सोमवार, 28 नवंबर 2011

समय के नए अंधेरे

राम के समय खलनायक के रूप में रावण सामने खड़ा था। कृष्ण के समक्ष कंस सर्वशक्तिशाली खलनायक था जिसका वध करके प्रजा सुखी हो सकती थी। पांडवों के समक्ष कौरवों को पाप स्पष्ट था। स्वतंत्रता संग्राम के समय भी हमारा दुश्मन अंग्रेजों के रूप में पहचाना जा सकता था और उससे लड़ने के लिए समय के तमाम योद्घा लगे हुए थे। लगभग हर काल में समय के खलनायकों को, अंधेरों को पहचाना गया है, तब उनसे लड़ाई शुरू हुई और कालांतर में विजय भी प्राप्त हुई। हम जिस समय में जी रहे हैं, वहां तो अंधेरे की छवि स्पष्ट है और ही दीये का सतीत्व बरकरार है। चाहे नायक हो या खलनायक हर आदमी में दस-बीस आदमी दिखाई देता है। नायक खलनायक का भ्रम देता है और खलनायक नायक का। जब अंधेरे से उजाले का भ्रम हो, ऐसे में अंधेरे से लड़ाई भी कठिन है और दीया जलाना भी। बाजार इसी तरह का एक चमकदार अंधेरा है, जिससे लड़ने में दीये की हिम्मत कांप जाती है।

महाभारत की कथा में चक्रव्यूह का प्रसंग हमेशा नए अर्थ खोलता है। एक ऐसी व्यूह रचना जिसमें प्रवेश करने के बाद किसी का बाहर निकलना मुमकिन नहीं होता। कौरवों के एक से एक शक्तिशाली योद्घा हर द्वार पर संहार करने के लिए खड़े होते हैं। बिरला ही कोई अर्जुन होता है जो इस दुष्चक्र को भेदने के गुर जानता है। इस प्राचीन कथा के प्रसंग को अगर हम आज बाजार के रूप में देखें तो इसमें हम सभी अभिमन्यु की तरह मारे जा रहे हैं। बाजार अपनी लुभावनी दुनिया में दाखिल के होने के रास्ते तो बताता है लेकिन उससे निकलने के रास्ते नहीं देता। आश्चर्य यह है कि बाजार के पहलू में आने के बाद हमें यह भी पता नहीं होता कि हम किसी चक्रव्यूह में प्रवेश कर चुके हैं और यहां से निकलना भी है। हम कौरवों से लड़ने की बजाय उनके अभियान में शामिल हो जाते हैं। उनकी हर अदा लुभावनी लगती है और हमारी अपनी जड़ें अपने ही हाथों काटने के लिए प्रेरित करती है। बाजार परंपराओं, संस्कारों और नैतिकता को इतना प्राचीन और रूढ़ घोषित करता है कि वे आधुनिकता के विरोधी दिखाई देते हैं।

दरअसल बाजार को यह पता है कि उसके सारे दरवाजे अनैतिक और संस्कारहीन होकर ही खुलेंगे, इसलिए वह पहला वार हमारे सनातन मूल्यों पर करता है। वह सबसे पहले हमारे परिवेश, वेशभूषा और भाषा को तुच्छ साबित करता है फिर उन्हें बदलने के लिए उपाय सुझाता है। बाजार की चमक देखकर हम अपने आपको छोटा महसूस करते हैं और बड़ा बनने की कोशिश करते हैं। वह हमारी भूख इस कदर बढ़ाता चला जाता है कि हम खाते चले जाते हैं। खाने को चाहे जो और जैसे मिले उसकी परवाह नहीं होती। वह झूठ को इतनी बार दोहराता है कि झूठ सच लगने लगता है। हम क्या खाएंगे, कहां का पानी पिएंगे, कैसे कपड़े पहनेंगे, कैसी भाषा बोलेंगे, किस तरह के दोस्त बनाएंगे, किस गाड़ी पर चलेंगे, यह सबकुछ लगभग-लगभग बाजार तय कर रहा है। इसने हमारे विचारों को इस कदर परिवर्तित कर दिया है कि आज जब हम धोती-कुर्ता पहनते हैं तो अपने आपको सत्रहवीं सदी का महसूस करते हैं और टाई लगाकर इक्कीसवी सदी का। संस्कृत को तो छोड़िये हिंदी बोलकर भी हम खुद को सरकारी स्कूल का पढ़ा कोई ग्रामीण महसूस करते हैं, जबकि टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलकर महानगरीय। रोटी-दाल खाकर लगता है कि हम कोई मेहनतकश मजदूर हैं और शराब-शबाब के साथ अपने को लाटसाहब मानते हैं। अपनी जड़ों के प्रति घृणाभाव पैदा करवाकर बाजार अपने पहले षडयंत्र में सफल हो गया है। पहले हमारे देश के महानगर पश्चिमी देशों के क्लोन बने फिर छोटे शहर उनकी नकल करने लगे और अब गांव भी उसी राह पर हैं। मतलब साफ है कि पहली दुनिया के देश जिस बाजार का मार्ग प्रशस्त करने के लिए हमें तथाकथित विश्वग्राम में शामिल करना चाहते थे, वे अपने इरादे में कामयाब होते जा रहे हैं।

जिस कर्ज को हमारे पुरखे महापातक मानते थे, बाजार ने उसे पुण्य बना दिया है। आज जिसके पास कर्ज नहीं है वह समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है। उसने को Iलोन I कहकर इतना सम्मानित कर दिया है कि उसे ग्रहण कर हर कोई सम्मानित होना चाहता है। राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय बैंकें यह सम्मान प्रदान करने के लिए हर पल हमारी देहरी को प्रणाम कर रही हैं। घर, कार, टीवी, रेफ्रीजरेटर से लेकर मोबाइल आदि छोटी-छोटी चीजों के लिए वे लोन देने में विलंब नहीं करतीं। हमारा रोम-रोम कर्ज से लदता जा रहा है। पूर्वजों के लिए जिस तरह स्वर्ण और भूमि अचल संपत्ति थे, हमारे लिए डेविट और के्रडिट कार्ड स्थाई संपत्ति बन गए हैं। हर विपत्ति का सहारा हमें कर्ज में दिखाई देता है।

इस बाजार में खरीदार और विक्रेता के अलावा कोई रिश्ते नहीं होते। कौन कितना बेच और बिक सकता है तथा कौन कितना खरीद सकता है, यही इसका असली पैमाना है। यहां आकर मां-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, पिता-पुत्र जैसे सारे रिश्ते खुदकुशी कर लेते हैं। बचते भी हैं तो इतने स्थूल रूप में कि उनकी कीमत लगाई जा सकती है। इन रिश्तों की अहमियत इस बात से तय होती है कि कौन कितना पैसा इकठ्ठा कर रहा है और बाजार के ज्यादा से ज्यादा उत्पाद खरीद रहा है। जो इस शर्त पर खरा नहीं उतरता उसे उपेक्षित किया जा सकता है, छोड़ा जा सकता है और जरूरत पड़ने पर उसकी हत्या भी की जा सकती है। इस बाजार में पहुंचकर इच्छाएं इस तरह श्मशान साधना करने लगती हैं, जिसमें रिश्तों की बलि बहुत जरूरी हो जाती है। केवल इच्छाओं के प्रेत बचते हैं जो चौबीस घंटे आसपास मडराते हैं। यही कारण है कि कमाई की शुरुआत होते ही बेटा सबसे पहले अपने मां-बाप और भाइयों को अलग करता है और घर में उनसे खाली हुई जगह को उत्पादों से भरता है। जब तक पत्नी और बच्चे उसके ऐय्याशी के साधन बने रहते हैं तब तो वह उन्हें भी बर्दाश्त करता है, इसके बाद उनसे भी अलग हो जाता है।

बाजार की आसुरी भुजाएं इतनी बड़ी और इतनी मजबूत हैं कि पलभर में वे किसी को भी अपने पाश में जकड़ लेती हैं। केवल जकड़ती हैं बल्कि उसका व्यक्तित्व भी अपने अनुरूप बनाती हैं। बाजार का प्रचार तंत्र इतना सक्षम है कि वह चाहे तो बड़े से बड़े नायक को भी खलनायक बना देती है और खलनायक को नायक। आसमान छूती महंगाई और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे रहने के बाद भी अगर किसी सरकार को आम आदमी की सरकार कहलाने की ख्याति अर्जित हो, अगर किसी विपक्ष को जनसमस्याओं के प्रति मौन रहने और किसी समाजसेवी के मुद्दे को हाईजैक कर लेने के बाद क्रांतिकारी कहा जाता है तो यह बाजार के प्रचार तंत्र का ही कमाल है। जो बिकता है और बेचता है। इसी तंत्र ने देखते-देखते बाबा रामदेव की रोशनी को अंधेरे में रूपांतरित कर दिया और अण्णा टीम पर भी कोहरा फेंक दिया। हो हो आने वाले समय में अण्णा टीम भी नायक से खलनायक दिखाई दे। हमारे समय के खलनायकों की छवियां जितनी अस्पष्ट हैं उतनी ही शक्तिशाली हैं। अंधेरा इतना मोहक है कि उसे पराजित करने के लिए दीये को नए तरह का आत्मबल चाहिए। अमावस सूर्पणखा की तरह मोहिनी बनकर राम को लुभाने निकली है, लक्ष्मण की तरह तीक्ष्ण होकर ही उसके नाक-कान काटे जा सकते हैं। यह अंधेरा स्वर्ण मृग बनकर राम की कुटिया के समक्ष दौड़ रहा है, सीता को खबरदार होना पड़ेगा। यह दीये की अग्निपरीक्षा का समय है।

-ओम द्विवेदी

(नईदुनिया के दीपावली विशेषांक में प्रकाशित)

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