रविवार, 13 नवंबर 2011

जुबानी जंग, कान देख-देखकर तंग


बत्तीस दांतों के बीच अगर यह चंचला जुबान होती तो दुनिया-जहान में कितना सन्नाटा होता। स्वाद का पता चलता, शब्द का। जो लोग केवल जुबान लड़ाकर ही पहलवानी करते हैं, वे तो अधमरे से दंगल में ताल ठोंकते रहते, अखाड़े की धूल मलते और मुंह उतारे घर चले जाते। अब जुबान है तो स्वाद के चक्कर में खाते-खाते पेट भी फूटा जा रहा है और बोलते-बोलते गाल भी लाल होता जा रहा है। जिनकी जुबान जितनी तेज दौड़ती है, उनकी तरक्की भी उसी रफ्तार से होती है। चाहे राजनीति में रहें या उसके बाहर। नेता से लेकर संत तक का भरण-पोषण यह बेचारी करती है। अफसर से लेकर चाकर तक अगर जिह्वा की साधना में सफल हुआ तो पौ-बारह समझिए। तरक्की तो जैसे दासी बनकर उसके घर में झाड़ू-पोछा करती है।

इस नामुराद जिह्वा में हड्डी है- पसली, फिर भी जंग ऐसे-ऐसे करवाती है कि बड़े-बड़ों की हड्डी-पसली टूट जाए। यह मंथरा बने तो राम को बनवास, द्रोपदी बने तो कौरव-पांडवों की भिड़ंत। अमेरिका की राजा बने तो दुनिया में एटम बम गिराती घूमे और पाकिस्तान की हुक्मरान बने तो मानव बम बनाने का कारखाना खोले। भारत की सरकार बने तो हर पल झूठ का स्खलन हो। खाना देखकर हर पल लपलपाती रहे और ऊंचाई हासिल करने के लिए तलवे चाटती रहे। आदमी कैसा भी हो, उसके पास एक रीढ़ होती है। वह कितना भी झुकना चाहे एक सीमा के बाद झुकने लायक नहीं रहता। लेकिन यह जीभ बिना रीढ़ की, जितना झुकाइए उतना झुकती है-मुड़ती है। टूटने-फूटने का डर- शर्म। पल-पल में पलटने का सामर्थ्य है इसके पास। जैसे ही देखती है कि उसके बोलने से लोगों के हाथ गाल तक पहुंचने लगे हैं झट से पलट जाती है...मैने ऐसा तो नहीं कहा था...मेरे बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया। इसे मजे लेना खूब आता है। बोली से गोली चलवा देती है। खुद दांतों के खोह में छिपी रहती है और छलनी बेचारा सीना होता है।

कानों को इन दिनों एक से बढ़कर एक जुबानी जंग देखने को मिल रही है। बिलकुल ऐतिहासिक टाइप। एक संता है, जिसकी जीभ शिष्टाचार का तेल पी-पीकर ताकतवर हुई है, तो एक बंता है जिसकी जीभ भ्रष्टाचार की मलाई छानकर पहलवान बनी है। एक खुद को फकीर कहता है तो दूसरा पैदाइशी राजा है। संता की जुबान भूखे रहने के लिए दिल्ली जाती है तो बंता की देश खाने के लिए दिल्ली की ओर दौड़ लगाती है। संता की भी अपनी सेना है और बंता की भी अपनी सेना है। संता की सेना में भी बंता जैसे कुछ लोग हैं तो बंता के दल में भी कुछ दबे-कुचले संता हैं। संता की जुबान मौन रहकर बोलती है तो बंता बोले तो उसका हाजमा खराब हो जाए। आंतें कुछ भी पचाने से इंकार कर दें। संता कहता है सरकार चोर है तो बंता दहाड़ता है कि संता चोरों से घिरा है और बुढ़ा गया है। संता बंता की जगह पागल खाने में बताता है। संता कहता है जनलोकपाल लाओ, वरना मैं भूखे मर जाऊंगा तो बंता का कथन है-जनलोकपाल भस्मासुर बन जाएगा। इससे भ्रष्टार खत्म नहीं होगा। मैं अच्छा वाला लोकपाल लाऊंगा। ब्रांडेड। उसकी पैकिंग इतनी शानदार रहेगी कि दूसरे देश भी इसे देख-देखकर ललचाएंगे। संता के साथ शाकाहारी जीभे हैं तो बंता के साथ मांसाहारी। संता की जीभें देशभर में घूम-घूमकर बंता के पाप बता रही हैं तो बंता संता को लोकतंत्र की जड़ में मठ्ठा डालने वाला पापी बता रहा है। संता की जीभ तत्काल परिणाम चाहती है तो बंता की जीभ से वादों की लार टपकती है। शाकाहारी जिह्वा मांसाहारी जीभ को उखाड़ फेकना चाहती है तो मांसाहारी जीभ शाकाहारी जिह्वा का स्वाद बदलना चाहती है।

जुबानों की यह लड़ाई आजकल संसद से सड़क तक चल रही है। इससे संसद सड़क जैसी लगती है और सड़क संसद जैसी। जिह्वा युद्घ ही आजकल खबरों की सुर्खी है, नीतिशास्त्र है, दर्शनशास्त्र है, यहां तक कि अर्थशास्त्र भी। पहले जो जिह्वा केवल चुनावों के समय अपनी धार तेज करती थी, अब वह हमेशा चमचमाती तैयार रहती है। लगता है हर पल चुनाव का पल है, नहीं है तो आने वाला है। इस जुबानी जंग के बीच हम जैसे लोगों के लिए एक शिक्षा भी है, जो जिह्वाएं आराम करेंगी वे आम आदमी की हो जाएंगी और जो बोलना बंद कर देंगीं वे बोलना भूल जाएंगी। सवाल भी जिह्वाएं ही उठाती हैं। वे जब तक प्रश्न करती रहेंगी जिंदा रहेंगी।

-ओम द्विवेदी

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