रविवार, 19 जून 2011

पिता अर्थात ईश्वर का अनुवाद

पिता अर्थात हाड़-मांस की वह काया, जिसमें पलता है बच्चों का दुलार-संस्कार... पिता अर्थात छायादार वह बड़ा वृक्ष, जिसमें बचपने की गौरेय्या बनाती है घोसला... पिता अर्थात वह ऊँगली , जिसे पकड़कर अपने पाँव पर खड़ा होना सीखता है घुटनों के बल चलने वाला...पिता अर्थात वह काँधा, जिस पर बैठकर शहर की गलियों से दोस्ती करता है नन्हा मुसाफ़िर...पिता अर्थात एक जोड़ी वह आँख जिसकी पलकों में अंकुरते हैं बेटे को हर तरह से बड़ा करने के हज़ारों सपने...पिता अर्थात वह पीठ, जो बेटे को घुड़सवारी करवाने के लिए तैयार रहती है हरदम...पिता अर्थात वह लाठी, जो छोटे पौधे को सीधा करने के लिए खड़ी और गड़ी रहती है साथ-साथ...पिता अर्थात वह ईश्वर जिसका अनुवाद होता है आदमी की शक्ल में।

पिता आँसुओं और मुस्कान का वह समुच्चय जो बेटे के दुख में रोता तो सुख में हँसता है। उसे आसमान छूता देख अपने को कद्दावर मानता है तो राह भटकते देख कोसता है अपनी किस्मत की बुरी लकीरों को। पिता गंगोत्री की वह बूँद जो गंगा सागर तक पवित्र करने के लिए धोता रहता है एक-एक तट, एक-एक घाट। पिता वह आग जो पकाता है घड़े को, लेकिन जलाता नहीं जरा भी। वह ऐसी चिंगारी जो ज़रूरत के वक़्त बेटे को तब्दील करता है शोले में। वह ऐसा सूरज, जो सुबह पक्षियों के कलरव के साथ शुरू करता है धरती पर हलचल, दोपहर में तपता है और शाम को धीरे से चाँद को लिए छोड़ देता है रास्ता। पिता वह चाँद जो बच्चे के बचपने में रहता है पूनम का, तो धीरे-धीरे घटता हुआ क्रमशः हो जाता है अमावस का। समंदर के जैसा भी है पिता, जिसकी सतह पर खेलती हैं असख्य लहरें, तो जिसकी गहराई में है ख़ामोशी ही ख़ामोशी। वह चखने में भले खारा लगे, लेकिन जब बारिश बन खेतों में आता है तो हो जाता है मीठे से मीठा।

वेद की वह पवित्र किताब है पिता, जिसमें लिखी हैं पुरखों के परिचय की ऋ चाएँ, जिसे पढ़कर जाना जा सकता है मनुष्य का जन्म। जिसकी आँखों में झाँककर देखा जा सकता है आदम का रूप। जो अपनी संतान के लिए ढ़ोता है पीड़ाओं का पहाड़, दर्द के हिमालय लेकर दौड़ता है रात-दिन, लेकिन उफ्‌ तक नहीं करता। अपनी नींद गिरवी कर संतान के लिए घर लाता है चुटकीभर चैन। कभी राम के वियोग में दशरथ बनकर तड़प-तड़पकर त्याग देता है प्राण, कभी अभिमन्यु के विरह में अर्जुन बन संहार कर देता है कौरवों की सेना का, तो कभी पुत्र मोह में हो जाता है धृतराष्ट्र की तरह नेत्रहीन। पिता वह रक्त जो दौड़ता रहता है संतान की धमनियों में। जो चमकता है संतान के गालों पर और दमकता है उसके माथे पर।

पिता साथ चलता है तो साथ देते हैं तीनों लोक, चौदहों भुवन। पिता सिर पर हाथ रहता है तो छोटे लगते हैं देवी-देवताओं के हाथ। पिता हँसता है तो शर्म से पानी-पानी हो जाते हैं हेमंत और बसंत। पिता जब मार्ग दिखाता है तो चारों दिखाएँ छोड़ देती हैं रास्ता, आसमान आ जाता है बाँहों के क़रीब और धरती सिमट आती है क़दमों के आसपास। पिता जब नाराज़ होता है तो आसमान के एक छोर से दूसरे छोर तक कड़क जाती है बिजली, हिलने लगती है ज़िंदगी की बुनियाद। पिता जब टूटता है तो टूट जाती हैं जाने कितनी उम्मीदें, पिता जब हारता है तो पराजित होने लगती हैं खुशियाँ। जब उठता है सिर से पिता का साया तो घर पर एक साथ टूट पड़ते हैं कई-कई पहाड़। पिता की साँस के जाते ही हो जाती है कई की सपनों की अकाल मौत।
-ओम द्विवेदी