सोमवार, 26 दिसंबर 2011

मौत से भी करवाई जमकर रिहर्सल

हिंदी रंगमंच की धड़कन ठहर गई। अभिनेताओं को पहचानने और तराशने वाला जौहरी अपनी काया से स्वतंत्र हो गया। मंच पर पात्रों को जीवंत करने वाला महान रंगकर्मी, लेखनी से नए चरित्रों को गढ़ने वाला सर्जक, अपनी सक्रियता से पचास साल तक रंगमंच को नए तेवर और नई ऊर्जा देने वाला युगपुरुष दुनिया के रंगमंच से विदा हो गया। हिंदी नाटकों और हिंदी फिल्मों को प्राण सौंपने वाला कलाकार और लेखक प्राणहीन हो गया। उनके गढ़े गए सारे पात्र अनाथ हो गए। जैसे उनकी लेखनी से निकले शब्दों से किसी ने अर्थ खींच लिया। जो पुरस्कार पं. सत्यदेव दुबे को पाकर गर्व महसूस करते थे, उन पुरस्कारों की आंखें अश्रुपूरित हैं। सभागार में सन्नाटा है। अस्पताल में पिछले कई महीने से कोमा में रहकर जिस मौत की रिहर्सल कर रहे थे, उसका शो भी कर दिया पं. सत्यदेव दुबे ने। ठीक किसी नाटक की तरह।

मध्यप्रदेश (तब छत्तीसगढ़ नहीं था) के बिलासपुर में जन्मे (१९३६) पं. दुबे क्रिकेटर बनने का ख्वाब लिए मुंबई पहुह्णचे थे और इब्राहिम अल्काजी के 'थियेटर यूनिट' में रहते हुए महान नाट् निर्देशक बने। हाथ में बल्ला और गेंद पकड़ने की बजाय उन्होंने समाज में बिखरे चरित्रों को पकड़ना और उन्हें जीवंत करना शुरू कर दिया। सत्यदेव दुबे ने १९५६ बीस साल की उम्र में नाटकों का निर्देशन शुरू किया। इब्राहिम अल्काजी राष्ट्रीय नाट् विद्यालय के निदेशक बनकर दिल्ली चले गए और मुंबई में दुबेजी ने 'थियेटर यूनिट' संभाला। एक के बाद एक बेहतरीन नाटकों की प्रस्तुति शुरू हो गई। उन्होंने जिन नाटकों को निर्देशन के लिए चुना वे उस समय के सबसे कठिन और चुनौती पूर्ण नाटक थे। गिरीश कर्नाड के नाटक 'ययाति' और 'हयवदन', बादल सरकार के नाटक 'एवं इंद्रजीत' और 'पगला घोड़ा', चंद्रशेखर का 'और तोता बोला', मोहन राकेश का 'आधे-अधूरे' और विजय तेंदुल्कर का 'खामोश अदालत जारी है' नाटक खेलकर उन्होंने जहां एक ओर हिंदी नाटकों की सीमा को अन्य भारतीय भाषाओं की सरहदों तक पहुंचाया, वहीं दूसरी ओर बेहद कल्पनाशील और सशक्त निर्देशक होने का परिचय भी दिया। धर्मवीर भारती के 'अंधायुग' को उन्होंने पूरी काव्य संवेदनाओं के साथ मंच पर प्राणवंत किया। पं. वसंत देव, धर्मवीर भारती और भवानी प्रसाद मिश्र जैसे लेखकों और कवियों की संगत में उन्होंने अपने आपको इस तरह संवारा कि रंगमंच को एक नई दृष्टि मिल सकी।

साठ से अस्सी के दशक में हिंदी थिएटर में पं. सत्यदेव दुबे की तूती बोलती थी। हिंदी फिल्मों का आदमकद अभिनेता अमरीश पुरी भी अभिनय के गुर सीखने के लिए उनके समक्ष पूरी विनम्रता से खड़ा रहता था। उन्होंने हिंदी थिएटर की रगों में दौड़ने वाले लहू को रफ्तार तो दी ही, हिंदी फिल्मों को भी अपनी कलम की ऊर्जा और रचनात्मकता प्रदान की। अंकुर, निशांत, भूमिका, जुनून, कलयुग, आक्रोश, विजेता मंडी जैसी फिल्मों के लिए संवाद और स्क्रीनप्ले लिखे। १९७८ में श्याम बेनेगल की फिल्म 'भूमिका' में स्क्रीन प्ले लिए नेशनल फिल्म अवार्ड मिला तो १९८० में 'जुनून' में संवाद लेखन के लिए फिल्म फेयर। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी उन्हें प्राप्त हुआ। रंगमंच में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने इसी वर्ष उन्हें पद्मभूषण से नवाजा।

मुंबई में सशक्त मराठी थिएटर के बीच रहते हुए उन्होंने उससे ईष्या करने की बजाय, उससे सीखा और उसमें अपना हर संभव योगदान दिया। विजय तेंदुल्कर के नाटक पर आधारित 'शांतता कोर्ट चालू आहे' फीचर फिल्म बनाकर उन्होंने मराठी नाटककारों और मराठी दर्शक दोनों का कर्ज उतारा। रंगमंच से जुड़े जो लोग पं. दुबे को जानते हैं वे उनके रंगमंच के पागलपन और उनकी सनक को भी बेहतर तरीके से पहचानते हैं। रिहर्सल के दौरान बात-बात पर उखड़ जाना, अभिनेता से बौद्घिक और मानसिक रूप से उन्हीं की तरह परिपक्व होने की अपेक्षा करना तथा समय पर रिहर्सल के लिए पहुंचना उनकी आदत में था। संभवतः जीवनभर अकेले रहने के कारण उनके भीतर उद्विग्नता और जल्दबाजी भर गई थी। सच तो यह है कि वे अभिनेता को इतना सक्षम और सुदृढ़ बनाना चाहते थे कि कोई भी थिएटर को दोयम दर्जे का काम कह सके। रंगमंच का शिक्षक, अभिनय का गुरु और जीवन का योद्घा चला गया। पृथ्वी थिएटर सहित हिंदी का तमाम रंगमच भविष्य में जब भी कभी पं. सत्यदेव दुबे को याद करेगा तो सिसकिया जरूर भरेगा। जिन अभिनेताओं ने उनके साथ काम किया है, वे अब जीवनभर उनके जैसा गुरु नहीं खोज पाएंगे और जिन्होंने उनके साथ काम नहीं किया है, वे इस बात का पश्चाताप करेंगे कि उन्हें पं. दुबे क्यों नहीं मिले?

ओम द्विवेदी

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