पितृपक्ष के पंद्रह दिनों में एक दिन अपनी हिंदी का भी होता है। पुरखों के साथ अपन अपनी 'राष्ट्रभाषा' का भी स्मरण (तर्पण) करते हैं। पुरखों ने अपने वंशजों पर अनगिनत उपकारों में से एक उपकार यह भी किया है कि अपने साथ राष्ट्रभाषा का स्मरण भी नत्थी कर दिया है। उन्हें मालूम था कि हमारे पुत्र-पौत्र आने वाले दिनों में इतने व्यस्त हो जाएंगे कि भाषा-वाषा को याद नहीं रख पाएंगे। अगर जमीन-जायदाद की लालच में किसी तरह पुरखे याद रह गए तो इसी के साथ बोली-भाषा का आयोजन भी निपट जाएगा। उनका शुभ विचार आज हमारा उद्घार कर रहा है और हम श्राद्घ पक्ष के बीच में एक दिन 'हिंदी दिवस' मना रहे हैं। पुरखे आश्वस्त रहें, जब तक हम उन्हें पानी देंगे तब तक हिंदी को भी टीकते-पूजते रहेंगे।
सच मानिए अश्विन माह की अंधियारी में हमें पुरखों और 'राष्ट्रभाषा' की रह-रह कर याद आती है। पुरखे हमारा अर्ध्य और श्राद्घ लेने के लिए घरों के आसपास मंडराते हैं और बेचारी 'राष्ट्रभाषा' सरकारी दफ्तरों के आसपास मुक्ति की कामना लिए लार टपकाती है। जिसने जीभ को हिलने-डुलने लायक बनाया, रोजी-रोटी दी, कचहरी से लेकर संसद तक चलाया, वही अपनी आबरू के लिए राजपथ पर रिरियाती है। अपने बोलने का और लिखने का अभ्यास देखकर जब वह कराहती है तो बहुतेरे दफ्तर उसके आंसू पोंछते हैं। कहीं निबंध लिखे जाते हैं, कहीं कविता, कहीं भाषणबाजी तो कहीं बतोलेबाजी के आयोजन। यह देख हिंदी अपनी मुक्ति के लिए आश्वस्त है।
जब तक पुरखों की संपत्ति पूरी तरह से अपनी नहीं होती, तब पितरों का तर्पण भी बहुत तन्मयता से होता है। पूरे पंद्रह दिन पानी से लेकर खीर तक सपर्पित होती है। एक-एक कर्म कर्मकांड की किताब से निकलता है। जैसे-जैसे संपत्ति पर अधिकार पुख्ता होता जाता है, पुरखे सिर का बोझ होने लगते हैं। फिर सारा घर मिलकर तय करता है कि पितर घर में परेशान हो रहे हैं इन्हें 'गया' पहुंचाओ। अब इनकी मुक्ति वहीं होनी है। अपनी हिंदी का हाल भी वैसा ही है। हिंदी पढ़कर जब तक अंग्रेजी ठाठ नहीं मिलता तब तक वह मातृभाषा है और जब गजरथ सज गया तब चिंदी-चिंदी उसका तर्पण होता है। जायका जिस तरह से बदल रहा है तो एक दिन पिज्जा-बरगर से पुरखों के पिंडे बनेंगे और अंगरेजी हिंदी को अमर होने का वरदान देगी।
अपनी मां-बहनों और भोली-भाली जनता की तरह अपनी 'राष्ट्रभाषा' बहुत जल्दी प्रसन्न होती है। वह तो इसी बात से प्रसन्न है कि एक दिन ही सही उसकी व्यस्त औलादें उसे याद तो कर लेती हैं। उसकी महानता का गुणगान करती हैं। उस पर कुर्बान होने की कसम खाती हैं। वह इसी बात पर गदगद है कि उसने अंगरेजी की तरह दुनिया में किसी को गुलाम नहीं बनाया। अंगरेजी ने भले ही सारी दुनिया को गुलाम बना लिया हो, लेकिन उसका दिवस मनाने वाला कोई नहीं। कम से कम हमारी औलादें कृतघ्न नहीं हैं। सारी संपत्ति देकर पितर अंजुरीभर पानी से प्रसन्न हैं और हिंदी 'दिवस' की पप्पी से खुश।
हम अपनी हिंदी से केवल प्यार नहीं करते, उसके प्रति श्रद्घा ही नहीं रखते, श्राद्घ (हिंदी) दिवस पर उसे याद ही नहीं करते, बल्कि उसका लोहा भी मानते हैं। अंगरेजी की नाजायज संतानें उसकी आत्मा का भी वध करना चाहती हैं, लेकिन वह तोप-तलवारों को बेअसर करती जा रही है। बोलचाल में अंग्रेजी आई तो उसने छकाया। हिंदी अखबारों के पन्नों पर घुसने लगी तो उसने छकाया, अर्जियों-फाइलों में घुसी तो भी उसने अपने को बचाया। उसकी काया का अंतिम संस्कार भले हो गया हो, लेकिन आत्मा का बाल भी बांका नहीं हुआ है। तभी तो हम सितंबर में चौदवी का हिंदी चांद देखते हैं। इस समय हिंगलिश का झोंटा पकड़कर नोंच रही है। ईश्वर उसे ताकत दे।
देखिए भाई! अपन ठहरे प्रबल आशावादी। कोई कितना भी कहे कि हिंदी के कबूतर को अंगरेजी के गिद्घ नोच डालेंगे, लेकिन अपने से ऐसा नहीं माना जाता। जब तक लोकतंत्र को हिंदी के वोट की बोटी चाहिए यही गिद्घ कबूतर की रक्षा करेंगे। जब तक हिंदी का इतना बड़ा बजार बना रहेगा, गिद्घ लार गुटककर भी कबूतर को जीने देगा। हम पूरे पंद्रह दिन पितरों का तर्पण करेंगे और हिंदी का स्मरण करेंगे।
3 टिप्पणियां:
आपको हिन्दी में लिखता देख गर्वित हूँ.
भाषा की सेवा एवं उसके प्रसार के लिये आपके योगदान हेतु आपका हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ.
बेहतरीन तरीके से मन्त्रमुग्ध कर दिया ।आभार ।
पितृ पक्ष में हम मृतकों को याद करते हैं .. पर हिन्दी सिर्फ बीमार है .. इसकी पितरों से तुलना ठीक नहीं .. ब्लाग जगत में आज हिन्दी के प्रति सबो की जागरूकता को देखकर अच्छा लग रहा है .. हिन्दी दिवस की बधाई और शुभकामनाएं !!
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