अलखनंदन को जानने वाले यह भी जानते हैं कि उनका पल-पल पढ़ने और रचने में ही बीता। कभी ऐसा नहीं हुआ कि वे खाली बैठे हों। कभी किसी नाटक की रिहर्सल चल रही है, कभी कोई नया नाटक लिख रहे हैं, कभी किसी कविता में लगे हुए हैं तो कभी कोई नई किताब पढ़ रहे हैं। उन्हें जब भी जाना इसी शक्ल में जाना। कविताओं से उनका कितना गहरा नाता था इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि उनका पहला नाटक 'मगध से मगध' तक काव्य नाटक था गुरुदेव रवीन्द्रराथ टैगोर की १८ कविताओं से तैयार किया गया 'काव्यरंग' आखिरी। 'चंदा बेड़नी' ने उन्हें जितना विवादित किया, उतनी ही ख्याति भी दिलवाई। कठमुल्लओं की परवाह किए बगैर उन्होंने इस नाटक के सैकड़ों मंचन किए। 'महानिर्वाण' में रंगमंच के पितामह बाबा कारंत ने अलखनंदन के निर्देशन में भाऊराव की भूमिका निभाई। देखने वाले झूठ नहीं कहते होंगे कि इस नाटक ने हिंदी रंगमंच का सिर गर्व से ऊह्णचा कर दिया था। यही सम्मान रामेश्वर प्रेम के नाटक 'चारपाई' को भी मिला।
अलखनंदन के लिखे नाटकों में राजा का स्वांग, स्वांग मल्टीनेशनल, स्वांग शकुंतला, उजबक राजा तीन डकैत, जगर मगर अंधेर नगर आदि प्रमुख हैं। उत्तर भारत की परंपरागत शैलियों तथा बुंदेली लोक से गढ़े उनके नाटक इस शर्त पर दर्शकों को सम्मोहित करते रहे कि वे अपने सोचने और समझने की धार नहीं कुंद नहीं करेंगे। उनके नाटक देखने के बाद प्रेक्षागृह से बाहर निकलता दर्शक अपने आसपास की चिंता और खुद पर चिंतन करता हुआ दिखाई देता। विषय वस्तु के चयन के साथ लोकगीतों और लोकनृत्यों से उनका प्रेम हर नाटक में अलग-अलग अंदाज में दिखाई देता था। प्रसिद्घ नाटककार हबीब तनवीर ने जब अपना नाटक 'आगरा बाजार' अलखनंदन के निर्देशन में देखा तो उन्होंने तपाक से कहा कि- 'इस नाटक का जितना बेहतर संगीत अलख ने दिया है, मैं भी नहीं कर पाया।' बच्चों पर लिखा उनका नाटक 'सलोनी गौरैया' सर्वाधिक खेला गया बाल नाटक है।
६ सितंबर १९४८ को जन्मे अलखनंदन ने रेलवे की सुरक्षित नौकरी छोड़कर पूर्णकालिक रूप से रंगमंच को स्वीकार किया और तकरीबन तीन दशक तक मध्यप्रदेश में रंगमंच की धड़कन बने रहे। रंगमंडल के सहसंस्थापकों में रहे और 'नट बुंदेले' के माध्यम से देशभर में अपनी तरह से और अपनी शर्तों पर नाटक खेलते रहे। उनके कविता संग्रह 'घर नहीं पहुंच पाता' को भी काव्यप्रेमियों ने खूब सराहा। उनकी रचनात्मकता पर पुरस्कार भी न्योछावर हुए। प्रदेश का शिखर सम्मान उन्हें मिला। वर्ष २०११ का संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार उन्हें दिए जाने की घोषणा गई। दुनिया के रंगमंच को अगर उन्होंने अलविदा नहीं कहा होता तो मार्च में रंगप्रेमी उन्हें यह पुरस्कार ग्रहण करते देखते। अब जितना सच यह है कि अलखनंदन नहीं रहे, उतना ही बड़ा सच यह भी है कि जब तक नाटक जिंदा रहेंगे, अलखनंदन नहीं मरेंगे।
-ओम द्विवेदी