रविवार, 19 जून 2011
पिता अर्थात ईश्वर का अनुवाद
पिता आँसुओं और मुस्कान का वह समुच्चय जो बेटे के दुख में रोता तो सुख में हँसता है। उसे आसमान छूता देख अपने को कद्दावर मानता है तो राह भटकते देख कोसता है अपनी किस्मत की बुरी लकीरों को। पिता गंगोत्री की वह बूँद जो गंगा सागर तक पवित्र करने के लिए धोता रहता है एक-एक तट, एक-एक घाट। पिता वह आग जो पकाता है घड़े को, लेकिन जलाता नहीं जरा भी। वह ऐसी चिंगारी जो ज़रूरत के वक़्त बेटे को तब्दील करता है शोले में। वह ऐसा सूरज, जो सुबह पक्षियों के कलरव के साथ शुरू करता है धरती पर हलचल, दोपहर में तपता है और शाम को धीरे से चाँद को लिए छोड़ देता है रास्ता। पिता वह चाँद जो बच्चे के बचपने में रहता है पूनम का, तो धीरे-धीरे घटता हुआ क्रमशः हो जाता है अमावस का। समंदर के जैसा भी है पिता, जिसकी सतह पर खेलती हैं असख्य लहरें, तो जिसकी गहराई में है ख़ामोशी ही ख़ामोशी। वह चखने में भले खारा लगे, लेकिन जब बारिश बन खेतों में आता है तो हो जाता है मीठे से मीठा।
वेद की वह पवित्र किताब है पिता, जिसमें लिखी हैं पुरखों के परिचय की ऋ चाएँ, जिसे पढ़कर जाना जा सकता है मनुष्य का जन्म। जिसकी आँखों में झाँककर देखा जा सकता है आदम का रूप। जो अपनी संतान के लिए ढ़ोता है पीड़ाओं का पहाड़, दर्द के हिमालय लेकर दौड़ता है रात-दिन, लेकिन उफ् तक नहीं करता। अपनी नींद गिरवी कर संतान के लिए घर लाता है चुटकीभर चैन। कभी राम के वियोग में दशरथ बनकर तड़प-तड़पकर त्याग देता है प्राण, कभी अभिमन्यु के विरह में अर्जुन बन संहार कर देता है कौरवों की सेना का, तो कभी पुत्र मोह में हो जाता है धृतराष्ट्र की तरह नेत्रहीन। पिता वह रक्त जो दौड़ता रहता है संतान की धमनियों में। जो चमकता है संतान के गालों पर और दमकता है उसके माथे पर।
पिता साथ चलता है तो साथ देते हैं तीनों लोक, चौदहों भुवन। पिता सिर पर हाथ रहता है तो छोटे लगते हैं देवी-देवताओं के हाथ। पिता हँसता है तो शर्म से पानी-पानी हो जाते हैं हेमंत और बसंत। पिता जब मार्ग दिखाता है तो चारों दिखाएँ छोड़ देती हैं रास्ता, आसमान आ जाता है बाँहों के क़रीब और धरती सिमट आती है क़दमों के आसपास। पिता जब नाराज़ होता है तो आसमान के एक छोर से दूसरे छोर तक कड़क जाती है बिजली, हिलने लगती है ज़िंदगी की बुनियाद। पिता जब टूटता है तो टूट जाती हैं जाने कितनी उम्मीदें, पिता जब हारता है तो पराजित होने लगती हैं खुशियाँ। जब उठता है सिर से पिता का साया तो घर पर एक साथ टूट पड़ते हैं कई-कई पहाड़। पिता की साँस के जाते ही हो जाती है कई की सपनों की अकाल मौत।
-ओम द्विवेदी
शनिवार, 28 मई 2011
मज़दूर अर्थात मज़े से दूर
जो मज़े से दूर है, वही मज़दूर है। जब तक मज़े से दूर रहेगा, तब तक ज़माना उसे मज़दूर कहेगा। मई दिवस के दिन मज़दूर कहलाना भी बहुत रोमांटिक लगता है। लगता है मज़दूर वह क्रांतिकारी है, जिसने ज़ुल्म सह-सहकर अपनी मज़दूरियत क़ायम रखी है। अगर यह मज़दूर न होता तो मार्क्सवाद और समाजवाद जैसे 'वादों' को दाना-पानी कौन देता। मज़दूरों ने अगर अपने पसीने से दुनिया बनाई है तो तरह-तरह के 'वादों' को सजाया-सँवारा भी है। यह मज़दूर न होता तो बड़े-बड़े लाटसाहब भी मालिक कहलाने के लिए तरस जाते। कोई उन्हें मालिक कहने वाला भी नहीं मिलता।
-कार्ल मार्क्स ने कहा था दुनिया के मज़दूरों एक हो जाओ, लेकिन मज़दूर एक होकर करेंगे क्या? एक होकर भी करना तो मज़दूरी ही है। एक होकर मज़दूरी करेंगे तो मालिकों का ज़्यादा भला होगा, ज़्यादा उत्पादन होगा, थोड़ी तनख़्वाह बढ़ेगी फिर ज़्यादा महँगाई बढ़ेगी। मज़दूरी जितनी बढ़ेगी, महँगाई उसका दस गुना होकर खा जाएगी। जब तक ऐसा होता रहेगा मज़दूर मज़दूर बना रहेगा। अतः मज़दूर को मज़दूर बनाए रखने के लिए ख़ूब महँगाई बढ़ाओ, पहले उसे तोड़-तोड़कर रीढ़विहीन कर दो, फिर एक करो। जिस तरह काम करने के लिए मज़दूरों की ज़रूरत है, मेरे भाई दुनियाभर के मज़दूरों को एक करने के लिए भी मज़दूरों की ही ज़रूरत पड़ेगी। मज़दूर न रहेगा तो एक किसको किया जाएगा।
-मैं अपने आसपास के अनुभव से मज़दूरों के एक होने के फ़ायदे गिना सकता हूँ। हमारे दफ़्तर में जितने कामचोर मज़दूर हैं, सब एक रहते हैं। दिनभर एक होने में लगे रहते हैं। उनका अखंड मत है कि काम करने पर शोषण हो सकता है। काम ही नहीं करेंगे तो शोषण कैसे होगा। काम करने की बजाय एक रहो। कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकेगा। मालिक नौकरी से निकालने की हिम्मत नहीं करेगा। काम करने वाला अफ़सर चमकेगा। काम करने वाले सहकर्मियों को वे मालिक का ग़ुलाम कहते हैं। दफ़्तर से बाहर जाते ही वे उसे दयनीय और बुर्जुआ का प्यादा कहते हैं। सालभर एक रहने के लिए और अपनी माँगों को मनवाने के लिए वे एक नेता चुनते हैं। उस समय ज़रूर आपस में लड़ते हैं।-बेचारे वे मज़दूर एक होने में डरते हैं जो निराला की कविता में पत्थर तोड़ते हैं, जो खेतों में बारह महीना पसीना बहाकर अपना ख़ून पतला करते हैं, जो पहाड़ तोड़कर रास्ता बनाते हैं, जो मल्टियों में काम करते हुए ऊपरी मंजिल से गिरकर मर जाते हैं, जो तालाब खोदते हैं लेकिन प्यासे मरते हैं, वग़ैरह...वग़ैरह...। एक वे मज़दूर होते हैं जो गाँव छोड़कर शहर आ जाते हैं, साइकल से बाइक, बाइक से कार और कार से हवाई जहाज़ का सफ़र करते हैं। जिनके ठाट-बाट देखकर मज़दूर आतंकित हो जाता है, जिनके जैसा मज़दूर बनने के लिए वह रात-दिन सपने देखता है और सपने देखते-देखते मर जाता है। यही सब मज़दूर एक होते हैं और दूसरे मज़दूरों को एक होकर वोट देने के लिए कहते हैं।
-पहले तो सारे मज़दूर केवल मज़दूर होते थे और उनकी विडम्बना भी एक जैसी थी, लेकिन अब वे केवल विडम्बनाओं में ही एक रह गए हैं। अब अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के अपने मज़दूर हो गए हैं। वे उनकी सभाओं में जाते हैं, उनके ज़िंदाबाद के नारे लगाते हैं, क्षेत्र में आने पर उनके लिए जाजम बिछाकर स्वागत करते हैं। आकाओं के आदेश पर दूसरे दलों के मज़दूरों अपने दल में लाने की हर संभव कोशिश करते हैं। वोट देते समय एक जुट होकर मोहर लगाते हैं, बटन दबाते हैं और अपने दल की सरकार बनाते
-कोई माने या न माने मज़दूरों के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। उसके कपड़े साफ-सुथरे हो गए हैं। वह ठंडा पीने लगा है। होली-दिवाली पर छुट्टी मनाकर ऐश करता है। मालिक बने न बने मालिक बनने के सपने देखने लगा है। मालिकों ख़बरदार मजदूर आ रहा है।
-ओम द्विवेदी
सोमवार, 16 मई 2011
एक आईपीलिए दर्शक का साक्षात्कार
बहरहाल, जब उसने मुझे साक्षात्कार देने के काबिल नहीं माना तो मैने भी यह मान लिया कि नाम होने से तो कोई होशियार और काबिल हो नहीं जाता। ईशू ने भी तो सूली पर चढ़कर यही कहा था कि हे प्रभु उन्हें माफ करना, वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहा है? पढ़े-लिखे होने का यही फायदा है कि हर गुस्सा शांत करने के लिए एक वाजिब तर्क तैयार रहता है। कुछ तो करना था, सो मैने किया। स्टोरी में एक नया एंगल तलाशा और उसका साक्षात्कार करने की योजना बनाई, जिसकी वजह से उसका पटेबाजी में नाम हुआ था। जो अपने खून-पसीने की कमाई खर्च कर स्टेडियम तक जाता है, सौ काम छोड़कर टीवी से चिपका रहता है, राह चलते रेडियो को महाभारत का संजय मानता है, खानदान और खुदाओं से ज्यादा पटेबाजों और गोलंदाजों को याद रखता है। जिन भक्तों की वजह से यह खेल धर्म है। उस बेचारे को दर्शक कहते हैं। ग्यारह खिलाड़ी मैदान में खेलते हैं तो ये बेचारे करोड़ों की संख्या में टीवी में और चर्चाओं में खेलते हैं। उनके खेलने और खेलने के बाद भी ये खेलते रहते हैं। मैने उसी को अपना नायक माना।
आईपीएल को क्रिकेट की क्रांति कहा गया है। इसने जोड़ने, जोड़ने और केवल जोड़ने का काम किया है। गाँधी दस-बीस लाख लोगों को जोड़ पाए, अन्ना हजारे, जिनका आजकल नाम चल रहा है, वे भी लाख-दो लाख लोग ही जोड़ पाए। आईपीएल तो करोड़ों को जोड़ रहा है, अरबों-खरबों में जोड़ रहा है। सारी दुनिया के खिलाड़ी एक टीम में। अपनी ही टीम का खिलाड़ी दूसरी टीम में। विश्वग्राम की असली टीम लगती है। दुश्मन भी गले मिल रहे हैं। गायक जुड़ रहे हैं, नृत्यांगनाएँ जुड़ रही हैं, राजनेता जुड़ रहे हैं, उद्योगपति जुड़ रहे हैं, रुपया तो ऐसे जुड़ रहा है कि भारत नामक देश में गरीबी तड़प-तड़प कर मर रही है। दर्शक भी ऐसे जुड़ रहे हैं कि कहिए मत, विश्वसुंदरियाँ जुड़ रही हैं, सिने तारिकाएँ जुड़ रहीं हैं, टीम के हारने पर सुंदर गालों को अश्रु स्नान करा रही हैं, जीतने पर खिलाड़ियों के ऊपर चुंबन वर्षा कर रही हैं। फिल्मी सितारे नृत्य कर रहे हैं। स्टेडियम पर लहर ऐसे चलती है, जैसे हाला पात्र में हाला का ज्वार आ रहा हो। यह सब देखना आँखों का धन्य करना है। जिसने नहीं देखा, उसकी आँखें अकारथ गईं। अतः सभी देख लेना चाहते हैं। दर्शक की तरह ही सही सब जुड़ना चाहते हैं।
साक्षात्कार के लिए मैंने जिस दर्शक को पकड़ा वह आईपीएल जितना ही प्राचीन है। उम्र में नहीं, क्रिकेट प्रेम में। वह पहले भारत का राष्ट्रीय खेल हॉकी और दुनिया का जुनूनी खेल फुटबॉल देखा करता था। पहले वह इन्हीं दोनों खेलों पर मरता था। आईपीएल ने उसे क्रिकेट का इतना दीवाना बना दिया है कि वह बीस-बीस के इस नए संस्करण को भारत का राष्ट्रीय खेल बनाने में लगा हुआ है। टेस्ट और पचास-पचास ओवर के खेल को बंद करवाना भी उसकी मुहिम में शामिल है।
मेरा पहला सवाल-क्रिकेट से मोहब्बत कैसे हुई? उसकी बूढ़ी आवाज में जवानी का वेग आया और बोला यहाँ ऐसा क्या नहीं है, जिससे मोहब्बत न हो। मोहब्बत का दूसरा नाम ही तो यह खेल है। मैं पहले हॉकी और फुटबॉल इसलिए देखता था क्योंकि वहाँ जोश-जुनून था, घंटे-दो घंटे में देखकर खाली हो जाता था, क्रिकेट में पूरा दिन खराब हो जाता था और बोरियत होती थी सो अलग। क्रिकेट ने फुटबॉल और हॉकी का समय चुरा लिया तो उसके दर्शक भी खिंचे चले आ रहे हैं। उससे ज्यादा जोश और उससे ज्यादा रंग।
खेल में जोश तो समझ में आता है, रंग से आपका तात्पर्य? बाबू तुम्हारी जवानी गई पानी में। इस उमर में अगर रंग का मतलब बताना पड़ा तो फिर तुम भभूत मलो अपने बदन पर। चौके-छक्के पर होने वाला बालाओं का नृत्य क्या तुम्हें बेरंग लगता है। गालों की गुलाबी पर क्या तुम्हें रीझने का मन नहीं करता। इस गुलाबी पर न रीझे तो मरो उसी चुल्लूभर...। चलो अगर सत्रहवीं सदी के संस्कारवान हो और उन्हें देखने में शर्म आती है तो उन दर्शकों को देख लो, जिनके चेहरे से पूरा सौंदर्य बाजार टपक रहा है और जिनसे कैमरा चिपका हुआ है। मेरा तो मन करता है एक बार मैं भी स्टेडियम में बैठकर मैच देखूँ और मौका मिले तो उस चमड़ी का स्पर्श करूँ जिसे छूने के लिए देवता तक राक्षस बनने को तैयार हैं।
आप क्रिकेट को राष्ट्रीय खेल बनाने की मुहिम में लगे हुए हैं। अंग्रेजों के खेल को भारत का राष्ट्रीय खेल बनाएँगे, यही है आपका राष्ट्रवाद? राष्ट्रवाद गया तेल लेने। जिस खेल में हम सबसे आगे रहें वही हमारा राष्ट्रीय खेल। दुनिया को धूल हम क्रिकेट में चटाएँ और राष्ट्रीय खेल मानें हॉकी को? हॉकी खिलवाकर क्या हम अपने देश के नौजवानों का भूखा मारें। मैं तो कहता हूँ क्रिकेट को छोड़कर सारे खेलों पर सिमी और नक्सलियों की तरह प्रतिबंध लगा देना चाहिए। क्रिकेट में भी पाँच दिन और एक दिन का खेल खत्म होना चाहिए। आईपीएल को ही सबसे बड़ा खिताब माना जाना चाहिए। फ्रेंचाइजी जिस तरह खिलाड़ियों को खरीदती हैं, मै तो कहता हूँ कि दर्शकों को भी खरीदना चाहिए। अच्छे दर्शकों की बोली लगनी चाहिए। जिस तरह नेता लोग चुनाव के समय वोटर खरीदते हैं, उसी तरह गर्मियों में दर्शक भी बिकना चाहिए। अगर ऐसा हुआ तो भारत नामक देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाला हर इंसान फटाफट क्रिकेट की तरह फटाफट रेखा के ऊपर आ जाएगा।
आप अगर क्रिकेट खिलाड़ी होते तो क्या करते? कंपनियों के विज्ञापन करता, रात में पार्टी-शार्टी करता, दिन में देश-विदेश घूमता, रैम्प-वैम्प पर चलता, होटल-वोटल खोल लेता, प्रशंसकों को ऑटोग्राफ देता। इन सबसे फुरसत मिलती तो एक-दो मैच में सेंचुरी बनाकर हवा में बैट लहराता, दर्शकों को दिखाता। विकेट मिलने पर खूब चीखता, मैदान में चारों तरफ दौड़ता, आउट हुए बल्लेबाज को माँ-बहन की गाली देता। वह सब करता जो हमारे खिलाड़ी करते हैं। और अगर बीसीसीआई के चेयरमैन होते या चीफ सेलेक्टर होते तो क्या करते। तब तो मजे ही मजे थे। न हर्र लगती न फिटकरी रंग चोखा रहता। दिल्ली से बंबई, बंबई से चेन्नई, यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ उड़ता रहता। पाँच सितारा होटलों में बैठकें करता। अपने वाले एकाध बंदे को टीम में लाता। विश्वकप में खेलने लायक भले न हो, लेकिन पंद्रह में शामिल कर उसे करोड़पति बनाता। वही सब करता जो साहब लोग कर रहे हैं।
वैसे मैं आपको बता दूँ मैं दर्शक बनकर बहुत खुश हूँ। सचिन की बल्लेबाजी की तरह मैं दर्शकत्व का पूरा आनंद ले रहा हूँ। सचिन को मैदान पर उम्र धोखा दे सकती है, मुझे कभी नहीं देने वाली। खिलाड़ी तो आते-जाते रहते हैं, मुझे कोई माई का लाल दर्शक दीर्घा से नहीं निकाल सकता। मैं अंतिम साँस तक क्रिकेट का आनंद ले सकता हूँ।
-ओम द्विवेदी
गुरुवार, 21 अप्रैल 2011
अण्णा के नाम प्रेमपत्र
आदरणीय,
देशवासियों के साथ मैं भी कुछ दिन पहले ही आपके आंदोलन से फारिग हुआ हूँ । नारों से गला, मोमबत्तियों से हाथ और टोपी से सिर ख़ाली हुआ है। सीना ताने घूम रहा हूँ कि मैने सरकार को कदमों में झुका लिया है। सच पूछिये मैं दो कौड़ी का आदमी अरबों-खरबों की सरकार को चुटकी में मसलकर बहुत ख़ुश हूँ । राजधानियाँ और शहर क्रांति से अटे पड़े हैं। ऐसा लग रहा है जैसे जगह-जगह इंक़लाब की गुमटियाँ लग गई हों, आपकी सरकार बन गई हो, आज़ादी नामक किताब का दूसरा संस्करण हाथ लग गया हो। में अगर मैं न ख़ुश होता तो पड़ोसी मुझे सूमड़ा बोलते, ज्ञानी लोग अज्ञानी और देशप्रेमी मुझे देशद्रोही समझते। सामाजिक प्राणी होने के नाते इतने इल्ज़ाम झेलकर गुज़र-बशर करना नामुकिन था, अस्तु मैंने ख़ुश होने की परंपरा का निर्वाह किया।
आज आप देश के सबसे बड़े नायक हैं, आपने जंतर-मंतर में बैठकर मारण मंत्र सिद्घ किया है और उसे सरकार तथा भ्रष्टाचार पर एक साथ फेंका है। सरकार तिलमिलाने का टेलीफ़िल्म दिखा रही है, वह कराहों और विनम्रता के अलंकारों से सज गई है। ऐसे में आपसे सवाल पूछना महापातक जैसा लगता है। जैसे सवाल पूछकर मैं अपनी ही हत्या कर रहा हूँ , लेकिन क्या करूँ रहा नहीं जा रहा है। जिस तरह

सारा देश आपको दूसरा गाँधी कह रहा है, लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि आप कौन से दूसरे गाँधी हैं। एक अब्दुल गफ़्फार गाँधी थे, वे भी दूसरे वाले ही थे। इसके बाद इंदिरा-फिरोज गाँधी से लेकर राहुल और वरुण गाँधियों तक में दूसरा गाँधी बनने की गलाकाट प्रतिस्पर्धा है। चलिए आपको उपवास करने वाला और अहिंसा धरने वाला दूसरा गाँधी मान लेते हैं, फिर आपने भ्रष्टाचारियों को फाँसी देने वाली बात जो कही है, उसका क्या करें! क्या फाँसी भी अहिंसात्मक हो सकती है। बेचारे पहले गाँधी ने फाँसी देने की बात तो अंगरेज़ों के लिए भी नहीं कही। वे उनसे जीवनभर देश छोड़ने की विनती करते रहे। आज के काले क्या उनसे बड़े अंगरेज़ हैं या आप सत्याग्रह की प्रयोगशाला में कोई नया प्रयोग कर रहे हैं? आपने सुभाषचंद्र बोस की तरह लाल किले पर धावा बोलने की घोषणा भी कर दी।मुझ अज्ञानी को स्पष्ट करें कि क्या लाल किला भ्रष्टाचारियों का गढ़ है, जिस पर चढ़ाई करके आप देश को भ्रष्टाचार की ग़ुलामी से आज़ाद कर देंगे। क्या आपका आंदोलन गाँधी और भगतसिंह का कॉकटेल है। दोनों के मिश्रण से किसी नई क्रांति का कारखाना लगा रहे हैं क्या...?
हजारे साहब! देखते ही देखते आपके साथ लाखों लोग खड़े हो गए। दिन में रैलियों और रात में मोमबत्तियों की भीड़ लग गई।गाँधीजी ने चरखा चलाकर खादी का उद्घार किया था, आप चाहें तो मोमबत्ती का भला हो सकता है।खादी की तरह मोमबत्ती को आज़ादी की दूसरी लड़ाई का प्रतीक बना सकते हैं। वैसे भी जिस तरह से बिजली संकट बढ़ रहा है, आने वाले दिनों में ईमानदार मनुष्यों से ज़्यादा मोमबत्तियों की ज़रूरत पड़ेगी। एक बात चुपके से बताइगा कि आप अपने आंदोलन के लिए इतनी सुंदर और समझदार जनता कहाँ से लेकर आए थे। स्त्रियाँ मेनका और रंभा की तरह सुंदर थीं तो पुरुष कामदेव के अवतार। ऐसा लग रहा था कि आपका आंदोलन किसी स्वर्ग लोक में चल रहा है। टीवी पर ऐसे चेहरे देखकर न जाने कितनों का मन आंदोलन के लिए डोला होगा। लोगों को भले ये आईपीएल की तरह आंदोलन की चियर गर्ल लगें, लेकिन मुझे तो ये भ्रष्टाचार से तंग जनता लग रही थी, और बार-बार इस जनता का साथ देने का मन कर रहा था।
एक बात और आपके आंदोलन में पचास-साठ लाख रुपए जो खर्च हुए वह तो ईमानदारी के थे न! वह तो इधर-उधर के रास्तों से नहीं आया था। किसी भ्रष्ट ने तो दान नहीं दिया था न! आपने अपनी सारी जमीन गाँव के विकास के लिए दे दी। आपकी सेना के सेनापति भूषण द्वय खरबपति हैं, उन्होंने आंदोलन के लिए कुछ दान किया कि नहीं!
अण्णा साहब! कभी-कभी आप गाँधी से भी बड़े लगते हैं। बेचारे गाँधीजी बीस-पच्चीस साल तक संघर्ष करते रहे, फिर भी उन्हें इतनी लुभावनी जनता नहीं मिली। ऐसा कभी नहीं हुआ कि उनके आंदोलन से आंदोलनकारी भी खुश रहें और सरकार भी।आंदोलनकारी अपनी पीठ ठोंके और सरकार अपनी। आंदोलनकारी कहें कि जनता जीती और सरकार कहे कि लोकतंत्र। वे वर्षों संघर्ष करने के बाद भी संघर्ष का जश्न नहीं मना पाए। आप अपना कमाल देखिए कि पाँच दिन में ही आपने संघर्ष को उत्सव में बदल दिया। कहने वाले भले गाँधी को महान कहें, लेकिन अपुन तो नहीं कहने वाले। गाँधीजी ने जनता को सत्य-अहिंसा और ईमानदारी का पाठ पढ़ाकर उसे नाहक तंग किया।वे आज होते तो जनता को ही कहते कि जब आप रिश्वत नहीं दोगे तो लेने वाला कैसे लेगा। आपने कम से कम हमारा ख़्याल रखा और रिश्वत लेने वालों का ही कान ऐंठा कि जब तुम लोगे नहीं तो देने वाला देगा कैसे...?
धोनी की कप्तानी और सचिन के बल्ले की तरह आपका आंदोलन चल निकला है। मल्टीनेशनल कंपनियाँ आपकी तरफ आँखें फाड़े देख रही हैं। अपने उत्पाद के लिए आपको बेचना चाहती हैं। ईमानदार लोगों को भी ठंडा और गरम पीना पड़ता है। उन्हें लुभाने के लिए ईमानदार आदमी का ही विज्ञापन करना ज़रूरी है। अगर आप थोड़ा उस दिशा में सोचें तो आपके आंदोलन का ख़र्च भी निकल आएगा और मीडिया फ्रेंडली बने रहेंगे। राजनीतिक दल के लोग भी एक ऐसे प्रधानमंत्री की तलाश में हैं, जो ख़ुद ईमानदार हो और जिसकी आड़ में बेईमानी का कारोबार चलाया जा सके। इस तरह आपकी क्रांति ने बहुत सारे बंद दरवाज़े खोले हैं। गाँधीवाद में नए बाज़ार का दर्शन हुआ है। जो लोग वोट डालकर सरकार बदलने नहीं निकलते वे मोमबत्ती लेकर राजधानी में आग लगाने निकले हैं। मैं भी आपके साथ चार-पाँच दिनों तक इसीलिए लगा रहा ताकि बेइमानी पर ईमानदारी की बढ़िया पैकिंग चढ़ जाए, लोग मुझे भ्रष्ट करने में स्वयं को धन्य समझें और भ्रष्ट कहने में घबराएँ।
आपका ही
एक अनुयायी
रविवार, 27 मार्च 2011
हिंदी रंगकर्म की विडम्बनाएं
हिंदी सिनेमा जितना समृद्घ है, हिंदी रंगमंच उतना ही विपन्न। फ़िल्म अभिनेता जितने मालामाल हैं, रंगमंच के कलाकार उतने ही कंगाल। आज़ादी के साठ साल बाद भी न तो उनके लिए कोई सरकारी योजना है और न ही उनके भरण पोषण के लिए कोई इंतज़ाम। परिणाम यह कि हिंदी रंगमंच की ओर रुख करने में भी युवाओं के पांव कंपकंपाते हैं। अगर वे हिंदी नाटकों की दुनिया में दाख़िल होते भी हैं तो इसलिए कि उन्हें देर-सबेर बॉलीवुड का टिकट चाहिए होता है। रंगममंच के लिए बड़े-बड़े कलाकारों का समर्पण अंततः पेट के आगे आत्म समर्पण कर देता है। परिणाम यह कि हिंदी रंगकर्म आज भी शौक़िया है और ज़्यादातर शौक़िया रंगकर्मियों के हाथ में ज़िंदा भी है।
वह निकट भविष्य में पूरी तरह व्यावसायिक हो पाएगा, इसमें संदेह है। इसके पीछे तर्कों की लंबी फ़ेहरिस्त है। नाटकों के लिए हर तरफ उपेक्षा भाव है। ज़्यादातर उत्तर भारत के पारिवारिक संस्कारों में रंगकर्मियों को आज भी 'भाड़' ही माना जाता है। जिनमें सीखने की जिज्ञासा है और जो रंगमंच को जीवन की मुख्यधारा में शामिल करना चाहते हैं, उनके लिए बेहतर प्रशिक्षण नहीं है। राष्ट्रीय नाट्य विद्याल नई दिल्ली और भारतेंदु नाट्य अकादमी लखनऊ को छोड़ दिया जाए तो कोई भी सरकारी संस्थान ऐसा नहीं है, जहां रंग प्रतिभा को निखारा और संवारा जाता हो। यहां भी इतनी कम सीटें हैं कि हज़ारों युवक वहां पहुंचने का ख़्वाब ही देखते रह जाते हैं। भोपाल का भारत भवन अब केवल प्रेक्षागृह ही रह गया है। जब तक ऐसे संस्थानों का विकेन्द्रीकरण नहीं होगा, तब तक छोटी-छोटी जगहों पर रंग रुचियों का अंकुर छायादार वृक्ष नहीं बनेगा।
नाटकों को मंच पर उतारने के लिए पहली ज़रूरत स्क्रिप्ट की होती है। दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि अच्छे हिंदी नाटक ऊंगलियों पर गिने जाने लायक़ हैं और उन्हें कई-कई बार मंचित किया जा चुका है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, जयशंकर प्रसाद, मोहन राकेश जैसे कुछेक नाटककारों ने मौलिक नाट्य लेखन की शुरुआत की, लेकिन यह परंपरा समृद्घ होकर आगे नहीं बढ़ी। मराठी, बंगाली आदि अन्य भारतीय भाषाओं सहित विदेशी भाषाओं के अनुदित नाटकों के ज़रिए हिं

उपेक्षा का आलम यह है कि हिंदी क्षेत्र में एक शहर में एक सभागार भी ऐसा नहीं है जो विशुद्घ रूप से नाट्यकर्म के लिए हो। जो सभागार थोड़े से साधन संपन्न हैं, उनकी स्थिति इंदौर के रवीन्द्र नाट्य गृह की तरह है। उनका एक दिन का किराया ही इतना महंगा है कि कलाकार बिक जाए।शादी-बारात और सरकारी बैठकों के लिए बने सभागारों में ही जुगाड़कर रंगकर्मी नाटक करते हैं। इससे प्रस्तुति में वह प्रभाव पैदा नहीं होता जो व्यावसायिक रंगकर्म में झलकता है। दिल्ली में हिंदी रंगकर्म इसलिए भी केंद्रित है क्योंकि वहां एनएसडी के भारी-भरकम ख़र्चे पर नाटक होते हैं और तमाम नाट्य समारोहों में अन्य भारतीय भाषाओं के अलावा विदेशी भाषाओं के नाटकों की भव्यता और दिव्यता दिखाई देती है। प्रेक्षागृह से लेकर रंगमंच की तमाम अन्य सहायक सामग्रियां भी वहां प्रचुर मात्रा में मौजूद हैं।
हिंदी रंगमंच को विडम्बनापूर्ण स्थिति में पहुंचाने के लिए वे कलाकार भी कम दोषी नहीं हैं, जो हिंदी नाटकों का दाना-पानी खाकर मुम्बइया फिल्मों की सेवा में लग गए। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में पढ़ते हुए उन्होंने क़समे में तो नाटकों की सेवा की खाईं, लेकिन पांव सिनेमा के पखारने के लगे। इस समय अकेले मध्यप्रदेश के ही इतने रंगमंच कलाकार फ़िल्मों में ठीक-ठाक हैसियत रहते हैं कि वे चाहें तो एक साझा कोशिश से प्रदेश के रंगमंच में प्राण फूंक सकते हैं। रघुवीर यादव, आशुतोष राणा, गोविंद नामदेव, मुकेश तिवारी, विजयेन्द्र घाटगे, स्वानंद किरकिरे आदि कोशिश करें तो प्रदेश में रंगमंच नए करवट ले सकता है। यही भूमिका पूरे हिंदी क्षेत्र के लिए ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, अनुपम खेर, मनोज वाजपेयी, सुधीर मिश्रा और कुछ हद तक अमिताभ बच्चन भी निभा सकते हैं। स्वयं को पुनर्जीवित करने के लिए नाटक करने की बजाय इन्हें हिंदी रंगमंच को पुनर्जीवित करने के लिए सुदीर्घ योजना बनानी चाहिए। अगर ये लोग हिंदी नाटकों के लिए आगे आएंगे तो सरकारें भी जागेंगी और हिंदी नाटकों के दर्शकों के मन में जो हीन भावना है, वह भी ख़त्म होगी। सिनेमा के समानान्तर नाटकों का ग्लैमर तैयार होगा।
हिंदी में नाटकों के प्रति अगर उपेक्षाभाव ख़त्म नहीं होता, उनके प्रशिक्षण की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होती, हिंदी में रंगमंच से जुड़े नए प्रयोग करने वाले नाट्य लेखक तैयार नहीं होते, रंगमंच में रा़ेजगार की स्तरीय व्यवस्था नहीं होती, कलाकारों के साथ दर्शकों में भी व्यावसायिक भावना नहीं आती तो हिंदी रंगमंच असहाय और बेचारा दिखाई देता रहेगा। दिनभर के दीगर कामों के बाद शाम को फुरसत के क्षणों में जो रंगकर्म छोटे शहरों में किया जा रहा है, उससे भी अगर नाटकों की दुनिया रोशन है तो यह कम बड़ी बात नहीं है।
-ओम द्विवेदी
शुक्रवार, 25 मार्च 2011
कहानियाँ गुमसुम, कविताएँ उदास

कविताओं की आँखों से आंसुओं का सोता फूट पड़ा हैं, कहानियाँ गुमसुम-सी हैं, उपन्यास उदास। शब्द थके-हारे से, जैसे किसी ने उनसे अर्थ निचोड़ लिया हो।...जैसे उनका रहनुमा चला गया हो। 'वसुधा' बेहाल है। कवियों और लेखकों की जमात स्तब्ध और हैरान। हरिशंकर परसाई का 'कमांडर', उन्हीं के पास पहुँच गया है। आलोचना का एक अध्याय ख़त्म हो गया है। ज़िंदगी के बेहद मज़बूत क़िले में मौत की काली बिल्ली कूद पड़ी है। व्यवस्था के कैंसर का इलाज करते-करते एक सुखेन वैद्य काया के कैंसर से हार गया है। कमला प्रसाद नाम के फ़ौलाद को मृत्यु ने तोड़ दिया है। अब किसी भी साहित्यिक आयोजन में उनकी ऊर्जावान उपस्थिति देखने को नहीं मिलेगी। अब नए लेखकों को कविताएँ और कहानियाँ लिखने का हुनर कौन बताएगा। रचना शिविर के लिए क़स्बों-क़स्बों और शहरों-शहरों कौन दौड़ा-दौड़ा जाएगा। अब दोस्त किसे इज्ज़त देंगे, दुश्मन किसे गालियाँ देंगे। अब कौन तपाक से फोन उठाएगा और पूछेगा कि आजकल क्या लिख-पढ़ रहे हो। कौन बार-बार समझाएगा कि अच्छा लेखक होने के लिए अच्छा इंसान होना ज़रूरी है। कौन कहेगा कि पार्टनर अपनी प्रतिबद्घता तय करो। प्रगतिशील लेखक संघ को संजीवनी देने के लिए कौन अपना रात-दिन एक करेगा। कमांडर! अभी तो तुम्हारे सिपाहियों ने युद्घ का ककहरा भी नहीं सीखा था और तुम मोर्चा छोड़कर चल दिए।
मेरे जैसे बहुतेरे लोगों ने उन्हें जब भी देखा चलते देखा, उनके बारे में जब भी सुना चलते सुना। कभी किसी आयोजन के लिए तो कभी किसी संघर्ष के लिए। न उनकी चाल में दिखावट और थकावट दिखी न उनके हाल में। विश्वविद्यालय और कला परिषद जैसी महत्वपूर्ण जगहों पर सरकारी फ़ाइलों के बीच रहे, लेकिन उनका व्यक्तित्व फ़ाइलों का ग़ुलाम नहीं हुआ, उनमें नत्थी नहीं हुआ। उनके पास से जो फ़ाइलें आईं वे रचनात्मकता की कोख बन गईं और उन्होंने किसी जनपक्षधर आयोजन को जन्म दिया। नब्बे के दशक में वे रीवा विश्वविद्यालय में हिंदी के विभागाध्यक्ष थे। जब मेरा उनसे परिचय हुआ तब वे केशव शोध अनुसंधान केंद्र को ओरछा जाने से रोकने के लिए एक-एक रुपए का चंदा कर रहे थे और अदालत की लड़ाई लड़ रहे थे। कालांतर में वे उस लड़ाई में आधा ही सही सफल हुए। उनकी उपस्थिति से रीवा विवि हिंदी प्रेमियों की चौपाल बन गया। हर हफ्ते किसी नामचीन साहित्यकार से मिलने और उन्हें सुनने का मौका मिलने लगा। रशियन विभाग में भीष्म साहनी का व्याख्यान चल रहा है तो हिंदी विभाग में काशीनाथ सिंह छात्रों से रूबरू हो रहे हैं। नागार्जुन और त्रिलोचन अपनी कविताई पर बोल रहे हैं, राजेन्द्र यादव कहानियों पर तो नामवर सिंह हिंदी आलोचना पर अपनी बात कह रहे हैं। खगेन्द्र ठाकुर, सत्यप्रकाश मिश्र, अजय तिवारी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, प्रभाष जोशी जब चाहे तब चले आ रहे हैं। कभी राजेश जोशी, कुमार अंबुज और हरिओम राजोरिया कविताएँ सुना रहे हैं तो कभी देवास से नईम गीत सुनाने चले आ रहे हैं। कभी बद्रीनारायण की कविता का नया स्वाद मिल रहा है तो कभी सुदीप बनर्जी, चंद्रकांत देवताले और लीलाधर मंडलोई जैसे वरिष्ठ कवि युवाओं का मार्गदर्शन कर रहे हैं। शिवमंगल सिंह सुमन को भी मैंने पहली बार विवि के शंभूनाथ सभागार में ही सुना।
उसी दौर में रीवा जैसी छोटी जगह में हबीब तनवीर ने नाटकों पर ४५ दिन की वर्कशाप की और 'देख रहे हैं नयन' जैसे बड़े नाटक को स्थानीय कलाकारों के साथ किया। अलखनंदन, आलोक चटर्जी ने भी वर्कशाप की। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का शिविर लगा। भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के माध्यम से एक रंग आंदोलन रीवा में खड़ा हो गया। कमलाजी कभी खड़े होकर नुक्कड़ नाटक के लिए ताली बजाते मिल जाते तो कभी रिहर्सल देखते हुए। कवियों और कहानीकारों की तरह कई रंगकर्मी भी उस छोटी जगह से निकले। इसमें एक बड़ा योगदान कमलाजी का था। भोपाल के भारत भवन की तर्ज़ पर वे रीवा में एक सांस्कृतिक केंद्र विकसित करना चाहते थे। अर्जुनसिंह के मानव संसाधन विकास मंत्री रहते उन्होंने इस स्वप्न को तक़रीबन साकार कर लिया था, लेकिन बाद में राजनीतिक संकल्प शक्ति के अभाव में वह स्वप्न स्वप्न ही रह गया। विवि में रहते हुए ही उन्होंने 'विन्ध्य भारती' के संग्रहणीय अंकों का संपादन किया। उन्हीं के रहते 'वसुधा' रीवा से प्रकाशित होना शुरू हुई और बाद में उनके भोपाल आने के बाद भोपाल आ गई। कला परिषद भोपाल में उप सचिव रहते हुए 'कलावार्ता' को एक नई ऊह्णचाई उन्होंने दी और लोकोत्सवों की एक परंपरा शुरू की। यह उनकी राजनीतिक प्रतिबद्घता ही थी कि प्रदेश में भाजपा की सरकार आने के बाद उन्होंने उप सचिव की कुर्सी तत्काल छोड़ दी।
प्रगतिशील लेखक संघ को खड़ा करने और उसे लगातार सक्रिय बनाए रखने में कमलाजी के योगदान को उनके घोर निंदक भी नकार नहीं सकते। उनकी सांगठनिक क्षमता की मान्यता मैंने प्रलेस और इप्टा के कई राष्ट्रीय अधिवेशनों में देखी है। हालाँकि उनके ऊपर यह आरोप लगते रहे हैं कि वे सेवकों का ही भला करते हैं, लेकिन मैंने उनको जितना देखा और समझा है तो वे सभी का भला करते ही दिखे हैं। जो चालाक चेले थे उन्होंने केवल उनका दोहन किया और उनके संबधों का अपने कॅरियर के लिए इस्तेमाल किया। कमाल यह था कि संगठन के लिए कमलाजी बिना किसी तर्क-वितर्क के अपना दोहन करवाते रहते थे। नए रचनाकारों को उन्होंने जितना अधिक रेखांकित किया और सतत मंच दिया, शायद ही किसी और ने किया हो। अपने अंतिम दिनों तक वे हम जैसे बिलकुल अनगढ़ रचनाकारों से लिखने के लिए कहते रहते थे। अर्जुनसिंह से उनकी मित्रता जग जाहिर थी, वे अपने समय के कद्दावर नेता थे, उस समय भी कमलाजी जब उनसे बात करते थे तो उतना ही झुकते थे, जितने में विनम्रता दिखे, चापलूसी नहीं।
व्यक्तिगत रूप से वे अपने मित्रों और दोस्त शिष्यों को कितना ख़्याल रखते थे, इसके लिए मेरे पास बेहद निजी उदाहरण हैं। १९९६ में जब मेरे पिताजी की मृत्यु हुई और मैं गाँव में था। उस समय तक गाँव में दूरभाष और मोबाइल की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। कमलाजी को पिताजी की मृत्यु के बारे में पता चला तो उन्होंने बहुत ही सांत्वनाभरा पोस्टकार्ड लिखा। यह भी लिखा कि टूटना मत मैं अभी ज़िंदा हूँ। तब से वे मुझे हमेशा पिता की तरह ही लगे। पिता की तरह ही उनसे प्रेम भी करता था और नाराज भी था।
नामवर सिंह की तरह वे बड़े आलोचक भले न रहे हों, लेकिन वक्ता उनकी टक्कर के थे। समझ उनसे उन्नीस नहीं थी। संगठन खड़ा करने और लोगों को जोड़ने में तो वे इक्कीस नहीं पचास थे। मुझे लगता है कि वे स्वर्गलोक जाकर यमराज को भी समझा रहे होंगे कि तू गरीबों को बहुत मारता है और अमीर भ्रष्टों को बख्श देता है। जरा समानता का व्यवहार कर। तू भी अच्छा इंसान बन। कमलाजी वहाँ पहुँचते ही परसाई और मुक्तिबोध से मिल आए होंगे। नागार्जुन, सुदीप बेनर्जी, हबीब तनवीर, भीष्म साहनी और नईम आदि के साथ कविता, कहानी और रंगमंच के नए अंदाज़ पर बात करने लग गए होंगे। हो न हो जाते ही वहाँ कोई रचना शिविर लगा बैठे हों। नर्क को स्वर्ग बनाने का कोई आंदोलन छेड़ दिया हो। वे वहाँ कुछ भी कर रहे हों, भी कर रहे हों, यहाँ तो सूनापन छोड़ गए हैं। विनम्र श्रद्घांजलि!
-ओम द्विवेदी
सोमवार, 21 मार्च 2011
फागुन सिर पर हाथ रख, बैठा मिला उदास
सूरज ने जबसे किया, फागुन को उद्दंड।
पानी-पानी लाज से, हुई बेचारी ठंड॥
गेर खेलने सड़क पर, निकले सातों रंग।
फागुन हंसता देखकर, चांद संवारे अंग॥
आंखों-आखों सज गया, फागुन का बाजार।
दिल वाले करने लगे, सपनों का व्यापार॥
सपने सब टेसू हुए, केसर-केसर रूप।
अंग-अग फागुन हुआ, बदन उलीचे धूप॥
ढोल, मजीरे, मसखरी, रंग, गीत, सत्कार।
प्रेम पंथ में आज भी, फागुन है त्योहार॥
आंखें प्यासी हो रहीं, तन-मन तपे बुखार।
फागुन के बीमार का, फागुन ही उपचार॥
कली-कली का रूप अब, आंखें रहीं सहेज।
फागुन चुपके से बना, सपनों का रंगरेज॥
बहकी-बहकी-सी लगे, हवा छानकर भंग।
गाल गुलाबी देखकर, बहक रहे हैं रंग॥
अपने कर पाते नहीं, अपनों की पहचान।
रंगों ने जबसे किया, सबको एक समान॥
अचरज करते ही मिले, सारे वैद्य-हकीम।
फागुन से मिलकर गले, मीठी हो गई नीम॥
धरती से आकाश तक, पुख्ता सभी प्रबंध।
तितली ने फिर भी किया, फूलों से संबंध॥
नुक्कड़-नुक्कड़ पर लगी, रंगों की चौपाल।
गाल शिकायत कर रहे, छेड़े हमे गुलाल॥
बहते पानी में नहीं, ठहरे कोई रंग।
ठहरा पानी ही करे, रंगों से सत्संग॥
फागुन करे गुलाल से, नए तरह की जंग॥
जंगल की परजा सभी, देख-देखकर दंग।
गीदड़ पाता जा रहा, शेर सरीखा रंग॥
रंग तोड़ने लग गए, फागुन का कानून।
लाल-लाल पानी हुआ, काला-काला खून॥
सपने, आंखें, भूख सब, हैं बाजार अधीन।
रंग, अबीर, गुलाल से, कैसे हों रंगीन॥
राजा-परजा साथ में, मिलकर खेलें फाग।
परजा डूबी प्रेम में, राजा करता स्वांग॥
दिल्ली में ही कैद हैं, सुख के सभी वसंत।
जो कुछ आया यहां, लूट गए श्रीमंत।
सभी सुखों के वाक्य में, दुःख का एक हलंत।
जीवन के इस चक्र में, हरदम कहां वसंत॥
चेहरे पर झुर्री दिखी, हो गए बाल सफेद।
ऋ तु वसंत की उम्र से, व्यक्त कर रही खेद॥
रंगों को होने लगा, मजहब का अहसास।
फागुन सिर पर हाथ रख, बैठा मिला उदास॥
गुपचुप किया विपक्ष ने, राजा से संवाद।
वेदपाठ भगवा करे, बोले हरा अजान।
फगुआ गाए प्रेम से, मिलकर हिंदुस्तान॥
रंगों से है कर रहा, फागुन यह अनुरोध।
आपस में करना नहीं, आगे कभी विरोध॥
शुक्रवार, 5 नवंबर 2010
दीप आज भी लड़ता है संग्राम
तरसते रहते थे महीनों
वह छूटी जा रही है धीरे-धीरे
जिस दीये की बाती बनाने के लिए
लड़ते थे सारे भाई-बहन
उसने भी बदल ली है अपनी शक्ल
जिन नए कपड़ों के लिए
नाराज हो जाते थे पिता से
उन्हें बेटे को दिलाने में अब फूल जाता है दम
जिन सपनों को देखकर
आखें रोज़ मनाती थीं दिवाली
आज वे हो रहे हैं अमावस से भी काले
पहले हम दिवाली मनाते थे
अब दिवाली हमें मनाती है
पहले हम ज़िंदगी जीते थे
अब ज़िंदगी हमें जीती है।
लेकिन दीप कल भी लड़ता था अंधेरे से संग्राम
आज भी लड़ता है
कल भी लड़ेगा।
दीपावली की शुभकामनाएँ...
-ओम द्विवेदी
गुरुवार, 4 नवंबर 2010
कुछ रोशन दोहे
अँधकार के तख्त को, पलटेंगे इस बार॥
अँधियारे की बाढ़ में, चली दीप की नाव।
घर-घर पहुँची रोशनी, रोशन सारा गाँव॥
बंद आँख में रात है, खुली आँख में भोर।
पलकें बनकर पालकी, लेकर चलीं अँजोर॥
उल्लू के संग में बनी, लक्ष्मी की सरकार।
हंस लगाकर टकटकी, देखे बारम्बार॥
लक्ष्मी, दीप, प्रसाद सब, बेच रहा बाजार।
जिसकी मोटी जेब है, उसका है त्योहार॥
देहरी दुल्हन बन गई, दीवारों पर रंग।
सात रंग की रोशनी, बनकर उड़े पतंग॥
मावस ने है रच दिया, यह कैसा षडयंत्र।
कहे रोशनी ठीक है, अँधियारे का तंत्र॥

दीवाली लेकर चली, बाँटे सारे देश॥
सूरज जब दीपक बने, हो जाती है रात।
दीपक जब सूरज बने, दिखने लगे प्रभात॥
सूरज ने जबसे किया, जुगुनू के संग घात।
लाद रोशनी पीठ पर, घूमे सारी रात॥
पसरी है संसार पर, जब-जब काली रात।
एक दीप ने ही उसे, बतला दी औकात॥
सोता है संसार जब, बेफिक्री की नींद।
रात पालती कोख में, सूरज की उम्मीद॥
नहीं चलेगा यहाँ पर, अँधियारे का दाँव।
पोर-पोर में रोशनी, यह सूरज का गाँव॥
उँजियारे का है बहुत, मिला-जुला इतिहास।
कुछ आँखों के पास है, कुछ सूरज के पास॥
मावस के हाथों हुई, जब भी रात गुलाम।
दीपक ने तब-तब लड़ा, एक बड़ा संग्राम॥
दीप बाँटता रोशनी, गुरु बाँटे सद्ज्ञान।
जब मावस की रात हो, दोनों एक समान॥
सिंहासन के पास है, सिंहासन का घात।
दीप तले हरदम रहे, एक छोटी-सी रात॥
फाइल-दर-दर फाइल बुझा, लोकतंत्र का दीप।
करे रोशनी आजकल, मंत्री जी की टीप॥
दीवाली ने बाँट दी, थोड़ी-थोड़ी आग।
मावस को गाना पड़ा, खुलकर दीपक राग॥
भूख अमावस की निशा, रोटी रोशन दीप।
आदम की दुनिया करे, दोनों एक समीप॥
अँधकार के राज में, दीपक की हुंकार।
तुझसे लड़ने के लिए, आऊँगा हर बार॥
दिल्ली जैसी हो गई, मावस की हर चाल।
दीपक से सौदा करे, कर दे मालामाल॥
जितना लंबा है यहाँ, मावस का इतिहास।
उतना ही प्राचीन है, दीपक का उल्लास॥
संध्या से ही बंद है, सूरज से संवाद।
अँधियारे का भोर से, दीप करे अनुवाद॥
रातें कलयुग की कथा, दीप कृष्ण का रास।
प्रेम गली में बाँटता, वह दिन-रात उजास॥
आज देखते बन रहा, दीपक का उन्माद।
ज्यों मावस की रात में, हो पूनम का चाँद॥
देहरी से आँगन तलक, दीपक का संसार।
छिपकर चाँद निहारता, धरती का श्रृंगार॥
काली होती जा रही, महँगाई की रात।
भूखे को कैसे मिले, रोटी का परभात॥
-ओम द्विवेदी
नईदुनिया दीपावली विशेषांक-२०१० में प्रकाशित
चित्र - गूगल से साभार
शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010
मत कर रे तकरार पड़ोसी
हम दोनों हैं यार पड़ोसी ।
चाँद यहाँ भी वैसा ही है,
जैसा तेरे द्वार पड़ोसी।
एक- दूसरे के

रोये कितनी बार पड़ोसी।
अपनी-अपनी रूहों का हम,
करते हैं व्यापार पड़ोसी।
रोटी-बेटी के नातों पर,
मत रख रे अंगार पड़ोसी।
बम का मजहब बरबादी है,
दिल की बोली प्यार पड़ोसी।
हम लड़ते हैं चौराहे पर,
हँसता है संसार पड़ोसी।
आ मिल बैठें पंचायत में,
बन जायें परिवार पड़ोसी।
- ओम द्विवेदी