सोमवार, 16 जनवरी 2012

ठंड का कोलावेरी डी


आदमी तो आदमी सूरज की भी दादागिरी उतर गई है। सुबह-सुबह ऐसे ठिठुरा-सा निकलता है जैसे बर्फ से जमी डल झील में डुबकी लगाकर रहा हो। इतने निरीह भाव से धरती की तरफ टकटकी लगाकर देखता है, जैसे उसे भी स्वेटर, कनटोपे और कंबल की जरूरत हो। रात में चांद बर्फ का गोला लगता है। हवा बिच्छू की तरह डंक मारती है। पानी छू जाए तो करंट मारता है। सुबह रजाई से बाहर निकलने का मन करता है, चाय छोड़ने का। कहीं जरा भी आग जैसी गरमी मिल जाए तो तन और मन दोनों वहीं चिपक जाते हैं। शहर-वहर, गांव-वांव, राजधानी-वाजधानी सब जगह ठंड ताक-धिना-धिन कर रही है। ठंड इस कदर कोलावेरी डी गा रही है कि करें कुछ होता कुछ है। दिल भी खूबसूरत रंगों वाले स्वेटर और उसमें लदी सुंदरियों को देखकर ही पटरी से उतरता है।

ठंड का कोलावेरी डी सुनकर कइयों के मन में लड्डू फूट रहे हैं तो कई छाती पीटकर मातम मना रहे हैं। सारे मौसम फुटपाथ पर काटने वाले गरीब बहादुर ठंड की माता-बहनों के सम्मान में बुदबुदा रहे हैं। गरम कपड़े पहनकर कोई भी उनके सामने से निकलता है तो अनायास की उनके दिल से एक बद्दुआ निकल जाती है। दिन-महीने गिनते हैं। पूस चला गया, निगोड़ा माघ जाए और फागुन आए तो कुछ राहत मिले। इसी सीजन में दान-दाताओं की चांदी रहती है। चुनाव करीब हो तो नेताओं के मजे। चार कंबल लिए, फुटपाथ पर पहुंच गए, गरीबों को ओढ़ाया, फोटो खिंचवाया और सुबह अखबारों में चार कॉलम के दानी। चार कॉलम की जो जगह पांच हजार में भी मिले, वह पचास रुपए के कंबल में मिल जाती है। ठंड का कोलावेरी डी सुनने के लिए नगर निगम के पास भी अच्छा खासा बजट रहता है। गली-चौराहे पर अलाव जलाकर मुसाफिरों को गाना सुनाने की व्यवस्था सरकार करती है। बेचारा निगम सोचता है कि कौन शहर का चरित्र बिगाड़े। नुक्कड़-नुक्कड़ में कौन आग लगाए। इसलिए वह सरकारी कागज में अलाव जला रहा है और पूरा अमला बैठकर ताप रहा है। जेबें और फाइलें गरम रहें तो शहर नामुराद अपने आप गरम रहेगा। ठंड का नंगा नाच देखकर जिंदा आदमी भले तकलीफ सहे, लेकिन मुर्दों के मजे हैं। नहलाने-धुलाने में थोड़ी तकलीफ सहने के बाद चिता पर आग का परमानंद मिलता है। कभी-कभी लगता है कि इस मौसम में ज्यादा लोग इसी आनंद के लिए चटकते हैं।

मरीजों के मजे हैं तो डॉक्टर रो रहा है। आदमी कुछ भी खा ले सब पच जाता है। रोटी-नमक खाए, तिल-लड्डू खाए, चना खाए-चने की भाजी खाए सब कुछ हजम। वजन भी बढ़ता है और बाजू की मछलियां भी। मरीजों के इंतजार में डॉक्टरों की आंखें पथराई रहती हैं। गिद्घ जैसे इंतजार में रहते हैं कि दूर कहीं ढोर के मौत की खबर मिले। गोलियां पड़े-पड़े एक्सपायर होती हैं तो बोतल में फंगस लगता है। सफेद कोट में धूल जमने लगती है। कोई बदनसीब पहुंच जाए तो उसे ऐसा नोचते हैं जैसे पुलिस रपट लिखाने वाले को, पटवारी खसरा बनवाने वाले को और वकील अदालत जाने वाले को। अपनी आपदा को 'हेल्दी सीजन' कहकर गाली देते हैं। भेड़ें बदन से बाल उखाड़ने पर कराह रही हैं। केश लुंचन कर उन्हें जबरन महावीर बनाया जा रहा है और भेड़ों को पालने वाले कंबल का धंधा कर रहे हैं। जैसे-जैसे ठंड 'वाय-वाय दिस' गाती है, वैसे-वैसे उनका धंधा चोखा होता है। ठंड की कोलावेरी धुन पर देशी-विदेशी कंपनियां गरम कपड़े लेकर घरों तक पहुंच रही हैं और अहिल्या की तरह अपनी जेब से छल हो रहा है। महंगे ऊनी कपड़े देखकर बटुए की लाज लुटी जा रही है।

आशिकों के तो कहने ही क्या? बाइक पर बैठकर चाहे जितना चिपको। चिपको आंदोलन चला दो। चिपकाने वाले को चिपकाकर गरमी मिलेगी और देखने वाले को देखकर। जिन कपड़ों के बिना ठंड सिर पर हथौड़ा मारती है और बदन में चिकोटी काटती है, चिपको आंदोलन में वही कपड़े दुश्मन लगने लगते हैं। बदन से निर्वासित होने को लालायित रहते हैं। अकेली सुंदरी सड़क पर टहलते हुए अप्सरा-सी लगती है। मुलायम ऊनी कपड़े में वह बिलकुल परी की माफिक जमती है। हर गली में उसके दीदार इसी तरह होते हैं। इन्हें देखकर लगता है कि ठंड यहां अपना मुकम्मल डेरा जमा ले। इनकी आंखें स्वेटर की तरह सपनें बुनें, इनके चेहरे से खूबसूरती की ओस गिरे।

छंद चिकोटी

इस कुदरत के पास हैं, तरह-तरह के दंड।

कभी ग्रीष्म का ताप तो, कभी माघ की ठंड॥

हवा हिमालय से चली, कर गंगा इसनान।

हाथ-पांव होने लगे, घर में बर्फ समान॥

सूरज भी ठिठुरा दिखे, हवा मारती डंक।

कपड़ों में लिपटे मिले, सारे राजा-रंक॥

-ओम द्विवेदी

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