लिटिल मास्टर का हर अंदाज गालिब और मीर का शेर था। उनकी अदा में कभी बिहारी का श्रृंगार था तो कभी नजरूल की क्रांति। जिन्होंने भी यह पारी देखी उन्होंने क्रिकेट का शाही स्नान किया। महाकुंभ में पवित्र हुए। जो चूक गए वे तब-तब पछताएँगे, जब-जब इस महान पारी का जिक्र होगा।

सचिन की इस पारी से भारतीय क्रिकेट की छाती गजों चौड़ी हो गई है। क्रिकेट के हमारे पूवर्जों का तर्पण तो हुआ ही, स्वर्ग में बैठे डॉन ब्रेडमैन ने भी यह मैच देखकर सचिन का कद नापा होगा। दुनिया के वे किक्रेटर, जिन्हें सचिन के आसपास होने का भ्रम है जल भुन गए होंगे। जिन्होंने भी कभी हाथ में बल्ला पकड़ा होगा, उनके लिए एक बार फिर सचिन 'सुमेरु' हो गए। किक्रेट की दुनिया के बड़े-बड़े धुरंधर चार-छः साल मैदान में बिताने के बाद 'सन्यास' ले लेते हैं, लेकिन सचिन पिछले बीस वर्षों से एक दृढ 'सन्यासी' की तरह मैदान में साधनारत हैं और बल्ला कीर्तिमानों की फसल काट रहा है। ईश्वर ने अगर सचिन को क्रिकेट के लिए गढ़ा है तो सचिन ने क्रिकेट को अपने लिए।

ग्वालियर में सचिन क्रिकेट में नए राग की रचना कर रहे थे, क्रिकेट की किताब में निराला की तरह नया छंद गढ़ रहे थे, लियोनार्दो द विंची की तरह कोई मोनालिसा बना रहे थे।जिन्होंने भी यह मैच देखा उन्हें यकीन नहीं हो रहा था वे किक्रेट देख रहे हैं या कोई चमत्कार है जो उनकी आँखों के सामने घटित हो रहा है। वे अपनी एकाग्रता, कौशल और कलात्मकता से एकदिवसीय क्रिकेट के इतिहास में एक ऐसा हिमालय बना रहे थे, जिससे टकराकर पूर्व-पश्चिम की सारी हवाएँ शर्म से पानी-पानी हो जाएँ। इस हिमालय के समक्ष कुछ मस्तक श्रद्घा से नत हैं तो कुछ इसकी ताकत के आगे।

सचिन ने क्रिकेट को जिस तरह अश्वमेध यज्ञ की तरह साधा है, पूजा है और दिग्विजयी हुए हैं, निकट भविष्य में उनके छोड़े अश्व को पकड़ पाना किसी भी क्रिकेट के भूपति के वश की बात नहीं। क्रिकेट की इस मीनार को सलाम। इस ताजमहल को लाखों बोसे। देश की इस धड़कन को प्यार।


-ओम द्विवेदी