सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

नमस्ते-1

मैहर में मां शारदा भवानी जिस पहाड़ी पर विराजी हैं, कहते हैं कि उसके तले में आल्हा और ऊदल आज भी एक-दूसरे के खिलाफ ताल ठोकते हैं। न किसी ने जीतते देखा और न किसी न हारते, लेकिन लोगों की जुबान है कि सदियों से दौड़ रही है। एक बात यह भी खूब कही सुनी जाती है कि शारदा भवानी का पट खुलने के पहले ही मंदिर में कोई दीप जला जाता है और फूल चढ़ा जाता है। यह चमत्कार भी आल्हा-ऊदल ही करते हैं। आल्हा करते हैं कि ऊदल, या फिर दोनों मिलकर, यह कोई बताने को तैयार नहीं। यह किस्सा भी सच है कि झूठ, आल्हा-ऊदल जानें या देवी मां। बहरहाल, उपचुनाव में आल्हा-ऊदल एक-दूसरे को पटखनी देने में लगे हुए हैं। कभी आल्हा ऊदल के ऊपर दिखाई देता है तो कभी ऊदल आल्हा के ऊपर। दोनों कहते हैं कि मंदिर में दीप वही जलाकर आते हैं। मैहर में जो रोशनी दिखाई दे रही है, वह उन्हीं के दीये से है। देखने वाले न सीटी बजाते, न हिप-हिप हुर्रे करते। इसलिए आल्हा और ऊदल दोनों ‘मरे-मरे से’ और ‘अधमरे से’ लड़ रहे हैं। लड़ क्या रहे हैं, बस लड़ने की कला दिखा रहे हैं।  वही जिसे कहने वाले ‘नूरा कुश्ती’ कहते हैं। आल्हा की आल्हा जाने और ऊदल की ऊदल, देवी मां के भगत अपनी धुन में गाए जा रहे हैं-‘जोर से बोलो जय माता दी... सारे बोलो जय माता दी।’ उन्हें आल्हा-ऊदल की गुडुपतान से कोई खास लेना देना नहीं।
उपचुनाव की बंदरिया मैहर में डाली-डाली कूद रही है, लेकिन नचाने की बात तो दूर कोई उसे पकड़ भी नहीं पा रहा है। इस बंदरिया को पकड़ने के लिए जो एक डाल से कूदकर दूसरी डाल पर गए हैं, वे भी रस्सी लिए केवल बंदर ही बने हुए हैं। भाषण देते हैं कि जीतेंगे और इस बंदरिया को पकड़कर नचाएंगे, लेकिन मन ही मन डर सताता रहता है कि ये कटखनी कहीं काट न खाए। जनता कभी बंदरिया को देखती है तो कभी मदारी को। देखने वाले भरपल्ले मजा लूट रहे हैं। बिना पैसे का तमाशा देखने को मिल रहा है। सच्ची कहें तो सारे गरीब-गुरबा, अकारथ-सकारथ, मनई-मजूर, छुटके-बड़के, भैया-भउजी, काका-काकी दिल्ली-भोपाल के बड़े-बड़े आल्हा-ऊदल के ‘पहुना’ बने हुए हैं। जो भी आता है मैहर की माई से ज्यादा इनकी जय-जय बोलता है। वहां से अधिक नारियल इनके दरवाजे पर फोड़ता, चिरौंजी-परसाद इनके दरवाजे पर चढ़ाता है। देहरी पर इतने लोग मत्था टेक चुके हैं कि देहरी फूटी जा रही है। लोगों को समझ में नहीं आ रहा कि किसका प्रसाद रखें, किसका लौटा दें। वैसे लौटाने के मूड में वह भी नहीं है, उसे पता है कि अब जाने कब उपचुनाव हो और उसके इस तरह के ‘अच्छे दिन’ बहुरें। बेचारी जनता जैसे ही घर से बाहर निकलती है, पांव छूने और दबाने वालों की लाइन लग जाती है। वह समझ ही नहीं पा रही कि किसे ‘विजयी भव’ कहें। सब तो वैसे ही हैं रंगे सियार। जिस पर भी गरम पानी डालेंगे, उसका रंग उतर जाएगा।
कुछ भी हो जनता नामक इस दर्शक को खेल में मजा बहुत आ रहा है। कुछ बोलने के बजाय, वह मन ही मन बिदुरा रही है। उसका बस चले तो वह किसी को भी न जिताए और इन बादशाहों से पांव दबवाती रहे, परसाद खाती रहे, घर के आसपास इन्हें नचाती रहे। बिदुरा इसलिए भी रही है कि तुम कर लो जो करना है, हमें जो करना है, हम करेंगे ही।
आज का इक्का
नारे, वादे, बतकही, धन, प्रभाव, पाखंड।
जनता देखे मौन हो, इनका रूप प्रचंड।।

  • ओम द्विवेदी


कोई टिप्पणी नहीं: