बुधवार, 7 दिसंबर 2011

संसदीय आचरण


जब-जब बड़ी राजधानी में संसद चलती है और छोटी में विधानसभा, तब-तब संसदीय आचरण की अमारक याद आती है। बचपन में ही बड़े-बूढ़ों ने बताया था कि अपने आचरण को हमेशा संसदीय रखो। सदैव अच्छी भाषा का इस्तेमाल करो, अच्छे विचारों और अच्छे मनुष्यों का सम्मान करो, जाति-धर्म से ऊपर उठकर आदमी को केवल आदमी मानो। ये नीति वाक्य दिल और दिमाग से ऐसे चिपके कि बंदा इसी आचरण को संसदीय समझ बैठा। अब लगता है कि आचरण की यह बहुत ही अनुभवहीन और अपरिपक्व परिभाषा है। यह उस समय की बनाई हुई है जिस समय टीवी पर संसद की कार्रवाई का सीधा प्रसारण नहीं होता था और जैसा संसद चाहती थी, वैसी परिभाषा लोग याद कर लिया करते थे। अपने बच्चों को संसद और संसदीय आचरण की अनुभवजन्य नई परिभाषा मिल सके इसके पिछले एक दशक तक लगातार शोध किया गया है। संसद और विधानसभाओं के विभिन्न सत्रों पर गिद्घ दृष्टि रखी गई है, इसके बाद कुछ सूत्र सूझे हैं, जो प्रस्तुत हैं-

गरीब जनता की बात करने के लिए ऐसी जगह, जहां खाने-पीने का हर इंतजाम पांच सितारा होटल से भी ऊंचा हो, हर घंटे करोड़ों रुपए खर्च हों और जहां पर माइक वगैरह का खासा इंतजाम हो। जहां खा-पीकर बैठते ही बिलकुल टंच नीद जाए। जहां सुरक्षा के इतने बढ़िया इंतजाम हों कि आतंकी केवल गेट तक ही पहुंच सकें, जहां नोट के अलावा और कुछ अंदर ले जाया जा सकता हो, जहां जोर से बोलने पर ही कोई आवाज सुनाई दे, जहां अलग-अलग निशान वाले लोगों के बैठने के लिए अलग-अलग जगह हो और जहां अध्यक्ष का काम दिन में तीन बार सदन की कार्रवाई स्थगित करना हो, उस पवित्र स्थल को संसद कहते हैं। तय है कि वहां होने वाला महान आचरण संसदीय आचरण कहलाएगा।

आचरण भी नाना प्रकार के। सत्र शुरू होने के पहले ही ऐसे दो-चार निर्णय कर लो कि जो सराकार में नहीं हैं उनका खून खौल जाए और वे बिस्मिल्ला करने के पहले ही आमीन करने पर उतारू हो जाएं। हाय-हाय... निर्णय वापस लो... नया बिल बनाओ जैसे नारे टाइप वाक्य सब मिलकर इतना तेज बोलो कि किसी को कुछ सुनाई पड़े। हाथ ऊपर उठे दिखें और गले से केवल चीख निकले। एक-दूसरे की मां-बहनों का सम्मान हो जाए तो उसे कार्रवाई से विलोपित करवाया जाए। सरकार की तरफ से जनता, गरीबी, भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे शब्दों का मंत्रोच्चार हो तो लगे कि सबका कल्याण हो रहा है। ऐसी कोशिश हो रही है कि राजधानी से लेकर गांव तक गरीबी भले बच जाए, गरीब नहीं बचेंगे। उन्हीं शब्दों का उच्चारण जब विपक्ष की ओर से हो तो लगे कि देश में क्रांति की जरूरत है। सरकार को उल्टा खड़ा कर देना चाहिए, मुर्गा बना देना चाहिए। जब तक गुस्सा सहन हो तब सहन करते रहें। गालियां सुनते रहें और गालियां देते रहें। जब सहन हो तो माइक को हथियार बनाएं और एक-दूसरे पर दे दनादन। जोर-जोर से कुर्सियां पीटें, जरूरत पड़े तो उसे उठाकर पटक दें। उसके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाएं, जिसका जनता में कोई विश्वास हो। मतदान के समय उन्हें ही खरीद लिया जाए जो सरकार उखाड़ने में लगे हुए थे। आपस में लड़ें-मरें, लेकिन जब जनता की जुबान फिसल जाए तो उसकी खाल खिंचवाने पर साझा सहमति बन जाए। ऐसा करते हुए वर्तमान सत्र संपन्न हो और नए सत्र की तैयारी शुरू हो।

इन्हीं आचरणों से शिक्षा लेते हुए जो नया आचरण बनेगा वह आने वाली पीढ़ी के लिए संसदीय आचरण होगा।

छंद चिकोटी...

अंधी संसद बांटती, नए तरह का न्याय।

नेता की दौलत बढ़े, मतदाता की हाय॥

जनता परम प्रसन्न हो, कहे जिसे जनतंत्र।

दिल्ली से भोपाल तक, कुरसी का षडयंत्र॥

भाषण देकर हो रहा, राजा खूब प्रसिद्घ।

भूख बनाती जा रही, हंसों को भी गिद्घ॥

-ओम द्विवेदी

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