मैं भी उठा सकता
हूँ बम
लेकिन साहस नहीं
है कलेजे में
मैं भी बोल सकता
हूँ इन्कलाब जिंदाबाद
लेकिन कांप जाती
है ज़बान
नौजवानी मेरे पास
भी है
लेकिन उसके सपने
में है केवल नौकरी और छोकरी
आज़ाद नहीं है
मेरा भी देश
लेकिन आजादी की
इच्छा मर गई है मेरे भीतर
मुझे भी वतन के
लिए बुलाता है फांसी का फंदा
लेकिन रह-रहकर
आता है बीवी और बच्चों का ख्याल
मै कैसे कहूँ
भगतसिंह
कि मैं तुम्हारी
तरह जीना चाहता हूँ
रात के ख़िलाफ़
एक दीया बनना
चाहता हूँ
कैसे कहूँ तुमसे
कि नहीं लड़ पा रहा हूँ
भीतर बैठे एक
नपुंसक से
दीमकों से नहीं
बचा पा रहा हूँ अपनी आत्मा को
मुझे माफ़ करना
भगतसिंह
मैं नहीं रख पाया
तुम्हारे बलिदान की लाज.
-ओम द्विवेदी
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