बुधवार, 26 अगस्त 2009

दंगा उत्सव

दंगे हमारे शहर, प्रदेश और देश का गौरव हैं। महीने-चार महीने में दमदार दंगे न हों तो पता ही नहीं चलता कि हमारी कौमें जिंदा हैं और उनका अपना धर्म भी है। जैसे सिर में दर्द होने पर सिर का बोध होता है, पिछवाड़े बालतोड़ होने पर पिछवाड़े का अहसास होता है, पेट में मरोड़ होने लगे तो ज्ञात होता है कि शरीर में पेट भी है और महबूबा दिल तोड़ दे तो पूरा मोहल्ला जान जाता है कि आपके पास एक अदद दिल भी है। दंगे इसी तरह कौमों को उनके होने का अहसास कराते हैं। पंडों और मौलवियों को सुखेन वैद्य की तरह आदर तभी तक मिलता है जब तक समाज के पेट में दंगों का दर्द होता रहे। दंगें न हों तो दुनिया में हमारे देश की पहचान समाप्त हो जाए। बीमा का एजेन्ट जिस तरह माथे पर लगे चोट के निशान को स्थाई पहचान के रूप में चिन्हित करता है, उसी तरह हमारे मुल्क की स्थाई पहचान भी दंगों के रूप में होती है।
दंगे शांति और स्वाभिमान की रक्षा के लिए होते हैं। प्यार बचाने और बढ़ाने के लिए होते हैं। धर्म की रक्षा के लिए तो होते ही हैं। एक धर्म को मानने वाला अगर दूसरे धर्म में खोट देख ले तो धर्म तत्काल खतरे में आ जाता है। जब धर्म खतरे में हो तब धार्मिक लोग भला कैसे बैठ सकते हैं? अपनी-अपनी तलवारें निकालकर कूद पड़ते हैं धर्मक्षेत्र में। एक मजहब की लड़की को अगर दूसरे मजहब के लड़के से इश्क हो जाए तो मानिए कि प्यार खतरे में है। ऐसी स्थिति में प्यार की रक्षा के लिए दंगों को अवतार लेना पड़ता है। इन्हें आप क्षणभर के लिए नकली दंगा कह सकते हैं, लेकिन जब सरकार खतरे में आती है तब पूरी तरह चौबीस कैरेट शुद्घ दंगे होते हैं। जिस तरह माखन चुराने वाले कान्हा ने द्रौपदी की लाज बचाई थी, दंगे सरकार की लाज बचाते हैं, उसकी इज्जत ढक लेते हैं। सरकार गिरते-गिरते रह जाती है और अगले चुनाव की भैंस को हांॅकने के लिए मजबूत लाठी मिल जाती है।

दंगे का अर्थ है कि देखने-सुनने वाला दंग रह जाए। दंगा उत्सव सिद्घांत के अनुसार पहले किसी उत्सव को दंगे में परिवर्तित किया जाता है, पिᆬर कालांतर में दंगे को ही उत्सव बना दिया जाता है। बिना दंगे के उत्सव श्रीहीन और शोभहीन रहते हैं।

दंगे होने के बाद ही यह लगता है कि शहर में पुलिस भी है। थानों में सोती पुलिस वर्दी और बंदूक धारण कर तभी सड़क पर खड़ी होती है, जब उसे दंगे की सुगबुगाहट मिलती है और शहर का नाम बदलकर धारा १४४ वगैरह कर दिया जाता है। उसी समय उसे अपनी शक्ति का अहसास होता है। जामवंत जी ने हनुमानजी को उनकी शक्ति याद दिलाई थी और वे समुद्र में कूद गए थे। दंगे पुलिस को उसकी शक्ति याद दिलाते हैं और वे पीटने-कूदने पर उतारू हो जाते हैं। दंगे कभी-कभी स्वयं हनुमान की भूमिका भी अदा करते हैं। पूछ में आग लगाकर लंका फूंक देते हैं।

सरकारों ने जबसे दंगे का महत्व समझा है, तबसे दंगा विशेषज्ञों को सरकारी संरक्षण मिलने लगा है। जो लोग बिना किसी वजह के दंगा करवा दें, उन्हें एक्सपर्ट के रूप में सरकार मदद मुहैया कराती है। कुछ विदेशी विशेषज्ञ भी गुपचुप तरीके से देश में दंगों का प्रशिक्षण दे रहे हैं। सरकार यह जानती है कि कलात्मक दंगों में निपुण लोग चुनाव के समय बूथ कैप्चरिंग वगैरह कर सकते हैं और खाली समय में अलग-अलग धर्मों के स्वाभिमान की रक्षा कर सकते हैं।

दंगे कभी-कभी क्रांति का भ्रम भी बनाते हैं। वे जब हो रहे होते हैं तो लगता है क्रांति हो रही है। वस्तुतः यह क्रांति को मारने का सुनियोजित प्रयास होता है। लोग रोटी के लिए न लड़ें इसलिए धर्म के लिए लड़ा दिया जाता है। वे यह जानते हैं कि क्रांति सत्ता को पलटने के लिए होती है और दंगे सत्ता की रक्षा के लिए। उनकी सत्ता न पलटे इसलिए वे दंगे को क्रांति का सम्मान देते हैं। उन्हें यह भी जानना होगा कि जब दंगाइयों का पेट एक-दूसरे को मारकर भर जाता है तो वे अगला हमला कुरसी पर ही बोलते हैं।

(साहित्य अमृत के व्यंग्य विशेषांक अगस्त २००९ में प्रकाशित)

कोई टिप्पणी नहीं: