रविवार, 18 दिसंबर 2011

मौन हुई जनता की जुबान

जनता की जुबान मौन हो गई। बड़े-बड़े तूफानों का भी रुख मोड़ देने वाला विशालकाय पहाड़ अपने आप भरभराकर गिर पड़ा। मौत की काली बिल्ली ने उसके चेहरे पर पंजा मार दिया। जिंदगी को जीने का सलीका सिखाने वाला, अपनी ही सांसों से रूठ गया। जो दिन-रात बीमार व्यवस्था को बदलने के ख्वाब देखता था, बीमारी उसे ही लील गई। हमारे समय का सबसे बड़ा जनवादी हिंदी शायर रदीफ-काफियों को बिलखता हुआ छोड़कर चला गया। सपनों के हरियाने के पहले ही आंखें चिरनिद्रा में लीन हो गईं। हां! अब अदम गोंडवी कवि सम्मेलनों और मुशायरों में अपनी गजल कहते नहीं मिलेंगे। अब उनकी शायरी जरूर उनके बारे में बताएगी।

रामनाथ सिंह ने शायरी लिखने के दौरान केवल अपना नाम ही नहीं बदला, अदम गोंडवी बनकर उन्होंने शायरी की शक्ल भी बदली। दुष्यंत ने जिस हिंदी शायरी में जनता का दर्द शामिल किया था, अदम ने उसे जनता की जुबान बना दिया। उत्तर प्रदेश की जिस जमीन से तुलसी, सूर और कबीर ने कभी भक्ति की धारा बहाई थी, उसी जमीन से अदम ने शायरी में ऐसा इंकलाब पैदा किया, जिसे सुनकर कुरसियों के पाये हिलने लगे। सत्ताधीशों से तंग होकर जनता की जो जिह्वा लकवाग्रस्त होने लगी थी, उसे उन्होंने बोलना सिखाया। गजल को गांव, गरीब और किसान की चिंता करना सिखाया। अदम ही थे जो रोशनी के शिकारियों को पहचानते थे और अपनी दिव्यदृष्टि से देख सकते थे-'जो उलझ कर रह गई फाइलों के जाल में, गांव तक वो रोशनी आएगी कितने साल में।' इतना ही नहीं, वे उस षडयंत्र को भी जानते और पहचानते थे जो लोकतंत्र के नाम पर हमारी भोली-भाली निरीह जनता को छल रहा था। अदम ही थे जो राजधानियों के चरित्र को एक्स-रे मशीन की तरह देख सकते थे और ताल ठोककर कह सकते थे-' काजू भुने प्लेट में व्हीस्की गिलास में, उतरा है रामराज विधायक निवास में।' तुलसी ने जिस रामराज की सुखद कल्पना की थी, अदम ने उसकी नंगी तस्वीर दिखाई।

इस तरह की उनकी कई गजलें हैं जो जनगीत हैं और जब जनता व्यवस्था को गाली देती है तो उनसे शब्द उधार लेती है। उन्हीं से शब्द लेकर जनता व्यवस्था को उसकी औकात बताती है। इप्टा के कलाकार जब भी अदम के गीत गाते हैं तो सुनने वालों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं और दिल में शोले भड़कते हैं। जब देश में साम्प्रदायिकता की आग जल रही होती है, तब उनके शोर दिल में अमन का पैगाम बनकर उतर जाते हैं-

हिंदू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए।

अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िए।

हैं कहां हिटलर हलाकू जार या चंगेज खां,

मिट गए सब, कौम की औकात को मत छेड़िए।

छेड़िए इक जंग मिल-जुलकर गरीबी के खिलाफ,

दोस्त मेरे मजहबी नगमात को मत छेड़िए।

२२ अक्टूबर १९४७ को जन्में अदम गोंडवी भारत की आजादी के साथ-साथ ही बड़े हुए, लेकिन उन्होंने आजादी की जो शक्ल देखी वह बहुत ही खौफनाक और तकलीफ देने वाली थी। जो गरीब अवाम इस देश की भाग्य विधाता है, उन्होंने उसके सपनों को मरते देखा। जिसने अपने खून-पसीने इस मुल्क का मुकद्दर रचा, उसे उन्होंने तिल-तिल कर मिटते देखा। वे राजधानी में रहकर गरीबी और मुफलिसी पर शायरी नहीं कर रहे थे, बल्कि पूरी उम्र गोंडा जिले के आटा परसपुर गाह्णव में रहे और वहीं से राजधानी के शायरों को चुनौती देते रहे। ठीक उसी तरह जिस तरह जनकवि केदारनाथ अग्रवाल ने बांदा में रहकर गरीबों और मजलूमों के गीत रचे थे। अदम के केवल दो कविता संग्रह 'धरती की सतह पर' और 'समय से मुठभेड़' प्रकाशित हुए। इन्हीं दोनों संग्रहों ने उन्हें जनता की जुबान पर राज करने वाला शायर बना दिया। मुक्तिबोध मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में बीमारी से लड़ते हुए मरे थे, अदम उप्र की राजधानी लखनऊ में बीमारी से ही जूझते हुए मरे। सरस्वती पुत्रों को बचाने की ललक हमारी व्यवस्था में न तब थी, न आज है। बहरहाल जब-जब हमारे भीतर बगावत की आग जलेगी, अदम अपने शेर समर्पित करेंगे। ऐसे आदमकद अदम को आदाब...श्रधांजलि।

-ओम द्विवेदी


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