दरअसल इस देश की जनता यह जान चुकी है कि किसी राजनीतिक दल में अब वह जीवनीशक्ति नहीं बची जो उसके हितों की रक्षा कर सके। हर राजनीतिक दल ने जनता को इस क़दर छला है कि उसका लोकतंत्र से ही भरोसा उठता जा रहा है। चुनाव के

महँगाई और भ्रष्टाचार दो ऐसे मुद्दे हैं जिससे आज हर नागरिक न केवल पीड़ित है, बल्कि धीरे-धीरे उसे वह अपनी आदत बनाता जा रहा है। उसे यह लगता है कि रिश्वत लेना अफ़सर का, नेता का मौलिक अधिकार है और उसे रिश्वत देने के लिए थोड़ा और कमाना चाहिए। सरकार गैस सिलेंडर, पेट्रोल और डीजल से लेकर तमाम ज़रूरी चीज़ों के दाम बढ़ा देती है और जनता यह सोचकर ख़ून के घूँट के पी जाती है कि आख़िर वह क्या करे? किस पत्थर पर अपना सिर फोड़े? अण्णा हजारे और उनकी टीम ने कम से कम यह काम तो किया कि जो भ्रष्टाचार हमारे ख़ून में शामिल होता जा रहा था उसे उन्होंने कैंसर से भी ख़तरनाक बीमारी बताया और लोग इस बीमारी से लड़ने के लिए ख़ुद-ब-ख़ुद उनके साथ चल पड़े। अगर जनता को एक बार अपनी बीमारियों को जानने और पहचानने की आदत पड़ गई तो बीमार लोग लोकतंत्र के मंदिर में दाख़िल नहीं हो पाएँगे।
जिस जनता को सरकार बार-बार यह समझाती रही कि अण्णा लोकतंत्र विरोधी काम कर रहे हैं, उसी जनता ने संसद-विधानसभाओं में पहुँचने वाले उन नेताओं का आचरण भी देखा है, जो बात-बात पर हाथ में माइक उठाकर एक-दूसरे को इस तरह मारने दौड़ते हैं जैसे गली के गुंडे। जिनकी टिप्पणी सदन के स्पीकर को बार-बार कार्रवाई से निकलवाना पड़ती है। जो मंत्री होते हुए भी तिहाड़ जेल पहुँच जाते हैं। जो आतंकवादियों को फाँसी देने के लिए मानवाधिकार की बात करते हैं, लेकिन सत्याग्रहियों पर लाठी बरसाते हैं। जो नक्सलियों और उल्फाइयों से बातचीत करने के लिए बार-बार प्रस्ताव भेजते हैं, लेकिन बातचीत करने वालों को नक्सली क़रार देते हैं। जिन्हें भिखारी से अरबपति बनते देर नहीं लगती और जो भिखारी पर अरबपति होने का इल्ज़ाम लगाते हैं। इन सारी साजिशों को और उनके चरित्र को पहचानने के बाद जनता के पास सड़क पर उतरने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता। अण्णा के बहाने जनता न केवल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है, बल्कि नेताओं के यहाँ बंधक बने लोकतंत्र को भी आज़ाद कराने निकली है। जिन्हें यह भ्रम हो गया है कि वे इस देश के विधाता हैं, उनका भ्रम तोड़ने निकली है।
लोकतंत्र की असली भाग्य विधाता होने के बाद भी जनता जिस तरह से अपने आपको निरीह और अपाहिज समझने लगी थी, उस आत्म सम्मान को बचाने के लिए भी वह आज दिल्ली से लेकर छोटे-छोटे गाँवों तक सत्याग्रह कर रही है। अण्णा में उसे अपनी ही तरह का आम आदमी नज़र आता है। अण्णा, महात्मा गाँधी भले न हों लेकिन जनता को उनमें गाँधी की झलक ज़रूर नज़र आती है। जनता को यह समझ में आता है कि मंदिर के गर्भगृह सोने वाला आदमी सोने के सिक्कों से नहीं बिकेगा। झोला लेकर घूमने वाला फ़क़ीर उसके बच्चों का भविष्य दाँव पर नहीं लगाएगा। जनता के इसी भरोसे के बल पर सरकार घुटनों के बल बैठी है। सच से हार रही है, फिर भी जीतने का दंभ पाले हुए है।
-ओम द्विवेदी
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