समकालीन दोहे
धरती ने हमको दिया, आम और अमरूद।
हमने धरती को दिया, तोप और बारूद॥
बंदूकों से खेलकर, गली हुई शमशान।
जली ठूँठ पर बैठकर, कौआ पढ़े अज़ान॥
राजा अपनों से करे, कैसा बुरा सुलूक़।
पहले बाँटे सरहदें, फिर बाँटे बंदूक॥
उसके पन्नों में नहीं प्यादों का उल्लेख।
इतिहासों की दुम हिले, राजाओं को देख॥
नाखूनों की तरह हैं, तीखे उसके दाँत।
पचा रही है देश को, शाकाहारी आँत॥
झूठ ठठाकर हँस रहा, सच सबसे कमज़ोर।
आँखों को खाने लगे, सपने आदमख़ोर॥
गया जहाँ भी न्याय को, बैठा था जल्लाद।
फाँसी पर लटकी मिली, मुफ़लिस की फरियाद॥
ज़हरीले होने लगे, हरे-हरे से ख़्वाब।
प्यासे पीने लग गए, चुल्लू से तेज़ाब॥
सिंहासन खा जाएगा, जो जाएगा पास।
शेर कभी करता नहीं, जंगल में उपवास॥
नहीं भूख को चाहिए, केवल रोटी-नून।
बाँट दिया बाज़ार ने, सपनों को नाखून॥
सिंहासन ने यदि किया, आँसू का उपहास।
तय है मिलना एक दिन, राजा को वनवास॥
जनता परम प्रसन्न हो, कहे जिसे जनतंत्र।
दिल्ली से भोपाल तक, कुरसी का षडयंत्र॥
अँधी संसद बाँटती, नये तरह का न्याय।
नेता की दौलत बढ़े, मतदाता की हाय॥
जनता बूढ़ी हो रही, डाल-डालकर वोट।
वे संसद में पहुँचकर, करते लूट-खसोट॥
मंत्री का तोरण सजे, भूखा रहे ग़रीब।
रोटी की खातिर चढ़े, जनता रोज़ सलीब॥
सागर भूखा नमक को, नदी ढो रही प्यास।
पर्वत का मस्तक झुका, धरती बहुत उदास॥
बाजों के आकाश में, कैसे उड़ें कपोत।
मिलना है हर हाल में, उनको ऊपर मौत॥
कैसे भड़के देश में, इंकलाब की आग।
आस्तीन में पल रहे, काले-काले नाग॥
सिंहासन कितने हिले, गिरे कई प्रसाद।
दायर जब करना पड़ा, आहों को प्रतिवाद॥
(पाखी के जुलाई अंक में प्रकाशित )
2 टिप्पणियां:
एक से एक जबरदस्त दोहे!! सामयिक!!
मौजूदा सामाजिक और राजनैतिक वातावरण से त्रस्त और व्यथित मन की पीडा को बहुत अच्छी तरह व्यक्त किया है अपनी कविताओं में
बहुत बधाई और शुभकामनायें ..!!
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