शनिवार, 1 मई 2010

सूरज की मर्दानगी

सूरज आसमान से इस तरह गोली-बारी कर रहा है जैसे अमेरिका अफगानिस्तान और पाकिस्तान पर ड्रोन से हमला कर रहा हो। सड़क पर निकलना आग की बारिश में चलने जैसा लगता है। बाहर तो बाहर घर के भीतर भी सूरज इस कदर गर्मी भेज रहा है जैसे पकिस्तान हमारे यहाँ आतंकवादी भेजता है। सेना और खुफिया विभाग के कान भी खड़े नहीं हो पाते और वे हमारा गाल लाल कर चले जाते हैं। गर्मी भी उसी अंदाज में घुसपैठ कर रही है। एसी और कूलर सीमा पर तैनात हैं, लेकिन गर्मी है कि बदन से पसीना निचोड़े दे रही है। मंदिर में जूता चोरी चला जाए तो घर पहुँचते तक धरती पाँवों को ऐसे भूनती है जैसे हर बजट के बाद महँगाई। आह भरते रहें और राह चलते रहें। पुलिस कप्तान होता तो दस-बीस धारा लगाकर जेल में ठूस देता और सड़ाता तीन महीने। ज्यादा टुर्राता तो जिला बदर कर देता।

ऐसे भूखा-प्यासा निकलता है घर से कि खाना-पानी कम पड़ने लगता है। नदी-तालाब पी जाता है, बोरिंग-हैंडपंप पी जाता है, कुएँ-नल पी जाता है फिर भी प्यास नहीं बुझती। बिलकुल बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तरह। इसकी प्यास कुछ-कुछ हमारे नेताओं और अफसरों जैसी भी है। वो ऊपर बैठकर धरती का पानी सोख रहा है और ये राजधानी में बैठकर जनता का खून। न धरती का पानी पीकर सूरज अघाता और न जनता का खून चूसकर सरकार। दोनों अंतिम बूँद स्वाद ग्रहण करने की में लगे हैं।

सारी समस्याओं की जड़ यह नामुराद सूरज ही है। अब देखिए न! सरकार के हुकुम पर बच्चे परीक्षा देने के बाद फिर से स्कूल जाने लगे थे, लेकिन इसने अपनी ताकत दिखाकर धारा-१४४ लगवा दी। सब बंद। इसने सरकार को पहले बताया भी नहीं कि हम गर्मियों में तपेंगे इसलिए पहले से इंतजाम कर लो, लू लगने से पहले बच्चों की छुट्टियाँ कर दो, उन्हें दो महीने चैन से जी लेने दो। अब सरकार कोई इतनी ज्ञानी तो नहीं है कि उसे पहले से पता रहे कि ठंडी के बाद गर्मी आएगी और गर्मी के बाद बारिश। उसे तो जैसा बताया जाता है वह मानती है और फटाफट योजनाएँ बनाती है। जैसे ही उसे गर्मी का पता चला छुट्टियाँ हो गईं। सूरज की जरा सी लापरवाही के कारण सरकार को कितना नुकसान हुआ, कितने आदेश निकालने पड़े। सचिवालय की मेहनत और जनता का धन दोनों अकारथ गया। स्कूल लगाओ...बच्चों को स्कूल लाओ...उन्हें किताबें बाँटो...पढ़ने की रुचि जगाओ...एक के बाद एक आदेश चल रहे थे कि सूरज तपने लगा और आदेश निकालना पड़ा कि सबकी छुट्टी कर दो। पहले से बता देता तो आदेशों और फाइलों को थकना नहीं पड़ता।

सूरज बीमारियों से मारे डाल रहा है। सरकार बच्चों को दलिया-दूध खिला रही है, दोपहर का भोजन दे रही है, जो लोग गरीबी रेखा पर चलते-चलते नीचे खिसक गए हैं, उन्हें गेहूँ-चावल दे रही है। रोटी छीनने वाले देश अमेरिका से मक्का मगा रही है तो बम फेंकने वाले देश पाकिस्तान से शकर। सबको खिलाने पर आमादा है। जिन्हें खाना नहीं दे पा रही उन्हें पौष्टिक आश्वासन दे रही है। सरकार के इस सारे किए-धरे पर सूरज दस मिनट में पानी फेर देता है। लोग खा-पीकर घर से बाहर से निकलते हैं और सूरज का चाटा खाकर अस्पताल पहुँच जाते हैं। डॉक्टर किसे-किसे बचाएँ। भला हो बजरंगवली का जो लोगों की साँस थामे हुए हैं। लोग बिस्तर पर पड़े-पड़े प्रार्थना कर रहे हैं कि प्रभु बाल्यकाल की तरह एक बार और सूरज को खा लो। हमारे प्राणों की रक्षा करो।

गरीबी, भुखमरी और बीमारी के लिए लोग नाहक ही सरकार को कोसते हैं। मैं तो कहता हूँ कि इसके लिए यह सूरज ही पूरी तरह जिम्मेदार है। सरकार को इसके खिलाफ जाँच आयोग बनाना चाहिए और जल्द से जल्द सजा तय करनी चाहिए। हो सके तो लाल किले पर फाँसी देने का शानदार आयोजन करना चाहिए। विपक्ष तो माल खाकर किसी तरह सरकार की रक्षा कर लेता है, लेकिन ये सूरज सब कुछ खा-पीकर भी सरकार की लुटिया डुबोने में लगा रहता है। अपनी मर्दानगी से कम सूरज की गर्मी से ही हम चीन को नंबर दो की कुरसी पर धकेलने वाले हैं। उसी की साजिश से हमारी आबादी फल-फूल रही है। लोग सूरज का गुस्सा चाँद उतारते हैं और आँगन में तारों की बारात उतर आती है। सरकार किसको-किसको दाना-पानी दे। सरकार माने या न माने सूरज की सौंपी आबादी ही सरकार की बरबादी का सबसे बड़ा कारण है। सरकार को इससे निपटना चाहिए। पर निपटे कैसे, उसी गर्मी से वोट भी तो पैदा होता है। जो आबादी मुसीबत का जहर है, वही वोट का अमृत भी तो है। फिर तो पूजना पड़ेगा सूरज को।

सुनने में आया है कि सूरज इसलिए गुस्से में है क्योंकि हम पेड़ काटकर घर और सड़क बना रहे हैं, पलँग-सोफा बनवा रहे हैं, लकड़ी जलाकर खाना बना रहे हैं, वगैरह..वगैरह। अरे भैया! पूरी धरती पर पेड़ ही रहेंगे तो क्या हम घर पेड़ पर बनाएँगे। आपको तो सड़क की जरूरत पड़ती नहीं। दिनभर में पैदल ही सारा आसमान नाप लेते हैं। आपके घर किसी के आने की हिम्मत भी नहीं कि पलँग-सोफा की जरूरत पड़े। आपके कोप से डरे तो फिर हम जीते जी मरे। सूरज बाबू ! सौ टके की बात सुनो-हमें अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारना अच्छा लगता है। हम अगर धरती पर पेड़ों को रहने देंगे तो आपका गुस्सा भी नपुंसक हो जाएगा और सारे खुदगर्ज भस्म होने से बच जाएँगे। तुम्हीं तो एक मर्द हो जो नामर्दों को सबक सिखा सकते हो। अभी जितना गुस्साओगे, तीन महीने बाद धरती का आँचल भी तो उतना ही भिगाओगे।

4 टिप्‍पणियां:

Shekhar Kumawat ने कहा…

nice

डॉ .अनुराग ने कहा…

ओर सूरज को जो रोज उंगुली करता है उसका क्या.....

विवेक. ने कहा…

आपके कोप से डरे तो फिर हम जीते जी मरे। .....
तो भइया अभी कौन सा जी रहे हैं...

संजय भास्‍कर ने कहा…

IS SAB KI ZIMEEWAR SARKAR HI HAI....