शनिवार, 24 दिसंबर 2011

अन्ना का गन्ना

एक हैं अन्ना। हैं तो हजारों, लेकिन नाम एक का ही चल रहा है। उन्होंने दिल्ली की ऊसर जमीन पर गन्ने की खेती की। लोकपाल नामक जिस गन्ने की प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर थी उसका एक-एक कल्ला ऐसा फैला कि सारे देश में गन्ने ही गन्ने। चर्चा भी गन्ने की, पर्चा भी गन्ने का और खर्चा भी गन्ने का। जितने मुंह गन्ने के बारे में उतनी बातें और उसका उतना ही इस्तेमाल। इस्तेमाल भी ऐसा-ऐसा कि गन्ना स्वयं अचरज में। सड़क से संसद तक गन्ने की मार, गन्ने की बहार। किसी को कुछ नहीं सूझ रहा है कि उसे लगाएं, सींचें, काटें या समूल नष्ट करें। लोकपाल गन्ने की लोकप्रियता देखकर सरकार खुद उसकी खेती में लग गई है और उसे सरकारी खजाने से खाद-पानी देना चाहती है। रस निकालकर गुड़ और शकर बनाना चाहती है। वह चाहती है कि ऊपर से नीचे तक सब मीठा-मीठा हो जाए। जरा सी भी कड़वाहट रहे।

अन्ना दरअसल गन्ने को गांधी की लाठी बनाना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि हर हाथ में एक गन्ना हो जो अंगरेजों की तोप और तलवार से लड़े। वह बुढ़ापे की लाठी बने और सत्याग्रह करते-करते जब कमर झुक जाए तब टेकने के काम आए। उससे सरकारों को डराया-धमकाया जाए, जिससे अमानत में खयानत हो। वे हर हाथ में गन्ना थमाकर सभी को ऐसा चौकीदार बनाना चाहते हैं जो अपनी रक्षा स्वयं कर सके। इसीलिए उनने गन्ने की खेती की, लेकिन हुआ ये कि लोग उनके खेत से एक-एक गन्ना उखाड़ ले गए और एक-दूसरे के सिर पर धुने पड़े हैं। संसद के भीतर गठ्ठे के गठ्ठे पहुंच गए। अब हर सांसद के हाथ में एक गन्ना है और वहां जूतमपैजार की तर्ज पर गन्नमपैजार चल रही है। कांग्रेस कह रही है कि मेरे हाथ में जो गन्ना है, वह ज्यादा रसदार और दमदार है, तो भाजपा कहती है तुम्हारे हाथ में गन्ना नहीं, बांस है। असली गन्ना मेरे हाथ में है जो अन्ना के खेत से आया है। जो लोग चारा-भूसा खाकर संसद में रंभा रहे हैं, वे तो इस बात से डरे हैं कि अगर अन्ना का गन्ना गांव तक पहुंच गया तो उन्हें थानेदार क्या, चरवाहा भी दौड़ा-दौड़ाकर मारेगा। लोकतंत्र की बागड़ चर-चर के जो लोग दिल्ली में गोबर कर रहे हैं, वे चिंतित हैं कि अगर बागड़ मजबूत हो गई तो वे चरेंगे क्या?

टीवी वालों का तो मौजा ही मौजा है। जबसे गन्ने की खेती ने दम पकड़ा है, तब से वे चूसे पड़े हैं। सुबह-शाम एक ही काम अन्ना के खेत में चले जाएंगे। खेत का विहंगम दृश्य दिखाएंगे। सरकार की तरफ से गन्ने के खेत में जो दीमक भेजे जा रहे हैं, उनकी जासूसी करेंगे। बड़े और छोटे दीमकों के दांत दिखाएंगे और मेड़ पर बैठकर आराम से गन्ना चूसेंगे। उनके साथ बड़े-बड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं, सेवानिवृत्त पत्रकारों और साहित्यकारों का भी आनंद है। चिंतक, विचारक, नेता, अभिनेता, उद्योगपति सब टीवी में बैठकर गन्ना चूस रहे हैं। बंगले में जाकर जिन नेताओं के वे पांव छूते हैं, उनके साथ टीवी में बराबरी से बैठते हैं और अन्ना का गन्ना बरबाद करने पर उन्हें कोसते हैं। लोकपाल के गन्ने से इतना रस निकल रहा है कि सब छक कर पी रहे हैं। जो लोग खाली हैं वे गन्ना लेकर सड़कों पर निकल पड़े हैं। खाली रहते हैं तो चूसते हैं और छिलका सड़क पर फैलाते हैं। किसी को डराना होता है तो एके-४७ की तरह उसके सीने पर तान देते हैं। बेचारे की डर के मारे घिग्घी बंध जाती है। वह समझता है कि कोई नक्सली गया।

दूसरे गन्नों के रस में इतने कीड़े पड़ गए हैं कि पूरी व्यवस्था बजबजा रही है। इसलिए अन्ना चाहते हैं कि अब लोकपाल के गन्ने की खेती हो। उस गन्ने की, जिसकी नस्ल उन्होंने और उनके साथियों ने तैयार की है। अगर सरकार ने अपना बांस वाला गन्ना बोया तो वे गन्ने और सरकार दोनों का उखाड़ देंगे। जो लोग अभी जनता को गन्ना बनाकर चूस रहे हैं, जनता उन्हीं को गन्ना बनाकर चूस जाएगी। अन्ना अपने लोकपाल का गन्ना लेकर तिहाड़ जेल हो आए हैं। सरकार अगर इनके खेत में चूहे छोड़ती रही तो एक दिन सारा देश गन्ना लेकर संसद में घुस जाएगा और चूहों को वहां से भागना पड़ेगा। बहरहाल! गन्ना में स्वाद बहुत है, चूसने से चूकें नहीं।

छंद चिकोटी

अन्ना का गन्ना यहां, है रस से भरपूर।

चूस-चूसकर हो रहे, सभी नशे में चूर॥

लोकपाल की बात पर, छिड़ जाता है युद्घ।

फिर कैसे यह सिद्घ हो, सबका दामन शुद्घ॥

बनकर शिष्टाचार है, घर-घर भ्रष्टाचार।

लोकतंत्र का मानते, नेता सब आभार।

-ओम द्विवेदी

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