शनिवार, 19 नवंबर 2011

बच्चा डॉक्टर से पंगा नहीं लेने का


कहने को ये जूनियर हैं, इसलिए बच्चा डॉक्टर हुए, लेकिन हैं बड़ों के भी बाप। खुश रहते हैं तो पूरा सरकारी अस्ताल इन्हीं की कृपा से चलता है। बड़े-बूढ़े बड़े-बड़े अस्पतालों में जाकर नोट छापते हैं और ये गरीबों के माई-बाप बनते हैं। गरीब के शरीर में जहां भी बीमारी नामक आतंकवादी छिपा होता है, ये उसे चप्पा-चप्पा छानकर खोज निकालते हैं। मरीज की चाहे जो गत हो, ये बीमारी को शरीर में नहीं रहने देते। रोम-रोम की पड़ताल कर डालते हैं। इनके बदन पर सफेद कोट और गले में आला इस कदर निराला लगता है, जैसे कीचड़ में कमल। सरकारी अस्पताल में इनकी मौजूदगी से ही मरीज को यह तसल्ली रहती है कि उसका इलाज चल रहा है और वह वहां से सही-सलामत घर पहुंच जाएगा। ये दुख और पीड़ा की कालकोठरी में प्रेम और सुख के दीप जलाते हैं। मरीज मरने की कगार पर पहुंचकर भले चीखे-चिल्लाए, लेकिन ये जोड़े में आते हैं, अंग्रेजी में गिटपिट करते हैं, डॉक्टरानी बेला की तरह महकती है और डॉक्टर गुलाब की तरह गमकते हैं। इन्हें मौत के बीच जीने का हुनर आता है।

यूं तो एक हिंदुस्तानी होने के नाते देश में होने वाली किसी भी हड़ताल का समर्थन करना अपना धर्म है, लेकिन जब हड़ताल कोई युवा करे और ऊपर से वह डॉक्टर हो तो सोचने-विचारने का मामला ही नहीं। आंख मूंदकर समर्थन। वैद्य और यमराज से तो पंगा लेने का ही नहीं। अपने बच्चा डॉक्टर गांव नहीं जाना चाहते तो जाएं। वैसे भी अब गांव में कोई जिंदा आदमी बचा नहीं। जो कुछ जिंदा थे सब शहर भाग आए हैं। अब वहां बचे-खुचे मजदूर हैं, किसान हैं, बाकी सब वोटर हैं। मजदूरों और वोटरों को बहुत ज्यादा इलाज की जरूरत होती नहीं, इसलिए वहां जाकर आप अपना हुनर बेकार करें। वहां अगर आपको मरीज मिल भी गया तो बिना पैथालॉजी जांच के ही छींक से लेकर कैंसर तक की दवा देनी पड़ेगी। आजादी के बाद से आज तक ऐसा ही होता आया है। पैथालॉजी लैब कहती है पहले आप गांव जाएं, आप कहते हैं पहले लैब जाए। सरकारी अस्पताल से समय निकालकर शहर की तरह अगर आप वहां क्लीनिक भी खोलेंगे तो मरीजों के इंतजार में बूढ़े हो जाएंगे, क्योंकि लोग बीमारी से मरना पसंद करते हैं, लेकिन जमीन बेंचकर बच्चों को भूखा मारना नहीं। वहां धन्नासेठों के बड़े अस्पताल भी नहीं हैं, जहां अतिरिक्त सेवा करके आप धनोपार्जन कर सकें। पचीस-तीस हजार के गुजाराभत्ते भत्ते से भला आपका क्या होगा? आपके पूज्य माता-पिता ने लाखों रुपए लगाकर आपको इस काबिल बनाया है कि आप पढ़ाई की पूरी लागत साल-दो साल में वसूल कर लें। फिर अपने बाल-गोपालों की पढ़ाई के लिए भी करोड़-दो करोड़ जुगाड़ मारें।

सच बताऊं मुझे आपसे डर भी बहुत लगता है। लगता है जिस दिन भी काया की यह गठरी बीमार हुई तो आपकी शरण में आना होगा। आप फोड़े की जगह किडनी का ऑपरेशन करें, बाएं हाथ की जगह दाएं हाथ में प्लास्टर बांध दें, पेटदर्द की जगह बेहोशी की दवा खिला दें, इसलिए भी मुझे आपके समर्थन में खड़ा होना पड़ेगा। मैंने सुन रखा है कि आजकल आप सुबह-शाम जिम भी जाते हैं और अस्पताल में जो आपसे दवा मांगता है उसके ऊपर अपने बाजू की मछलियां उचकाते हैं। मरीजों के परिजनों को तो आप कूट-कूटकर भुरता बना देते हैं। आप लोगों में इतनी एकता है कि कोई आपकी तरफ आंख उठाकर भी देखता है तो आप सब मिलकर उसकी आंख नोच लेते हैं।

आम आदमी की तरह यह सरकार आपको भी हर बार दगा दे देती है इसलिए आपको बार-बार हड़ताल करनी पड़ती है। दरअसल सरकार अपने वोटरों को जिंदा रखने के लिए आपको गांव भेजना चाहती है और आप हैं कि रूठते चले जाते हैं। आप चाहें तो सरकार से इस तरह का समझौता कर सकते हैं कि आप उसके वाले वोटर जिंदा रखेंगे और वो इसके बदले आपका मान-सम्मान रखती रहेगी। आपको तो सरकार ने ही पाला है इसलिए बहुत दिनों तक वह तो आपको जेल में रख सकती और ही अस्पताल से बाहर। जब तक आपका अस्पताल जाने का मन हो, जब तक आपको मरीजों के पसीने की गंध से उल्टी रही हो, जब तक आपको नारेबाजी करने में मजा रहा हो, तब तक आप हड़ताल पर रहें। सरकार आपका पेट भरेगी और ईश्वर मरीजों को जिंदा रखेगा।

-ओम द्विवेदी

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