सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

नमस्ते-4

‘संजय! सुना है मध्यप्रदेश की मैहर नगरी में ‘महाभारत’ से भी बड़ा संघर्ष चल रहा है। एक कुर्सी के लिए कई सेनाएं लड़ रही हैं। किसी का खून नहीं बह रहा है, लेकिन बड़े-बड़े शूरमाओं के मस्तक कटने की कगार पर हैं। किसी की मृत्यु नहीं हो रही है, लेकिन कोई जिंदा रहने की स्थिति में भी नहीं है। लोग गले मिलते हैं तो ऐसे जैसे सगे भाई हों, लेकिन एक-दूसरे का गला काटने में लगे रहते हैं। एकता का संदेश देने वाले भाई-भाई को लड़ाने में लगे हुए हैं। कोई धनुष नहीं-कोई तीर नहीं, कोई सुदर्शन चक्र नहीं, इसके बाद भी लोगों के दिलों में तीर चुभे हुए हैं। ‘वोट’ जैसी किसी चीज के लिए बड़ी-बड़ी राजधानियों से राजा दौड़े चले आ रहे हैं। रुपए, आश्वासन, धमकियां, साड़ियां, कुर्ते, दारू, मुर्गा, कंबल इत्यादि बांटे जा रहे हैं। बड़े-बड़े लोग, महंगी-महंगी कारों में बैठकर खूब धूल उड़ा रहे हैं। जिसके यहां भी जाते हैं, उसके पांव छूते हैं। जैसे ही उसके घर से निकलते हैं तो अपने पट्ठों से कहते हैं कि इस पर नजर रखना। लोग भरमाए हुए हैं। यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि सफेद झक कपड़ों में जो उनके घर आ रहे हैं, देवता हैं या राक्षस? मैं तो अंधा हूं। तुम्हीं कुछ अपनी दिव्य दृष्टि से बताओ।’
‘राजन! महाभारत की कथा सुनाना आसान था। इस चुनाव की कथा सुनाने में मेरी दिव्य दृष्टि हार रही है। वहां का सारा दृष्य बहुत ही अस्पष्ट है। कौन क्या कर रहा है और कौन क्या कह रहा है, उसका आशय समझ पाना मुझ जैसे दिव्य दृष्टा के भी बस की बात नहीं। ‘वोट’ नामक रत्न पाने के लिए यूं तो दर्जनभर महापुरुष अपने-अपने रथ दौड़ा रहे हैं, लेकिन दो-तीन लोग ऐसा जोर लगाए हुए हैं कि उनके दांत से पसीना निकल रहा है। सारे पांडव मैदान छोड़कर भाग चुके हैं। कौरव ही कौरव आपस में भिड़े हुए हैं। दुर्योधन को दुर्योधन पटक रहा है और दु:शासन को दु:शासन। कौन जीतेगा और कौन हारेगा, यह पाना मुश्किल है महाराज। ...लेकिन एक चीज देखने लायक है महाराज! जो आपने महाभारत जैसे घृणित युद्ध में भी नहीं सुनी होगी। दुर्योधन के चेले रात को दु:शासन के शिविर में चले जाते हैं और दु:शासन के खास दुर्योधन के शिविर में। आश्चर्य यह है कि अपने छर्रों की स्वामिभक्ति देखकर दुर्योधन अपनी जीत पक्की मान रहा है और दु:शासन अपनी। भीष्म, द्रोण, कर्ण इत्यादि अपने-अपने घर में आराम कर रहे हैं और सुबह-शाम पानी पी-पीकर दोहरा रहे हैं, मरने दो ससुरों को। यह ‘लोकतंत्र का महाभारत’ है महाराज। कहते हैं कि हर पांच साल में इसका होना अवश्यम्भावी है। बीच-बीच में भी होता रहता है। अगर न हो तो लोकतंत्र नामक धर्म की रक्षा नहीं होती। महाराज! आप तो बिना आंख के अंधे हैं, लेकिन यहां तो सब एक जोड़ी आंख वाले अंधे हैं। प्रजा इनकी तरफ उम्मीद की नजर से देखती है, लेकिन इन्हें अपने खजाने के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता।’
‘संजय! मैंने आज तक तुमसे कुछ नहीं मांगा, न तो तुम्हारा चातुर्य, न तुम्हारा ज्ञान और न ही तुम्हारी दिव्य दृष्टि। आज मैं तुमसे एक चीज मांगता हूं। तुम अपनी यह दिव्य दृष्टि थोड़ी-थोड़ी मैहर की जनता नाम प्रजा को बांट दो, जिससे उसे नेताओं का चरित्र और अपना भविष्य दिखने लगे। ये जब वोट देने जाएं तो चाल-चरित्र देखकर दें। वोट को कथा की पंजीरी न समझें कि जिसे चाहे उसे बांटते रहें। क्योंकि ये वोट नहीं, राज्य दे रहे हैं। वही राज्य जिसके लिए हमारे बेटे लड़-मर गए। कुछ तो करो संजय।’ ‘हे धृतराष्टÑ! आप चिंता न करें। जनता नामक यह प्रजा चुनाव और वोट देने की आदी है। यह भविष्य नहीं, अतीत देखकर फैसला करती है और अभी तक इसके ज्यादातर फैसले सही निकले हैं। इस बार भी ऐसा ही होगा महराज। यह अनपढ़ है मूरख नहीं।’
आज का इक्का
दुर्योधन इस पार है, दु:शासन उस पार।
बेचारी जनता किसे, माने खेवनहार।।          -ओम द्विवेदी

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