रविवार, 27 सितंबर 2009

माँ-भक्त संवाद-चार

-भक्तों! धुएँ से मेरा दम घुट रहा है, शोर से मेरे कान फटे जा रहे हैं, तुम्हारे इन अश्लील नृत्यों मेरी आँखें शर्म से झुकी जा रही हैं। अब मुझे मुक्त करो। मुक्ति दो मुझे।

-कैसी बात कर रही हो माँ! हम भक्तों को मुक्त करना तो तुम्हारा काम है। तुम स्वयं कैसे मुक्त होने की बात करने लगी। इस तरह चल दोगी तो हमे कौन मुक्त करेगा। और यह धुआँ नहीं है माँ! हवन है, तुम्हारा भोजन। और जिसे तुम शोर कह रही है, यह तुम्हारी भक्ति में गाया जा रहा गीत है। इसे अश्लील नृत्य मत कहो, यह तो गरबे की महान परंपरा है। पूरा देश कर रहा है। टीवी में भी तो हो रहा है।

-अगर हवन भोजन है और यह शोर भक्ति, तो खीर-मलाई छोड़कर दो-चार दिन तुम भी यही भोजन करके देखो।

-माँ! आप इतनी अनजान मत बनो। हम लोग बीड़ी-सिगरेट से लेकर गाँजे के दम तक कितना धुआँ पीते हैं, यह तो तुम पूरे नौ दिन देखती ही हो। सड़क पर चलते हुए चौबीस घंटे मोटरों-कारों का धुआँ भी हम ही पीते हैं। धुआँ पी-पीकर ही हम सीने में दम भरे हुए हैं। और तुम कितना शोर सुनती हो माँ! अधिक से अधिक नौ दिन ही न! हम लोग तो सोते-जागते गाड़ियों की घर्र-घर्र, हार्न की चिल्ल-पों सुनते हैं। यह सुनकर हमारे कान इतने पक्के हो गए हैं कि तुम जिसे शोर कहती हो, वह हमे संगीत लगता है।

-फिर भी अब नौ दिन का कर्मकांड पूरा हो गया है।

-तुम कहो या न कहो, चाहो या न चाहो, अब तो हम तुम्हें प्रवाहित करेंगे ही। नौ दिन के बाद तुम्हारा विसर्जन आवश्यक है।

-देखो न! तुम मुझे माँ भी कहते हो और मेरा जन्म और मेरी मृत्यु भी तय करते है। मेरी स्थापना भी तुम्हीं तय करते हो और मेरा विसर्जन भी। ऐसा लगता है जैसे मैं तुम्हारी माँ नहीं, तुम मेरे जनक हो। इस मंडप में मैं वैसे ही बैठी हूँ, जैसे तुम्हारी माँ घर भर की प्रताड़ना सहकर देहरी पर बैठी रहती है।

-मेरी बात पर मत जाओ,मेरी भावनाओं को दखो माँ!

-तुम्हारी भावनाएँ ही तो देख रही हूँ पुत्र।

-अगले बरस तो फिर आओगी न!

-यह भी मैं कहाँ तय करती हूँ। यह तो तुम्हारे मोहल्ले का चंदा तय करेगा। जैसा तुमने कहा था मालामाल जी तय करेंगे। विराजोगे तो स्थापित हो जाऊँगी। विस्थापित करोगे, विस्थापित हो जाऊँगी।

-ऐसी बात करके जाते-जाते हम लोगों को रुलाओ नहीं माँ!

-चलो अच्छा बता दिया तुमने कि तुम्हें रोना भी आता है। मैं तो समझ रही थी कि तुम्हें केवल रुलाना आता है।

-अच्छा बताओ माँ तुम्हें किस नदी में प्रवाहित करें।

-तुम तो मुझे ऐसे विसर्जित कर रहे हो, जैसे राजा फाँसी देते समय अंतिम इच्छा पूछ रहा हो। ज्यादा कष्ट मत करो। जो नदी-नाला सबसे पास हो, उसी में फेंक दो। फेंकने के बाद पीछे मुड़कर मत देखना क्योंकि किसी नाले में इतना पानी नहीं है कि मैं पूरी की पूरी डूब जाऊँ। पीछे मुड़कर देखोगी तो तुम्हें ऐसा लगेगा, जैसे मैं तुम्हारा पीछा कर रही हूँ।

(विसर्जन यात्रा पर जयकारों का नाद तेज हो गया था। माँ की सिसकी जयकारों में उसी तरह खो गई थी, जैसे दिल्ली में कलावती।)

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