हम दोनों हैं यार पड़ोसी ।
चाँद यहाँ भी वैसा ही है,
जैसा तेरे द्वार पड़ोसी।
एक- दूसरे के दुक्खों में,
रोये कितनी बार पड़ोसी।
अपनी-अपनी रूहों का हम,
करते हैं व्यापार पड़ोसी।
रोटी-बेटी के नातों पर,
मत रख रे अंगार पड़ोसी।
बम का मजहब बरबादी है,
दिल की बोली प्यार पड़ोसी।
हम लड़ते हैं चौराहे पर,
हँसता है संसार पड़ोसी।
आ मिल बैठें पंचायत में,
बन जायें परिवार पड़ोसी।
- ओम द्विवेदी
2 टिप्पणियां:
गज़ल पहले भी अच्छी लगती थी, अब नए सन्दर्भों में और अच्छी लगी..
likhi huee ebart kabhi purani nahi hoti. yeto padane wale ke mood par nirbhar hai ki vo ese kaise grahan kar raha hai.
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