मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

रात बना ही लेती है एक सूरज

जैसे समंदर
बादल बनाता है चुपके-चुपके
कुम्हार गुनगुनाते हुए
मिट्टी को बना देता है घड़ा
गाय घास को
बहुत ही खामोशी से दूध बना देती है
भोर आते-आते तक
रात बना ही लेती है एक सूरज

जैसे खाद बिना ढिंढोरा पीटे
फसल को करती है हरा
रोटी बिना मुनादी किए
भूख को बदलती है तृप्ति में
जैसे परिंदे बीजों को
सहज ही ले जाते हैं मरुस्थल में
वैद्य बीमारी को बनाता है स्वास्थ्य
लोहार लोहे में बना देता है धार

मैं अपने सबसे बुरे दिनों को
सबसे अच्छा बनाने में लगा हूं।
-ओम द्विवेदी

कोई टिप्पणी नहीं: