शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

बेआवाज़ की आवाज़ कौन

न हंसते बन रहा है न रोते
हम न जागते दिखाई दे रहे हैं न सोते
देश के करोड़ों लोगों की तरह
मेरे सामने भी सच परदे के पीछे है।
कौन है जो द्रोपदी की तरह
सियासत की चीर खींचे हैं।
'आप' के साथ उग रहा है एक सूरज
या डूब रहा है।
इस जन गण का ख़ून खौल रहा है
या वह अपने आप से ऊब रहा है।
यह जनतंत्र तूफानों और
सुनामियों से बदल रहा है
या हमारे भोलेपन को
बड़ी चालाकी से छल रहा है।
सबसे ऊंची मीनार पर
झूठ सच की शक्ल में खड़ा है
या फिर भरे चौराहे पर
सच झूठ बोलने पर अड़ा है।
जिन्हें सुनना पाप, वे चीख़ रहे हैं
जिन्हें सुनना पुण्य, वे मौन हैं।
समझ में नहीं आ रहा
यहां बेआवाज़ की आवाज़ कौन है?
-ओम द्विवेदी

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