शनिवार, 19 सितंबर 2009

दादा का जीवन सादा हुआ

अपने दादा भी वहीं से आए हैं, जहाँ से बड़े-बड़े नेता आते हैं। दादा ने पढ़ाई-लिखाई भी वहीं से की है जहाँ से अपने महान देश के महान प्रधानमंत्रियों ने की है। उनका खानदान भद्र है, उच्च है, महान नेताओं का है। वे उस राजनीतिक दल से आते हैं, जहाँ लोकतंत्र का मतलब हुकुम है और आजादी के बाद से जिसका ज्यादा समय सरकार चलाने में ही बीता है। वे कैमरे को बहुत ही मादक-मोहक मुस्कान समर्पित करते हैं। उनकी रगों में दौड़ने वाला खून गंगा-यमुना और पूरब-पश्चिम का पवित्र संगम है। गाँव में हिंदी और शहर में अंग्रजी बोलते हैं। गरीबों को गले लगाने की कला सीख रहे हैं। दादा यूँ तो कभी बूढ़े नहीं होंगे लेकिन इन दिनों जवानी का उद्घार कर रहे हैं। जवानों में जोश भर रहे हैं। आम (आदमी) के घर आम और खास के घर के खास बनकर जा रहे हैं। दादा को अपना भविष्य प्रधानमंत्री की कुरसी पर नजर आता है इसलिए वे हर हाल में भारत का भविष्य सुधारने में लगे हैं। दादा को बच्चा कहने वाले गच्चा खा चुके हैं। दादा मंत्री नहीं हैं फिर भी मंत्रियों से बड़े हैं। सारा आर्यावर्त जानता है कि दादा प्रधानमंत्री बनकर ही अच्छे लगेंगे, इसके बाद भी वे अभी प्रधानमंत्री बनने में रुचि नहीं दिखा रहे हैं।

दादा जब सात समंदर पार अध्ययन के लिए गए थे, तब यह मानकर नहीं गए थे कि उन्हें राजनीति के दलदल में कमल बनकर खिलना पड़ेगा। वे इस दलदल को स्पर्श करने के लिए जरा भी उत्सुक नहीं थे, लेकिन इस देश की गरीब जनता की मान-मनुहार के आगे झुक गए और सेवा करने निकल पड़े। वे जनता की सेवा भी इस तरह करते हैं जैसे जनसेवा में ही एमबीए हों। दादा गरीबों के इतने हितैषी हैं कि संसद से लेकर सड़क तक केवल गरीबों के बारे में ही बोलते और चिंतन करते रहते हैं। गरीबी पर बात करके वे इस देश की अर्थव्यस्था को औंधेमुँह नहीं गिराना चाहते। वे कोई आर्थिक क्रांति, सामाजिक क्रांति, राजनीतिक क्रांति करने के इच्छुक नहीं हैं, उनका राजनीति में आना ही एक महान क्रांति हैं। आज की तारीख में किसी माई के लाल में दम नहीं है कि उनके जैसा सेवक बन सके।

दादा का संपूर्ण कुल ज्ञानी था। वे भी दूर-देश से पढ़कर आए हैं अतः पर्याप्त ज्ञानी हैं। भारत देश को अमेरिका का वैभव देना चाहते हैं। इसलिए वहाँ की आर्थिक नीतियों को लागू करने के पक्षधर हैं। जिस भी शर्त पर कर्ज मिले लेकर देश की लंगोट को टाई में बदल देना चाहते हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ लाना चाहते हैं, जिससे गरीबों को रोजगार मिल सके। अभी दादा पूरे पावर में नहीं हैं वरना अमेरिका इधर होता, भारत उधर। उनके ज्ञान से ज्ञानीजन इतना आतंकित हैं कि वे न तो कोई ज्ञान बाँट पा रहे हैं और न ही नए ज्ञान का सृजन कर पा रहे हैं। ज्ञान का ही कमाल है कि सारे बूढ़े ज्ञानी उनकी जय-जयकार कर रहे हैं। वे अपनी मुक्ति दादा में तलाश रहे हैं।

पूरा देश दादा को समझने में लगा है और दादा इस देश को। दादा को यह देश अबूझ पहेली लगता है और देशवासियों को दादा। देशवासी अभी दादा का लाव-लश्कर, उनका ऐश्वर्य, उनके खजाने को ही समझ रहा था कि दादा सादगी पसंद हो गए और उन्होंने सादगी को समझना शुरू कर दिया। सादगी की शुरुआत उन्होंने इस तरह से की कि दिल्ली से हवाई जहाज पर बैठतेऔर सीधे गरीब की कुटिया में उतरते। गरीब कभी हवाई जहाज देखता और कभी दादा को। दादा को देखकर गरीब गरीबी भूलने की कोशिश करता। दादा धीरे-धीरे गरीबों में इतना रम गए कि उन्होंने हवाई जहाज भी छोड़ने का फैसला कर लिया। दादा ने तय किया कि वे अब रेल में चलेंगे। देशवासियों से मिलने रेल से ही जाएँगे। दादा यह जान गए है कि यह देश हवाई जहाज पर नहीं रेल पर चलता है। रेल आम आदमी को इस तरह से प्रिय है कि लोगों को जब मरना भी होता है तो उससे कूदकर मरते हैं, उससे कटकर मरते हैं। हवाई जहाज ने भले ही लोगों को मार दिया हो, आज तक कोई उससे कूदकर नहीं मरा। अतः उन्होंने रेल का एक वातानुकूलित कक्ष किराए पर लिया है। कुछ लोग उनकी इस वातानुकूलित यात्रा से नाराज हैं। उन अज्ञानियों को क्या बताएँ कि दादा जिस तरह देश को समझ रहे हैं उसी तरह रेल को भी समझ रहे हैं। जिस दिन उनको पता चला जाएगा कि रेल में आम आदमी स्लीपर क्लास और सामान्य डिब्बे में चलता है, उस दिन वे भी उसी श्रेणी में चलने लगेंगे। आखिर महात्मा गाँधी को भी तो ब्रिटेन और दक्षिण अफ्रीका में खूब धक्के खाने के बाद सामान्य श्रेणी में चलने और आम आदमी बनने का आत्मज्ञान प्राप्त हुआ था।

दादा रेल पसंद हो गए हैं यह जानकर सारे देश के लोग भले ही परम प्रसन्न हों कि एक दिन वे भी अपने युवराज को अपने साथ सफर करता पाएँगे, लेकिन यह नादान भीतर से बुझ सा गया है। दादा अगर पैसे बचाएँगे तो गले तक भरा उनका खजाना खर्च कैसे होगा। न तो दादा भंडारा करने वाले हैं और न ही हम जैसे मुद्रा राक्षसों को बाँटने वाले। दादा का बचा हुआ पैसा इस देश के कैसे काम आएगा। विमान कंपनियां भी घाटे में चली जाएँगी। अपने को एक चिंता यह भी सता रही है कि खुदा-न-खास्ता दादा सामान्य श्रेणी में सफर करने लगे तो अपनी सवारी कैसे निकलेगी। क्या अपने को बैलगाड़ी के पहिए दुरुस्त करवाने पड़ेंगे। जितना सोचते हैं चिंता उतनी होती है, राहत मिलती है तो केवल इसी बात से कि दादा हैं। सब ठीक कर देंगे। अपना बचपना नहीं छूटता, इसलिए एक सवाल रह-रहकर हूक मारता है कि दादा ने अगर वायुमार्ग का पूरी तरह से त्याग कर दिया तो अपने ननिहाल कैसे जाएँगे। हम भारतवासी कभी नहीं चाहेंगे कि दादा का ननिहाल उनसे छूटे इसलिए आज नहीं तो कल उन्हें मना लेंगे और वे विमान पर सवार होंगे।

दादा के परदादा किसी दूसरे देश में अपना कोट धुलवाते थे, यह दादा के सादगी सिद्घांत के विपरीत है। अतः दादा अंतः वस्त्र से लेकर कुरता-पायजामा और कोट-पैंट तक सब कुछ अपने देश में ही धुलवाते हैं। देश के स्वास्थ्य के लिए दादा को छप्पन भोग खाना पड़ता है, कमाल देखिए कि दादा ने वहाँ भी सादगी दिखाई है और चम्मच आदि का इस्तेमाल बंद कर दिया है। अब वे आम आदमी की तरह हाथ में कौर लेकर भोजन ग्रहण करते हैं। देश दादा की तरफ आँखें फाड़कर इस उम्मीद से देख रहा है कि वे अनाथ जनता की तरह किसी कन्या का हाथ भी थामें, वरना आने वाली पीढ़ियाँ प्रधानमंत्रियों के लिए तरसेंगी। उच्च विचार वाले सीधे-सादे नेताओं के दर्शन दुर्लभ हो जाएँगे। सादगी डायनासोर की तरह विलुप्त हो जाएगी।

न दादा का कोई जोड़ है, न कोई तोड़। जब तक दादा हैं, यह देश है। देश के उज्जवल भविष्य के लिए दादा के उत्तम स्वास्थ्य की प्रार्थना करते हैं। नमक-रोटी (अब दाल-रोटी नहीं क्योंकि वह भी छप्पन भोग की श्रेणी में आ गया है) खाकर जीवित रहें और लंगोट से तन ढ़का रहे इसलिए हम दादा की सादगी पर कुर्बान हैं।

1 टिप्पणी:

sarita argarey ने कहा…

ये दादा नहीं "बाबा" हैं । अभी माँ के पल्लू से निकलकर राजनीति के गलियारे में कुलाँचे मारने में वक्त लगेगा ।