गूंगे रंगों का पंचम सुर
खजूरी बाजार और राजवाड़ा की गलियां कभी वृंदावन तो कभी मथुरा लग रही थीं,  रंगों से अठखेलियां करते पुरुष कान्हा तो महिलाएं गोपियों की मानिंद थीं,  गलियां गुलालों और रंगों को अपने आगोश में भरकर खिलखिला रही थीं। हर गैर  गेर के साथ अपना होता जा रहा था, हर चेहरे पर गुलाल की परते थीं, रंग बदन  पर अपना डेरा जमाने के लिए जगह तलाश रहे थे। रंगों की सवारी थी, रंगों की  बारात थी, रंगों का मेला और रंगों का जादू। अपने गालों पर गुलाल देखकर  राजवाड़ा कभी लजा रहा था तो कभी शरमा रहा था, कृष्णपुरा की छत्रियां गेरों  को देखकर मुस्कुरा रही थीं। उनकी दीवारों पर जैसे ही रंगों के छीटे पड़ते,  वे किसी दुलहन की तरह खिल उठतीं। जाते-जाते बसंत पागल हो गया था, हवाओं ने  मदिरा पी ली थी, गूंगे रंग पंचम सुर में गा रहे थे। यह रंगपंचमी थी अपने  इंदौर की।
रंगों के इस महोत्सव में शामिल होने के लिए हर आमो-खास  अपनी तैयारी से आया था, लेकिन गेर की इन गलियों में आते ही न आम आम रहा और न  खास खास। यहां पहुंचते ही बच्चा बड़ा हो गया और बूढ़ा बच्चा। यौवन कामदेव हो  गया। कोई दूसरे को क्या पहचानेगा, आईना सामने आ जाए तो खुद को पहचानने में  दम फूल जाए। कपड़े तो कपड़े अपने गाल, बाल और चाल तक दूसरे की लग रही थी।  रंगने वाले हर साल रंगते हैं मोहब्बत के इस रंग में, देखने वाले हर साल  देखते भी हैं मोहब्बत के इस रंग को। फिर भी न भीगने की चाह कम हुई न देखने  की। रंगबाजों की मस्ती देखकर पंचमी की परंपरा थिरक रही थी। कभी डफली, मादल  और नगाड़ों पर झूमने वाले पांव बैंड और डीजे पर संगत कर रहे थे। हर रंग में  दंग कर देने वाली मस्ती थी। यह रंगपंचमी थी अपने इंदौर की।
रंगों  के इस रेले में शामिल होने के लिए पूरा शहर राजवाड़े के आसपास था। पूरब से  विजयनगर और परदेसीपुरा आया था तो पश्चिम से राजेन्द्रनगर और एरोड्रम।  राजवाड़ा की प्राचीरों के आसपास सब एक-दूसरे से गले मिले, एक-दूसरे के गालों  पर गुलाल मला, एक-दूसरे का हाल-चाल जाना, त्योहार की शुभकामना दी और रंगों  के उम्रदराज होने की कामना की। भगवा और लाल ने हरे की सलामती की दुआ की तो  हरे ने लाल और भगवे के लिए सुख-समृद्घि की अर्जी लगाई। गेर की गलियां कभी  रंगों के खेल का मैदान थीं तो कभी रंगों की इबादतगाह। रंगों की राह में जो  भी आया, उन्होंने सबको अपना बनाया। गेर ने किसी को गैर नहीं रहने दिया। ये  दिल वालों की टोली थी, होली के सम्मान में एक और होली थी। ये रंगपंचमी थी  अपने इंदौर की।
-ओम द्विवेदी
 
 
 
          
      
 
  
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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