शनिवार, 15 जून 2013

दोहे : घर तक आती नौकरी, दफ्तर तक घर रोज़

ऊँची कुर्सी पर यहाँ, दिखते छोटे लोग।
ऊँचे-ऊँचे काम का, करते रहते ढोंग।।

छोटी-छोटी कुर्सियां, देती हैं बलिदान।
तब ऊँची को जगत में, मिलता है सम्मान।।

एक साल के बाद फिर, मालिक हुआ प्रसन्न।
बड़े शान से बांटता, चुटकी भरकर अन्न।।

मालिक चक्की की तरह, दाना है मज़दूर।
स्वाद बढ़ाने के लिए, पीसे है भरपूर।।

हाथी घूमे शहर में, वन में मोटर-कार।
दिखता दोनों ओर है, जमकर हाहाकार।।

पति अपने इस राष्ट्र के, आये थे इंदौर।
दंपति सारे शहर के, ढूढ रहे थे ठौर।।

लपक-गरजकर आ गई, मेघों की बारात।
घर के बाहर देखिए, हैं कैसे हालात।।

तेज़ तपिश के बाद अब, बूंदों का त्यौहार।
पेड़ मांगने लग गए, बादल से अधिकार।।

घर तक आती नौकरी. दफ्तर तक घर रोज़। 
एक - दूसरे में करें, दोनों अपनी खोज।।

पानी बरसे रातभर, दिन में बरसे आग।
धरती छेड़े किस तरह, अपना जीवन राग।।

शब्द-शब्द तलवार है, शब्द-शब्द बाज़ार।
कैसे- कैसे रूप में, सजता है अखबार।।

क्रिकेट जिसे हम मानते, नए समय का धर्म।
साथ उसी के हो रहा, सामूहिक दुष्कर्म।।

नदी हमारे गाँव की, जब तक पानीदार।
जीवन के जनतंत्र में, साँसों की सरकार।।

धुआं अगर देने लगा, इस जीवन को स्वाद।
फिर काया का राख में, होना है अनुवाद।।

कुदरत की चौपाल पर, जीवन का सत्संग।
जन्मे जिस भी कोख से, बचपन मस्त मलंग।।

यहाँ ज़िंदगी हर क़दम, खोले नए किवाड़।
देख जड़ों की जिजीविषा, टूटे कई पहाड़।

सूरज देखो कर रहा, कैसा नंगा नाच।
घर के भीतर आ रही, भट्टी जैसी आंच।।

सबका अपना रास्ता, सबकी अपनी रेल।
प्लेटफार्म पर ही करो, थोड़ा-थोड़ा मेल।।


-ओम द्विवेदी 

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