सोमवार, 29 अगस्त 2011

अहिंसक क्रांति का दस्तावेज़

अण्णा हजारे १२ दिनों तक अनशन पर रहे और पूरा हिंदुस्तान एक पाँव पर खड़ा रहा। इन १२ दिनों में क्या-क्या नहीं हुआ? इतिहास शीर्षासन करता रहा और जनता इतिहास लिखती रही। क्रांतियाँ कीर्तन करती रहीं और मौन इंक़लाबी होता रहा। 'लोक 'तंत्र को झकझोरता रहा और 'तंत्र' लोक की परीक्षा लेता रहा। संसद 'जन' पर बहस करती रही और जन संसद पर विचार-विमर्श करता रहा। संसद जनता से डरी-सहमी दिखी तो जनता संसद से। कभी लगा कि संसद बहरी हो गई है तो कभी लगा कि जनता की चीख़ ज़्यादा है। कभी लगा कि लोकतंत्र ख़तरे में है तो कभी यह भी लगा कि अब ख़तरा ही लोकतंत्र है। कभी धड़कनों की गति द्रुत हुई तो कभी विलंबित। कभी आँखें सपनों की प्रतीक्षा करती रहीं तो कभी सपनों को देखकर डरती रहीं। कभी भीड़ का अनुशासन लुभाता रहा तो कभी डराता रहा। कभी साँसों की रफ़्तार बढ़ी तो कभी वे ठहरती-सी दिखीं। इन १२ दिनों में जो कुछ भी हुआ, वह २१वीं सदी की पहली अहिंसक क्रांति का दस्तावेज़ बना।

कल जब कोई इस वर्तमान का पन्ना पलटेगा तो उसे यकीन नहीं होगा कि ७४ साल का गाँधीवादी फ़क़ीर रातोंरात उस युवा पीढ़ी का आदर्श बन गया था, जिसके सपनों में रह-रहकर अमेरिका आता था। उसे भरोसा नहीं होगा कि किसी अण्णा हज़ारे ने आवाज़ लगाई थी और पूरा देश भ्रष्टाचार का पाप धोने के लिए सड़कों पर उतर आया था। आत्मशुद्घि कि लिए अपने ही ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहा था। उसे विश्वास नहीं होगा कि जिस सरकार को विदेशों में पढ़े लोग अपनी डिग्रियों और कूटनीति से चला रहे थे, उसे एक बिना पढ़े-लिखे इंसान ने अपने आत्मबल से हिला दिया था और कान उमेठकर उसे सही दिशा दी थी। सदियाँ इस बात को याद करेंगी कि हिंदुस्तान में जन लोकपाल नामक एक बहस सड़क से शुरू हुई थी और संसद में जाकर ख़त्म हुई थी।

आज़ादी के बाद पैदा हुए जिन लोगों ने महात्मा गाँधी के पीछे चलते हिंदुस्तान को नहीं देखा, उन्होंने अण्णा के पीछे चलते हिंदुस्तान को देख लिया। जिस पीढ़ी ने अपनी आँखों से पहले अफगानिस्तान में तालिबानियों का वीभत्स चेहरा और फिर अमरीकी फौजियों का डरावना रूप देखा, सैकड़ों लोगों के ख़ून से सनी मिस्र के तहरीर चौक की क्रांति देखी। जिन आँखों के सामने लीबिया से लेकर दुनिया के एक बड़े हिस्से का ख़ून ख़राबा है, उन्हीं आँखों ने हिंदुस्तान में एक अहिंसक महाक्रांति भी देखी। एक ऐसी महाक्रांति, जिसके दामन पर ख़ून का एक छीटा भी नहीं। एक ऐसी क्रांति जिसने तख़्तों और ताजों को नहीं, बल्कि विचारों को बदला। जिसने झूठ को सच में बदलने का संकल्प दिलवाया। इस आंदोलन ने जहाँ एक ओर हिंदुस्तान के नागरिकों को हिंदुस्तानी होने का सम्मान दिलाया वहीं लगातार अपनी गरिमा खो रही संसद का आत्म सम्मान भी बहाल करवाया।

तिहाड़ जेल, इंडिया गेट और रामलीला मैदान से लेकर छोटे-छोटे शहरों तक में उमड़े जन सैलाब को देखकर कई बार रोंगटे खड़े हो गए, शरीर से झुरझुरी निकलने लगी। कई बार ऐसा लगा कि जो लोग इस जन संसद की बात सुनने में आनाकानी कर रहे हैं, उनके कान फोड़ दिए जाएँ, कई बार लगा कि कुरसियों को पलट दिया जाए, लेकिन भूखे फ़क़ीर की शांत चित्त अपील ने लोगों के खौलते ख़ून को ठंडा किया और आत्मा की ज्योति जलाए रखने का हौसला दिया।

इस आंदोलन ने लोकपाल बिल के बहाने हिंदी का एक बड़ा आंदोलन भी खड़ा किया है। इस पूरे आंदोलन की रीढ़ हिंदी रही है। खुद अण्णा और उनकी टीम से लेकर तमाम मीडिया ने इसे हिंदी आंदोलन बनाए रखा। पूरे आंदोलन के दौरान हिंदी में बातचीत हुई, हिंदी में भाषण हुए, हिंदी मीडिया ने अपनी पूरी ताक़त लगाई और हिंदी क्षेत्र ने अपना सबकुछ अर्पण किया। बड़े-बड़े अंगे्रज़ी साहबों को भी अण्णा और उनकी टीम से हिंदी में बात करनी पड़ी। मुझे लगता है जो काम हिंदी का खाने वाले नहीं कर सके वह काम मराठी फ़क़ीर ने किया। निश्चित ही इस आंदोलन के साथ हिंदी की ताक़त भी बढ़ी है। जो १२ दिनों में हुआ, कभी-कभी वह १२ युगों में भी नहीं होता।

-ओम द्विवेदी

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