मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

नज़र शरीफ़ों की चुपके से तालिबान बनी

दोस्तों! कई दिनों से व्यंग्य पोस्ट कर रहा हूँ। आज आपको ग़ज़लों से रूबरू कराते हैं। सामयिक ग़ज़लें। इन्हें आप व्यंग्यनुमा ग़ज़ल या ग़ज़लनुमा व्यंग्य कह सकते हैं। प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'समावर्तन' ने सितंबर अंक में इन ग़ज़लों को प्रकाशित किया है।

मेरी बस्ती की मुलक में नई पहचान बनी।
एक गली हिन्दू तो एक मुसलमान बनी।

दंगों ने बदल दी शहर की आबोहवा,
किताब बच्चों की गीता कहीं कुरआन बनी।

सहम-सहम के परिंदे उड़ान भरते हैं,
नज़र शरीफ़ों की चुपके से तालिबान बनी।

मजहब का सियासत से गठजोड़ ग़ज़ब है,
जनमों की आस्था कुरसी की पायदान बनी।

पहचानना मुश्किल है क़ातिल की शक्ल को,
बम छिपाने की महारत बहुत आसान बनी।

शहर से रूठ गया प्यार का मौसम यारो,
आजकल जिंदगी नफ़रत का संविधान बनी।

सोते में चीख़ता है सुल्तान आजकल

टूट पड़ा आँगन में आसमान आजकल।
साँसों में उठ रहा है तूफान आजकल।

कबूतर ने जने हैं कई नन्हें कबूतर,
डर-डर के बाज भरता है उड़ान आजकल।

फ़क़ीर के कदमों में है रफ़्तार कुछ अधिक,
सोते में चीख़ता है सुल्तान आजकल।

पड़ोसी का घर खंगालते खंजर लिए हुए,
तकिए के नीचे छिप गया शैतान आजकल।

मुर्दा से दिखे चेहरे जो भी दिखे यहाँ,
हँसने लगा है बस्ती में शमशान आजकल।

पहुँचा है माँ की कोख तक बाज़ार का दख़ल,
सामान की मानिन्द हैं नादान आजकल।

2 टिप्‍पणियां:

vivek. ने कहा…

Om!
Bahut Badhai! Bahut-Bahut!
tum khud ko vyngya se jod kar bhale bhavishya ke Mahan bano par Geet aur Gazal tumhari asli Pahchan hai... ye baat main aaj nahi kah raha hun, yaad ho to yahee baat 15 barson se duhra raha hun.. sabhi sher shandaar hain, सहम-सहम के परिंदे उड़ान भरते हैं,
नज़र शरीफ़ों की चुपके से तालिबान बनी।
aur
कबूतर ने जने हैं कई नन्हें कबूतर,
डर-डर के बाज भरता है उड़ान आजकल।
ye to bahut khoobsoorat hai.
Badhiya!!

vivek. ने कहा…

ओम भाई,
सोचता हूँ कि आपकी तारीफ के लिए हिन्दी टाइपिंग (यूनिकोड) भी सीख ही लूँ, तो लीजिए हिन्दी में तारीफ स्वीकार करें....विवेक, अहमदाबाद.