शनिवार, 28 मई 2011

मज़दूर अर्थात मज़े से दूर

जो मज़े से दूर है, वही मज़दूर है। जब तक मज़े से दूर रहेगा, तब तक ज़माना उसे मज़दूर कहेगा। मई दिवस के दिन मज़दूर कहलाना भी बहुत रोमांटिक लगता है। लगता है मज़दूर वह क्रांतिकारी है, जिसने ज़ुल्म सह-सहकर अपनी मज़दूरियत क़ायम रखी है। अगर यह मज़दूर न होता तो मार्क्सवाद और समाजवाद जैसे 'वादों' को दाना-पानी कौन देता। मज़दूरों ने अगर अपने पसीने से दुनिया बनाई है तो तरह-तरह के 'वादों' को सजाया-सँवारा भी है। यह मज़दूर न होता तो बड़े-बड़े लाटसाहब भी मालिक कहलाने के लिए तरस जाते। कोई उन्हें मालिक कहने वाला भी नहीं मिलता।


-कार्ल मार्क्स ने कहा था दुनिया के मज़दूरों एक हो जाओ, लेकिन मज़दूर एक होकर करेंगे क्या? एक होकर भी करना तो मज़दूरी ही है। एक होकर मज़दूरी करेंगे तो मालिकों का ज़्यादा भला होगा, ज़्यादा उत्पादन होगा, थोड़ी तनख़्वाह बढ़ेगी फिर ज़्यादा महँगाई बढ़ेगी। मज़दूरी जितनी बढ़ेगी, महँगाई उसका दस गुना होकर खा जाएगी। जब तक ऐसा होता रहेगा मज़दूर मज़दूर बना रहेगा। अतः मज़दूर को मज़दूर बनाए रखने के लिए ख़ूब महँगाई बढ़ाओ, पहले उसे तोड़-तोड़कर रीढ़विहीन कर दो, फिर एक करो। जिस तरह काम करने के लिए मज़दूरों की ज़रूरत है, मेरे भाई दुनियाभर के मज़दूरों को एक करने के लिए भी मज़दूरों की ही ज़रूरत पड़ेगी। मज़दूर न रहेगा तो एक किसको किया जाएगा।


-मैं अपने आसपास के अनुभव से मज़दूरों के एक होने के फ़ायदे गिना सकता हूँ। हमारे दफ़्तर में जितने कामचोर मज़दूर हैं, सब एक रहते हैं। दिनभर एक होने में लगे रहते हैं। उनका अखंड मत है कि काम करने पर शोषण हो सकता है। काम ही नहीं करेंगे तो शोषण कैसे होगा। काम करने की बजाय एक रहो। कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकेगा। मालिक नौकरी से निकालने की हिम्मत नहीं करेगा। काम करने वाला अफ़सर चमकेगा। काम करने वाले सहकर्मियों को वे मालिक का ग़ुलाम कहते हैं। दफ़्तर से बाहर जाते ही वे उसे दयनीय और बुर्जुआ का प्यादा कहते हैं। सालभर एक रहने के लिए और अपनी माँगों को मनवाने के लिए वे एक नेता चुनते हैं। उस समय ज़रूर आपस में लड़ते हैं।-बेचारे वे मज़दूर एक होने में डरते हैं जो निराला की कविता में पत्थर तोड़ते हैं, जो खेतों में बारह महीना पसीना बहाकर अपना ख़ून पतला करते हैं, जो पहाड़ तोड़कर रास्ता बनाते हैं, जो मल्टियों में काम करते हुए ऊपरी मंजिल से गिरकर मर जाते हैं, जो तालाब खोदते हैं लेकिन प्यासे मरते हैं, वग़ैरह...वग़ैरह...। एक वे मज़दूर होते हैं जो गाँव छोड़कर शहर आ जाते हैं, साइकल से बाइक, बाइक से कार और कार से हवाई जहाज़ का सफ़र करते हैं। जिनके ठाट-बाट देखकर मज़दूर आतंकित हो जाता है, जिनके जैसा मज़दूर बनने के लिए वह रात-दिन सपने देखता है और सपने देखते-देखते मर जाता है। यही सब मज़दूर एक होते हैं और दूसरे मज़दूरों को एक होकर वोट देने के लिए कहते हैं।


-पहले तो सारे मज़दूर केवल मज़दूर होते थे और उनकी विडम्बना भी एक जैसी थी, लेकिन अब वे केवल विडम्बनाओं में ही एक रह गए हैं। अब अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के अपने मज़दूर हो गए हैं। वे उनकी सभाओं में जाते हैं, उनके ज़िंदाबाद के नारे लगाते हैं, क्षेत्र में आने पर उनके लिए जाजम बिछाकर स्वागत करते हैं। आकाओं के आदेश पर दूसरे दलों के मज़दूरों अपने दल में लाने की हर संभव कोशिश करते हैं। वोट देते समय एक जुट होकर मोहर लगाते हैं, बटन दबाते हैं और अपने दल की सरकार बनाते


-कोई माने या न माने मज़दूरों के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। उसके कपड़े साफ-सुथरे हो गए हैं। वह ठंडा पीने लगा है। होली-दिवाली पर छुट्टी मनाकर ऐश करता है। मालिक बने न बने मालिक बनने के सपने देखने लगा है। मालिकों ख़बरदार मजदूर आ रहा है।



-ओम द्विवेदी

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