कई महीनों बाद लंबी छुट्टी पर गया था। दफ्तर छोड़कर। दीवाली के बहाने छुट्टी मिली थी। यह तो हमारे दफ्तर की कृपा थी कि उसने इतने आसान बहाने पर अवकाश स्वीकृत कर दिया, वरना रिश्तेदारों की शादी करवानी पड़ती, बीवी को बीमार करना पड़ता, दादी जो बीस साल पहले देवलोक को पधार चुकी हैं, उन्हें फिर से स्वर्गवासी करना होता, डॉक्टर से खुद के बीमार होने की पर्ची बनवानी पड़ती, वगैरह...वगैरह। सच पूछिये तो मैं अपने दफ्तर का इसीलिए प्रशंसक हूँ क्योंकि यहाँ छुट्टियों के लिए अपनी रचनात्मकता का ज्यादा इस्तेमाल नहीं करना पड़ता। तनख्वाह कम हो सकती है, इंक्रीमेंट का टोटा हो सकता है, बोनस के लाले पड़ सकते हैं, लेकिन छुट्टियाँ दिल खोलकर मिलती हैं। दूसरों के यहाँ तो अफसर छुट्टियों पर भी कुंडली मारे बैठे रहते हैं।
दफ्तर छुट्टियाँ देने में भले ही उदार हो लेकिन ज्यादा ग्रहण करने में अपन ही फटी में आ जाते हैं। लगता है लंबी छुट्टी न स्वीकृत हो जाए। छुट्टियों पर जाने से पहले यह सोचकर गया था कि अपने साथ राई-तोला भी दफ्तर लेकर नहीं जाऊँगा। घर में पूरा घर का होकर रहूँगा, लेकिन कसम रोजी की दस दिन की छुट्टी में दिन में दस बार दफ्तर लिपट-लिपट कर रोया। आँसू बहा-बहाकर बोला, हमें छोड़कर कहाँ पड़े हो। राम ने जितने बरस बनवास में काटे तकरीबन उतने ही अपन को अखबार में काटते हुए। रात-रातभर आँखें फाड़कर खबरें खोदने की इस कदर आदत हो गई है कि शाम को घर पर रहना किसी अनहोनी की तरह लग रहा था। हर शाम को लगता था कि नौकरी ने मुझे तलाक दे दिया है। घर में कोई मिलने आता तो लगता खबर देने आया है। बात-बात में नजरें खबर तलाशने लगतीं। मैं अगर दूर बैठकर खुद को देखता तो पागल जैसा ही पाता। फिर भी सारे परिजन खुश थे कि मैं कई महीनों बाद छुट्टी पर हूँ और घर पर हूँ।
छुट्टियों की तीसरी-चौथी रात सभ्य और सुसंस्कृत इंसानों की तरह रात दस बजे सो गया। रात बारह बजे अचानक सपना आया कि डेडलाइन पर पन्ने नहीं छूटे हैं और आज अखबार लेट हो जाएगा। फिर संपादक का चेहरा दिखा, सुबह की मीटिंग दिखी, सर्कुलेशन वालों की धमकियाँ दिखीं और अंत में अपना इस्तीफा अपने आप मंजिल की ओर जाता दिखा। अचकचाकर उठ गया और पूरी रात इस्तीफा पकड़ता रहा कि वह पुष्पक विमान पर सवार न हो जाए। फिर तो नीद ही काँच के टुकड़े की मानिंद पलकों में चुभती रही।
वर्षों की साध थी कि सवेरे का सूरज देखूँ। छुट्टियों पर यह इच्छा भी पूरी करनी थी। जिस शहर में सूरज सवेरे कोंच-कोंचकर जगा देता था, वहाँ सूरज बड़े कॉम्पलेक्स के पीछे आ गया था, अतः बिना बाहर निकले उसे देखना मुनासिब नहीं था। सुबह उठा। बाहर निकला तो वह धुँधला-धुधला था और आधा शहर फेंफड़ों में हवा भरने के लिए सड़कों पर घूम रहा था। सूरज वैसा ही था, जैसा कभी-कभार अखबार के पन्नों पर छापा जा चुका था। उसे अगली छुट्टी तक लिए देख लेना था, अतः जीभर कर देखा। लगा अच्छा है कि यह सूरज मेरी तरह अखबार में नौकरी नहीं करता, वरना धरती के आधे लोग तो उसके इंतजार में ही मर जाते। धरती सोती रह जाती। मैं अगर प्रधानमंत्री होता तो चैनलों में दिनभर यह खबर चलती कि मैने सूरज देख लिया। खैर!
दस दिन की छुट्टी बिताने के बाद चलने का समय आया तो घर रोकने लगा। पलभर के लिए लगा कि एक-दो दिन और रुक जाया जाय। बहाना बना दिया जाए कि रेल का रिजर्वेशन नहीं मिला। कल का या परसों का मिला है, लेकिन रुकने का साहस नहीं हुआ। लगा ज्यादा छुट्टी मनाकर लौटूँगा तो दफ्तर भले पहचान ले, लेकिन कहीं आठ कॉलम बावन सेंटीमीटर का अखबारपह ही चानने से न इंकार कर दे। कुल मिलाकर छुट्टी देकर भी दफ्तर पीछे-पीछे लगा रहा।