गुरुवार, 8 मार्च 2012

गुमशुदा बसंत की तलाश

-थानेदार साहब! हर साल जाता था अब तक, इस साल बसंत पंचमी भी बीत गई, लेकिन उसका पता-ठिकाना नहीं है। मुझे तो लग रहा है कि किसी ने या तो उसे बहला-फुसला लिया अथवा अपहरण कर लिया। हो सकता है कि रास्ते में किसी ने खाने-पीने में कुछ मिला दिया हो। आजकल चाकू-छुरा, कट्टा-बंदूक चलाना भी लोगों के लिए खेल-तमाशा हो गया है। किसी ने पहना तो नहीं दिया? मुझे तो तरह-तरह की शंका हो रही है। मेरी मदद कीजिए। रपट लिखिए और उसकी तलाश करवाइए।

-क्या नाम बताया?

-बसंत।

-पूरा नाम बताओ। बसंत पांडे, बसंत सिंह, बसंत पटेल, बसंत चर्मकार?

-बसंत ही पूरा नाम है साहब। कोई जाति-धर्म नहीं है।

-उम्र?

-उसकी उम्र तो मेरे को नहीं पता। मेरी जरूर पचास बसंत है।

-तुम अपने गुमने की रपट लिखवाने आए हो कि उसके? उसकी हाइट कितनी है? किस रंग के कपड़े पहने है? शरीर पर कोई पक्का निशान वगैरह?

-उसकी हाइट भी मैने आज तक नापी नहीं। हां, कवि लोग जरूर कहते हैं कि वह कूलन में, केलि में, कछारन में, कुंजन में फैला हुआ है। वह कपड़े नहीं पहनता, उसके आने पर लोग पीला रंग धारण करते हैं। लोगों के गाल लाल हो जाते हैं, छटा निराली हो जाती है।

-कपड़े, घर, गाड़ी-मोटर से ही किसी की पहचान होती है। तुम्हारे नंगे बसंत को हमारी पुलिस कहां तलाशेगी। मिल भी गया तो पहचानेगी कैसे? तुम्हीं बताओ कि मेरे बदन पर वर्दी रहे तो तुम कैसे पहचानोगे कि कौन चोर है और कौन सिपाही? इंतजार करो किसी से दिल लगा लिया होगा, जाएगा। वैसे तुम्हारा बसंत आता कहां से है?

-हर साल जाता था। उसका रंग-रूप और उसकी अदा देखकर ही हम इतने बावरे हो जाते थे कि कभी उससे पूछा ही नहीं कि तुम कहां से आते हो? तुम्हारा घर कहां है? तीन महीने बाद फिर कहां जाते हो?

-लगाता हूं तुम्हारे पिछवाड़े तीन डंडे। नंगे आदमी को तीन-तीन महीने घर में रखते हो, उससे पता-ठिकाना नहीं पूछते और पुलिस को बाहरी आदमी के बारे में इत्तला भी नहीं देते। इस बार घूमते-घामते अगर जाए तो परिचय और निवास प्रमाण पत्र की फोटोकॉपी रखवा लेना नहीं तो...! यह बसंत तो मेरे को चोर-चकार अथवा नक्सली लगता है। खबरदार अगर आगे से पुलिस को बताए बिना उसे घर में रखा। उसे तो बाद में देखूंगा, तुम्हें पहले अंदर कर दूंगा।

-थानेदार साहब प्लीज बसंत को ऐसा मत बोलिए! वह तो प्रेम बांटता है, उसके आने से नौजवानों के अंगों में मादकता छा जाती है, रोम-रोम उल्लासित हो जाता है, बूढ़े भी अपने आपको जवान महसूस करने लगते हैं। पेड़ों में नई कोपलें आने लगती हैं। टेसू दहक उठते हैं। जंगल में तरह-तरह के फूल खिल उठते हैं। ठंडी और गरमी दोनों रास रचाते हैं। उसे देखते ही ठंडी अपनी चुभन भूल जाती है और गरमी अपनी तपन। गोरी का रूप निखर जाता है। पूरा मौसम शराबी लगने लगता है।

-मामला आबकारी विभाग का लगता है। बिना परमीशन भठ्ठी चलाता होगा तुम्हारा बसंत। गांवभर से महुआ इकठ्ठा करके देशी शराब बनाता होगा। तुमसे सप्लाई करवाता होगा। इसीलिए तुम उसके लिए तड़प रहे हो। भेजता हूं चार सिपाही तुम्हारे घर की जामा तलाशी के लिए।

-मेरी बात समझिए साहब! वह जंगल से आता है। सड़क किनारे लगे पेड़ों को देखकर वह शहर तक पहुंच जाता था। सालभर में सारे पेड़ गए, अब वह किसके सहारे यहां तक आएगा। जब पेड़ नहीं हैं तो उसे हमारे शहर का पता ही कौन बताएगा? मुझे तो लग रहा है कि वह जंगल से बाहर निकला ही होगा और ठूंठ देखकर फिर से जंगल में घुस गया होगा। बहुत मुश्किल है कि अब वह यहां तक पहुंच पाएगा?

-उससे कहो कि वह पेड़ नहीं, बिल्डिंग देखकर शहर पहचानना सीखे। मॉल और होर्डिंग के पास बसना सीखे। जंगल में रहेगा, पेड़ देखकर चलेगा तो तरक्की नहीं कर पाएगा। जीवनभर जंगली रह जाएगा। अगर नहीं आता तो अमेरिका या चाइना से जुगाड़ करके रेडीमेड बसंत बनवा लो। पक्का काम हो जाएगा।

-मैं समझ गया साहब। आपके बूते की बात नहीं बसंत को ढूढ़ना। जो डंडे, जेल और गोली-बंदूक से डरते हैं, पुलिस उसे ही डरा और खोज सकती है। जब आप चोर को नहीं पकड़ सकते तो बसंत को क्या पकड़ोगे? दफाओं और धाराओं से बसंत का बाल भी बांका नहीं हो सकता। वह कोई विपक्ष थोड़े ही है कि सीबीआई और लोकायुक्त से डर जाए तथा भूलकर भी सरकार की राह में आए। उसे जिस दिन पता चल जाएगा कि उसके चाहने वाले उसका इंतजार कर रहे हैं तो वह ठूंठ देखकर भी चला आएगा। ठूंठों को भी हरा कर देगा।

... सुनो कोयलें कूक रही हैं। वह रहा है।

छंद चिकोटी

ठूंठ देखकर डर गया, अबकी यहां बसंत।

कौन कसाई 'आदि' को, करने लगा है 'अंत'

अब बसंत के हृदय में, चुभने लगे हैं शूल।

असली जैसे दिख रहे, नकली सारे फूल॥

जंगल में था बांटता, जो हर पल उल्लास।

कंकरीट के शहर में, बैठा मिला उदास॥

-ओम द्विवेदी

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