अपने देश में हर तरह के मौसम आते हैं। तरह-तरह के मौसम आते रहते हैं इसीलिए यह देश भी है। एक मौसम में कई मौसम घुसपैठिए की तरह जमे रहते हैं। अब जैसे पतंग उड़ाने और पेंच लड़ाने का मौसम। घात लगाए बैठा रहता है और ठंड के साथ कूद पड़ता है मैदान में। बच्चे-जवान दोनों एकसाथ सक्रिय हो जाते हैं। बच्चों की अपनी पतंगे और जवानों की अपनी। पेंच भी दोनों के अपने-अपने। पतंग कटने पर दुख भी दोनों का अलग-अलग। एक पतंग लूटने के लिए छतों पर लंबी कूद लगाता है तो दूसरा 'पतंग' लुट जाने पर देवदास बना फिरता है। तीन सौ पैंसठ दिनों में से कुछ दिन इसी राष्ट्रीय खेल के नाम रहते हैं। ठीक से पतंग उड़ गई और पेंच लड़ गए तो मन चंगा और कठौती में गंगा।
पतंगबाजी और पेंचबाजी का उसूल भी बिलकुल अलग तरह का है। पतंग ठीक से आसमान में पहुंच गई और दुश्मन से ताल ठोंककर टकरा गई तो ठीक, वरना धागे में फंसकर उंगली तो उंगली गर्दन भी कटने लग जाती है। इस युद्घ के लिए अनुकूल जगह चयन भी जरूरी है। ऐसी जगह बहुत आवश्यक है जहां इस खेल के लायक हवा का रुख हो। अब देखिए अण्णा ने दिल्ली में पतंग उड़ाई तो आसमान छू गई। पतंगबाजी का ऐसा रंग जमा कि पूरी दिल्ली उत्सव मनाने लगी। माहौल देखकर सरकार ने भी अपनी उड़ाई। दोनों के पेंच भी लड़े। एक तरफ से पूरी भारत सरकार मंझा खींच रही थी तो दूसरी तरफ से बूढे अण्णा। लंबा संघर्ष चला, लेकिन सरकार की पतंग कट गई। सरकारी पतंग की दुर्दशा देखकर मन ही मन अण्णा भी बिदुराए और देश की जनता ने भी मजा लिया। पतंगबाजी सीजन-३ का आयोजन अण्णा ने दिल्ली की बजाय मुंबई में कर लिया और हश्र देखिए। सोचा मुंबई से ही दिल्ली की पतंग काट देंगे, लेकिन हवा का रुख ऐसा रहा कि पतंग जमीन ही नहीं छोड़ पाई। सरकार की पतंग ठहाके पर ठहाके लगाती रही।
नेताओं ने संसद में 'लोकपाल' की पतंग उड़ाई। सभी दलों के नेताओं की अपनी-अपनी पतंगें थीं। वैसे तो जनता इन्हें पतंग उड़ाने के लिए ही वहां भेजती है और ये पांच साल पतंग ही उड़ाते हैं, लेकिन इस राष्ट्रीय पतंग को उड़ाने का मजा ही कुछ और था। सब इस जुगत में थे कि यह पतंग उड़े भी न और उड़ती हुई दिखाई भी दे। सबका जोर ऐसी मजबूत पतंग बनाने पर था जो आत्मा की तरह अजर-अमर हो। न फाड़े से फट सके, जिसे न पानी गला सके और न आग जला सके। उसका मंझा तलवार से काटने पर भी न कटे। लोहे की पतंग कभी उड़ती है भला? अतः पतंग तो नहीं उड़ी, उड़ाने वाले जरूर पतंगबाजी की जगह तलवार बाजी करने लगे। 'लोकपाल' की पतंग चिंदी-चिंदी हो गई। एक चिंदी यहां गिरी तो एक चिंदी वहां गिरी।
इसी मौसम में चुनाव आयोग ने चुनावी पतंगबाजी का आयोजन किया है। हमेशा की तरह बड़े-बड़े पतंगबाजों का मजमा लग चुका है। पेंच लड़ाने की प्रतियोगिता शुरू हो गई है। अगड़े-पिछड़े की, जाति-धर्म की, धनबल-बाहुबल की और तरह-तरह के ख्वाबों की आकर्षक पतंगें देखकर जनता भरमा गई है। जिसे सालभर पहले कोई पतंग अच्छी नहीं लगती थी, उसे अब सभी पतंगें थोड़ा-थोड़ा भाने लगी हैं। सबमें कुछ न कुछ गुण नजर आने लगा है। 'बाबू' नामक जिस पतंग को 'बहन' ने कचरा समझकर फेंक दिया था, 'भाई' लोग उसी को उड़ाने में लगे हैं। नई पतंग को लूटने से 'भाई' लोगों के घर में जूतमपैजार की नौबत आ गई है। 'युवराज' तो खैर अपनी पतंग में मगन हैं। कुंवारेपन का जोश है उड़ाए पड़े हैं, जिस दिन कटेगी उस दिन पता चलेगा।
जिनका दिल माशा अल्ला जवान है और यहां-वहां उड़ने को बेकरार है, उनके लिए यह मौसम सोने पर सुहागा है। उनकी पतंग बिना कागज और धागे के ही उड़ी पड़ी है। उड़ाने वाले लैला-मजनू, सीरी-फरहाद की तरह उड़ा रहे हैं और देखने वाले देख रहे हैं। भरे बाजार, बाइक पर, पार्क में, झील किनारे, दफ्तर में, स्कूल-कॉलेज में, बस-कार में जहां भी मौका मिल रहा है पेंच लड़ रहे हैं और कट रहे हैं। मौसम को बसंत बनाने में भिड़े दिलदारों की पतंगबाजी के लिए जमीन भी कम है और आसमान भी।
छंद चिकोटी
एक अंग यह धरा है, गगन दूसरा अंग।
चार दिशा उड़ती फिरे, वह है पे्रम पतंग॥
जनता जिसको रात-दिन, काट-काटकर तंग।
नेता के हाथों वही, उड़ती रही पतंग॥
न्याय हुआ है इस तरह, जैसे कटी पतंग।
दौड़ा जो भी खोजने, होता गया अपंग॥
-ओम द्विवेदी
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